टीएनपी डेस्क (TNP DESK):-लोकसभा चुनाव को लेकर गहमागहमी और सियासत की बिसात पर अपनी-अपनी चाले चलना शुरु हो गयी है. 23 जून को पटना में महगठबंधन का महजुटान होने वाला है. लिहाजा, इसे लेकर राजनीति का तापमान बढ़ा हुआ है. जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आयेगी. सियासी पारा भी चढ़ेगा औऱ तरह-तरह के बयानबाजियों से फिंजा में शोर भी होंगे.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल और उनकी रणनीति क्या असर करेगी और कितना कारगर होगी. ये तो वक्त तय करेगा. लेकिन, जिस तरह से वह बीजेपी को दिल्ली से बेदखल करने की कोशिशें और कवायद कर रहे हैं. इससे जाहिर तौर पर विपक्ष की एकता एक नजर में तो दिख रही है .खासकर कांग्रेस का आना महागठबंधन को मजबूती देंगा. कांग्रेस एक राष्ट्रीय और पुरानी पार्टी है. विपक्ष के अन्य दलों की तुलान में उसकी ताकत भी है औऱ देशभर में अन्य दलों की तुलना में ज्यादा जनाधार भी रखती है.
महागठबंधन को एकजुट रखने की चुनौती
मोदी राज को हटाने के लिए नीतीश एड़ी-चोटी का जोर तो लगाए हुए हैं. लेकिन, उनके महागठबंधन में सभी को एकजुट करना ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी. क्योंकि मसला कई चिजों पर आकर अटकेगा, सीट से लेकर पीएम के चेहरे तक में किचकिच हो सकती है. सभी अपनी डफली और अपनी राग अलापेंगे, क्योंकि सबकी सोच और विचार अलग-अलग होगी. लिहाजा अभी जो महाजुटाना होना है, इसे ही बिखरने से बचाना होगा. क्योंकि छोटी सी बात पर तकरार और अहम टकरा सकता है. ये खतरा तो जबतक सभी साथ है, तब तक बरकरार रहेगा .
नीतीश कुमार एक मंजे हुए राजनेता है औऱ सियासत का लंबा तजुर्बा भी रखें हुए हैं, वक्त पड़ने पर करवट बदलाना और सत्ता साधना भी उन्हें अच्छे से आता है. लिहाजा, उनके मन में क्या चल रहा है, और कौन सी चाल चलेंगे ये पढ़ना मुश्किल है.
गैर एनडीए दल जो महागठबंधन में नहीं शामिल
महागधबंधन को मजबूत करने के लिए उन गैर एनडीए दल का भी साथ जरुरी है. ताकि बीजेपी का मुकाबला कर सकें. लेकिन, इन दलों ने अभी तक कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है. कुछ ने तो हाथ नीतीश कुमार से मिलाये भी हैं. लेकिन, दिल नहीं मिलें हैं. आईए जानते है कि क्या मजबूरी और गले शिकवें हैं.
बीएसपी- सुप्रीमो मायावती नीतीश कुमार के साथ आने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई औऱ न ही इसे लेकर उनका कोई बयान सामने आया है. इसके पीछे वजह ये मानी जा रही है कि, उसके दलित वोटबैंक पर सेंधमारी हो सकती है. क्योंकि कर्नाटक में जिस तरह से दलितों ने कांग्रेस को वोट दिया. इससे उसे डर है कि, कही उनका ये वोटबैंक बिदक न जाए. दूसरी तरफ विपक्षी एकता में नीतीश कुमार के साथ समाजवादी पार्टी शामिल है. बसपा और सपा दोनों एक दूसरे के विरोधी है. लिहाजा, इसे देखते हुए भी महागठबंधन में शामिल नहीं हो सकती.
शिरोमणी अकाली दल – पंजाब में शिरोमणी अकाली दल एक मजबूत पार्टी है, किसान आंदोलन के वक्त उसने एनडीए से किनारा कर लिया था . विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी और अकाली दल ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए, एकबार फिर महगधबंधन की बजाए बीजेपी के साथ ही जाने का फैसला लिया है.
वाईएसआऱ कांग्रेंस- आंध्रप्रदेश में पार्टी सत्ता में काबिज है, मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के साथ किसी भी सूरत में हाथ नहीं मिलना चाहतें . क्योंकि, पार्टी वजूद में कांग्रेस से टूटकर ही आई थी. उसका मुकाबला भी प्रदेश में कांग्रेस से ही है. इन सब दांव-पेंच औऱ समीकरण को देखते हुए, वह महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी. ये देखा गया है कि वक्त पड़ने पर मोदी सरकार को जगनमोहन समर्थन देते रहतें है. वाईएसआर कांग्रेस आंध्रप्रदेश में काफी मजबूत पार्टी है. उसके 22 लोकसभा और 9 राज्यसभा सांसद है.
बीजद- ओडिशा में बीजू जनता दल एक ताकतवर औऱ मजबूत संगठन वाली पार्टी है. बीजद ने 25 साल से सत्ता में है . 1997 में गठन के बाद से अभी तक हार नहीं झेली है. 2024 के ओडिशा विधानसभा चुनाव की तैयारी को देखते हुए भी बीजद महगधबंधन में शामिल नहीं होना चाहती. क्योंकि, उसकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही यहां होगी. मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से नीतीश कुमार ने मुलाकात की थी. लेकिन, बात नहीं बनीं. बीजद ने लोकसभा औऱ विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला लिया है. अक्सर केन्द्रीय मुद्दो पर दूरी बना के चलती है. शुरु से ही नवीन पटनायक का फोकस ओड़िसा ही रहा है. बीजद के 12 लोकसभा और 9 राज्यसभा सांसद हैं.
बीआरएस- भारत राष्ट्र समिति का तेलंगाना में शानदार पकड़ है. नीतीश से पहले मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव विपक्षी एकता को मजबूत करने की पुरजोर कोशिश की थी. हालांकि, कांग्रेस को छोड़कर सभी दलों के नेताओं से मुलाकात भी की थी. खम्मम में आय़ोजित सभा में अपनी ताकत भी दिखाया था . लेकिन, अभी बीआरएस नरम पड़ गई है. उसे पता चल गया कि कांग्रेस के बिना विपक्ष की एकता बेमानी है. तेलंगाना में उसकी टक्कर कांग्रेस से ही है,लिहाजा, वह कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती. बीआरएस के 9 लोकसभा और 7 राज्यसभा सांसद हैं.
नीतीश कुमार की विपक्षी एकता में इन दलों का शामिल नहीं होना, लाजमी है कि महागठबंधन की ताकत को कम करेगा. क्योंकि ये अपने-अपने राज्य में काफी मजबूत जनाधार रखतें है. ये दल लोकसभा में भी अच्छी-खासी सीट भी जीत चुके हैं. नवीन पटनायक, जगहनमोहन रेड्डी, चंन्द्रशेखर राव, मायावती का साफ-साफ तौर पर पटना की महाजुटान से दूरी बनाना. ये साफ संकेत देता है कि, सभी की अपनी-अपनी मंशा,मजबूरी और मकसद है. वैसे इनके बगैर भी महगाठबंधन तो मौके की नजाकत, अपने-अपने फायदे या कुछ मजबूरी के चलते बन तो जाएगा. लेकिन कब तक टिकेगा ये सवाल है. 2014 और 2019 में भी विपक्ष की एकजुटता का काफी जोर शोर था. लेकिन परिणाम क्या निकला और क्या हस्र हुआ. इससे सभी वाकिफ है.
रिपोर्ट-शिवपूजन सिंह
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