Ranchi-हार-जीत सियासत का अहम हिस्सा है. इस सियासी भिड़त में किसके हिस्से जीत की वरमाला आयेगी और किसके हिस्से गमों का पहाड़. इसका कोई एक कारण नहीं होता. कई बार मजबूती के साथ बैटिंग करता बल्लेवाज भी क्लिन बोल्ड हो जाता है या फिर बाउंड्री के उपर लपक लिया जाता है. लेकिन बावजूद इसके चाहने वालों के बीच प्यार और सम्मान में कोई कमी नहीं आती. उसे एक बेहतरीन खिलाड़ी समझा जाता है. सिर्फ मन के एक कोने में एक टिस और यह विश्वास होता है कि आज का दिन भले ही खराब हो. लेकिन कल फिर से बल्ला बोलेगा. लेकिन तब क्या कहा जाय, जब बल्लेवाज लगातार गेंद को उछाल कर अपनी पारी पर विराम देने पर अड़ा हो. झारखंड की सियासत में कुछ कहानी देखने को मिल रही है. जिस अकड़ के साथ कांग्रेस ने महागठबंधन से सात सीटें अपने नाम करने का जिद बांधी, आज वह सीट दर सीट पर फंसती नजर आ रही है, प्रत्याशियों के चयन में ऐसा बचकाना रवैया सामने आया कि सियासी जानकार भी दांतों तले अंगुली दबा कर हैरान-परेशान है और इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा होने लगा है कि क्या वकाई कांग्रेस में चुनाव को लेकर गंभीर है या उसका पूरा जोर महज अपने हिस्से की सीटें बढ़ाने को था.
क्या चुनाव को लेकर गंभीर हैं झारखंड कांग्रेस के रणनीतिकार
यह सवाल इसलिए खड़ा हो रहा है कि क्योंकि कांग्रेस की यह उलझन किसी एक सीट को लेकर नहीं है, सीट दर सीट कुछ यही कहानी सामने आ रही है. सवाल उस स्क्रीनिंग कमेटी पर भी है, जिसके द्वारा टिकटों का वितरण किया गया और कटघरे में प्रदेश कांग्रेस के पदाधिकारी भी है, जिनके द्वारा संभावित प्रत्याशियों के बारे फीड बैक दिया गया. सवाल यह भी है कि क्या प्रदेश कांग्रेस से मिले फीड बैक के आधार पर ही टिकटों का वितरण किया गया? या फिर पर्दे के पीछे कोई बड़ा खेल हुआ और यदि खेल हुआ है तो फिर वह खिलाड़ी कौन था? जिसने केन्द्रीय आलाकमान अपने कारनामों से बरगलाने में सफलता प्राप्त कर ली. क्या इन नामों पर अंतिम मुहर लगाने के पहले केन्द्रीय आलाकमान ने प्रत्याशियों की विनेबिलिटी का फीडबैक लिया था और क्या किसी प्रोफेशनल एजेंसी का भी सहारा लिया गया था और यदि प्रोफेशनल एजेंसी का सहारा लिया गया था तो क्या उसने भी आलाकमान को सतर्क नहीं किया? या फिर केन्द्रीय आलाकमान खुद भी इस खेल का हिस्सा था?
गोड्डा का खेल
दरअसल यह सारे सवाल झारखंड में कांग्रेस से उम्मीदवारों के एलान के बाद उमड़ रहा है. गोड्डा जो आज के दिन भाजपा का एक मजबूत किला है, पिछले बार के मुकाबले में प्रदीप यादव को निशिकांत के मुकाबले करीबन दो लाख मतों से शिकस्त मिली थी. पहले दीपिका पांडेय के नाम का एलान किया गया, लेकिन इसके पहले की दीपिका युद्ध भूमि में शंखनाद करती, सियासी अखाड़े से हटाते हुए एक बार फिर से प्रदीप यादव की इंट्री करवा दी गयी, जबकि पहले दावा था कि यौन शोषण मामले में नाम उछलने के कारण ही प्रदीप यादव को अखाड़े से हटाया गया है. लेकिन सवाल है कि महज चंद दिन में कांग्रेस ने अपने स्टैंड में बदलाव क्यों किया? और क्या प्रदीप यादव को अखाड़े में उतारने के बाद अल्पसंख्यक समाज के बीच फैलती नाराजगी पर विराम लग जायेगा? और जब सीटों में बदलाव की नौबत आ ही खड़ी हुई, क्या उस हालत में किसी अल्पसंख्यक चेहरे को सामने रखकर पूरे झारखंड में एक सियासी संदेश देने की कोशिश नहीं की जा सकती थी. क्या अब गोड्डा के दंगल में प्रदीप यादव के सामने अल्पसंख्यक समाज के साथ ही दीपिका के समर्थकों की नाराजगी दूर करने की चुनौती नहीं होगी, क्या कांग्रेस ने अपने चाल से प्रदीप यादव को गोड्डा से सियासी दंगल में उलझा नहीं दिया है.
धनबाद में उलझा गणित
धनबाद के सियासी दंगल में ढुल्लू महतो की इंट्री के बाद जिस तरीके से सरयू राय ने बैंटिग की शुरुआत की थी, उसके बाद कोयलांचल में बाहरी-भीतरी के साथ ही पिछड़ा-अगड़ा की सियासत भी तेज हो चली थी. इस हालत में क्या बेहतर नहीं होता कि सरयू राय पर दांव लगाकर अगड़ी जातियों की बीच पसरती नाराजगी को लामबंद किया जाय या फिर कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष जलेश्वर महतो को अखाड़े में उतार कर भाजपा के पिछड़ा कार्ड का मुकाबला कुर्मी कार्ड से किया जाता. इस एक दांव से 14 फीसदी कुर्मी महतो के साथ ही दूसरी पिछड़ी जातियों की गोलबंदी भी तेज की जा सकती थी, जलेश्वर महतो की छवि भी साफ सुधरी थी, उनके चहरे पर कोयले का काला दाग नहीं था और इसके साथ ही बाहरी-भीतरी के इस शोर में जलेश्वर महतो एक खांटी झारखंडी चेहरा भी थें, लेकिन एन वक्त पर अनुपमा सिंह की इंट्री करवायी गयी. अब हालत यह है कि जिस अगड़ी जातियों की साधने की रणनीति बनायी गयी थी, वह साफ तौर पर तीन हिस्सों में बिखरता नजर आ रहा है. यदि एक हिस्सा यदि अनुपमा सिंह के साथ है, तो दूसरा हिस्सा सरयू राय के साथ ताल ठोकता नजर आ रहा है, वहीं ददई दुबे ढुल्लू महतो को जीत का आशीर्वाद देते नजर आ रहे हैं और इस सब के बीच पिछडी जातियों में यह संदेश भी जा रहा है कि ढुल्लू महतो के खिलाफ यह पूरी सियासी बैटिंग और आरोप-प्रत्यारोप सिर्फ पिछड़ी जाति से आने के कारण हो रहा है. क्या कांग्रेस को इसका नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा? रही बात अल्पसंख्यक समाज की तो 14 सीटों में उसके हिस्से सिर्फ नील बट्टा सन्नाटा आया है, इस हालात में धनबाद के 14 फीसदी मुसलमान क्या टाईगर जयराम का उम्मीदवार इकलाख अंसारी में अपनी सियासी भागीदारी की तलाश करने का जोखिम नहीं ले सकते हैं. खतरा गंभीर है.
रांची में रामटहल चौधरी के साथ खेल
ठीक लोकसभा चुनाव के पहले रांची संसदीय सीट से पांच बार कमल खिलाने वाले और झारखंड की सियासत में एक बड़ा कुर्मी चेहरा रामटहल चौधरी को पार्टी का पट्टी पहनाया जाता है. जिसके बाद यह चर्चा तेज हो जाती है कि इस बार भाजपा का यह राम पंजा की सवारी पर संजय सेठ के खिलाफ ताल ठोकता नजर आयेगा, इस खबर को सामने आते ही रांची संसदीय सीट के 17 फीसदी कुर्मी मतदाताओं में कांग्रेस के प्रति झूकाव बढ़ने की खबर भी आयी, लेकिन यह सारे आकलन तब धरे रह गयें, जब अंतिम समय में पूर्व सासंद सुबोधकांत की बेटी यशस्विनी सहाय को उम्मीदवार बनाने की खबर आई. अब यशस्विनी सहाय पर पार्टी ने दांव क्यों लगाया, इसका कोई ठोस तर्क समझ में नहीं आता. हालांकि वह युवा हैं, और युवा मतदाताओं के बीच उनकी अपील भी हो सकती है, लेकिन सामाजिक समीकरण की पीच पर यह दांव उलटा पड़ता नजर आता है.
यशस्विनी के सामने तीन लाख मतों का अतिरिक्त जुगाड़ करने की चुनौती
यहां ध्यान रहे कि वर्ष 2019 में इस सीट से सुबोधकांत सहाय को करीबन तीन लाख मतों से करारी शिकस्त मिली थी. यशस्विनी सहाय के चेहरे को सामने कर पार्टी इस बार तीन लाख मतों का जुगाड़ किस सामाजिक समूह में सेंधमारी या अपने साथ जोड़ कर करेगी, एक बड़ा सवाल है. और यह हालत तब है, जबकि इन पांच वर्षों में कांग्रेस ने रांची में अपनी सियासी जमीन को मजबूत करने की दिशा में कोई सार्थक कदम भी नहीं उठाया है. खुद सुबोधकांत भी उपस्थिति पर जमीन पर बेहद सिमटी देखी गयी है. और जिस रामटहल चौधरी के सहारे उसे 17 फीसदी कुर्मी मतदाताओं का साथ मिल सकता है, अपने एक ही दांव से कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उस पर मट्ठा डाल दिया, इस हालत में देखना होगा कि कांग्रेस का यह सियासी प्रयोग कौन सा रंग खिलाता है, संजय सेठ को कितनी बड़ी चुनौती पेश होती है या फिर सिर्फ लड़ाई की औपचारिकता पूरी करने की लड़ाई लड़ी जाती है.
लोहरदगा में चमरा का खेल
एक और सीट जहां कांग्रेस फंसती दिख रही है, वह है लोहरदगा की सीट, कांग्रेस के सुखदेव भगत के मुकाबले यहां से झामुमो के चमरा लिंडा ने नामांकन दाखिल कर दिया है. इस हालत में समीर उरांव का रास्ता कितना आसान और कितना मुश्किल होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन क्या कांग्रेस के रणनीतिकारों में प्रत्याशी का एलान करने के पहले झामुमो को विश्वास में लिया था? और यदि यह फैसला दोनों दलों की आपसी सहमति के बाद लिया गया था, तो क्या यह माना जाय कि चमरा लिंडा को झामुमो का वरदहस्त प्राप्त है? और यदि यह चमरा का अपना फैसला है तो झामुमो ने चमरा लिंडा के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? अनुशासनहीनता का चाबूक क्यों नहीं चलाया? दरअसल खबर यह है कि झामुमो इस सीट को कांग्रेस को देने के पक्ष में ही नहीं थी, उसकी मंशा इस सीट से चमरा लिंडा को मुकाबले में उतारने की थी, वैसे भी लोहरदगा लोकसभा के अंतर्गत आने वाली कुल छह विधान सभाओं में झामुमो का तीन पर कब्जा है. और चमरा लिंडा इसके पहले भी निर्दलीय मैदान में कूद कर दूसरे स्थान पर पहुंच चुके थें, हालांकि वर्ष 2019 के मुकाबले में सुखदेव भगत को महज 10 हजार से मात मिली थी, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि उस वक्त चमरा लिंडा मैदान में नहीं थें. इस हालत में क्या प्रत्याशी का एलान के पहले कांग्रेस को झामुमो के साथ सब कुछ साफ नहीं कर लेना चाहिए था? अब यदि चमरा लिंडा की इंट्री से कांग्रेस का खेल बिगड़ता है तो क्या भाजपा को बैठे बिठाये सब कुछ हासिल नहीं हो रहा.
चतरा में केएन त्रिपाठी की इंट्री
चतरा की कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है, बाहरी-भीतरी की जिस आग में भाजपा ने अपने निर्वतमान सांसद सुनील सिंह को बेटिकट कर स्थानीय उम्मीदवार कालीचरण पर दांव लगाने का फैसला किया, उसी सीट से कांग्रेस ने पलामू से केएन त्रिपाठी को लाकर मुकाबले में खड़ कर दिया, जबकि उसके पास भी स्थानीय चेहरों की कमी नहीं थी, वह स्थानीय चेहरे पर दांव लगा भाजपा की राह में मुश्किले खड़ा कर सकता है, लेकिन उसने एक बाहरी उम्मीदवार को मैदान में उतारने का फैसला किया. सुनील सिंह के बेटिकट करने के बाद राजपूत जाति के बीच पसरती नाराजगी में भी उसने अपना सियासी राह बनाने की कोशिश नहीं की, और सबसे बड़ी बात यदि कांग्रेस की पूरी लिस्ट को समझने की कोशिश करें, तो इसमें अल्पसंख्यकों के साथ ही पिछड़ों की सियासी-सामाजिक भागीदारी का सवाल भी आ खड़ा होता दिखता है. जब राहुल गांधी "जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी" का नारा उछालते हैं, तो उसका एक सियासी संदेश होता है, लेकिन टिकट वितरण में वह संदेश दूर-दूर तक दिखलायी नहीं पड़ता. जबकि दूसरी ओर भाजपा सभी जातियों का गुलदस्ता बनाने की राह पर है. भले ही वह अल्पसंख्यकों से दूरी बना रही हो, लेकिन पिछड़ी जातियों की साधने का रणनीति जरुर अपना रही है, अब देखना होगा कि कांग्रेस के इस सियासी प्रयोग का नतीजा क्या सामने आता है? राहुल गांधी का सपना पूरा होता है या फिर एक बार फिर से अधिकांश सीटों पर कमल खिलता है.
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