पटना (Patna): अभी चंद दिनों पहले जिस कंधे पर अपना मुखड़ा रख कर सीएम नीतीश अपने प्रेम का इजहार कर रहे थें, वह प्रेम की झपकी अब दगा देता नजर आने लगा है, और वजह एक बार फिर से सियासत और इस सियासत की अभिन्न हिस्सा साजिश है, सियासत जहां सब कुछ अवसरों की तलाश के लिए होता है, व्यक्तिगत रिश्ते से ज्यादा राजनीतिक महत्वाकांशाओं का जोर चलता है, बाकि सिन्धात और प्रतिबद्धता तो नई नेवली दुल्हन की तरह चंद पलों में अपना रुप बदल लेती है.
अशोक चौधरी का राजनीतिक सफर
दरअसल हम यहां बात करे हैं अशोक चौधरी की, उस अशोक चौधरी की जो अपने स्वर्गीय पिता महावीर चौधरी की राजनीतिक जमीन को एक बार फिर से ललचाई नजरों से देख रहे हैं, उस अशोक चौधरी को जिनकी राजनीति की शुरुआत तो कांग्रेस से होती है, वर्ष 2000 में बरबीधा विधान सभा से जीत का परचम फहराने के बाद उन्हे राबड़ी मंत्रिमंडल में कारा राज्य मंत्री बनाया जाता है, बाद के दिनों में वह बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी बनाये गयें, यह अशोक चौधरी ही थें, जिनकी राजनीतिक कुशलता और सामाजिक गठजोड़ के बदौलत कांग्रेस ने महागठबंधन के साथ मिलकर तीन दशकों के बाद विधान सभा में पांच के आंकड़ा पार किया और उसके विधायको की संख्या 27 तक पहुंच गयी, जी हां हम बात कर रहे हैं 2015 के विधान सभा चुनाव की, जब जदयू राजद और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा था, और यही से अशोक चौधरी सीएम नीतीश की करीब पहुंच गये, लेकिन इस सफलता के बावजूद कांग्रेस से इनका भर गया, या यो कहें की कांग्रेस ने अशोक चौधरी की सामाजिक पकड़ की ताकत को नहीं परखा, और इन्हे कांग्रेस अध्यक्ष होने के बावजूद साइड लाइन करने की साजिश रची गयी.
कांग्रेस के सवर्ण नेताओं को हजम नहीं हो रहा था दलित नेतृत्व
दावा किया जाता है कि कांग्रेस का सवर्ण चहेरे इन्हे अन्दर से पसंद नहीं करते थें, उन्हे इस बात का मलाल रहता था कि उन्हे एक दलित के रहमोकरम पर रहने को विवश किया जा रहा है. कांग्रेस के अन्दर इस खिंचतान से उब कर वर्ष 2018 में अशोक चौधरी जदयू में शामिल हो गये, इस प्रकार जिस कांग्रेस को 2015 में सीएम नीतीश ने संजीवनी देकर जिंदा किया था. 2018 में उसी कांग्रेस को अशोक चौधरी को अपने पाले कर जबर्दस्त धक्का दिया.
अपने दामाद और किशोर कुणाल के बेटे सायन कुणाल की राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं अशोक चौधरी
लेकिन वर्ष 2018 के और वर्ष 2023 के बीच गंगा का पानी बहुत बह गया, इस बीच अशोक चौधरी की बेटी शांभवी की शादी किशोर कुणाल के बेटे साइन के साथ संपन्न हो गयी. इस शादी को बिहार जैसे जातिप्रधान समाज में एक आदर्श माना गया और इस प्रकार एक दलित की बेटी सवर्ण घर की बहु बन गयी. यहां यह भी बता दें कि शांभवी अर्थशास्त्र में स्नातक और तो सायन कुणाल लॉ ग्रेजुएट. हालांकि दोनों के बीच प्रेम कब और कैसे परवान चढ़ा, इसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं है, लेकिन जो चर्चा है वह यह कि लॉ ग्रेजुएट सायन कुणाल राजनीति में अपना हाथ आजमाना चाहते हैं, और यहीं पर सीएम नीतीश और अशोक चौधरी की गाड़ी फंसती नजर आ रही है. इसका एक और तीसरा विलने और कोई नहीं, सीएम नीतीश के बेहद खास और रणनीतिकार ललन सिंह है.
अशोक चौधरी का दावा हमसे टकराने की जुर्रत मंहगा पड़ सकता है
दावा किया जाता है कि विधान सभा प्रभारियों की बैठक के बाहर निकलते ललन सिंह ने अशोक चौधरी को रोक कर बरबीघा की राजनीति में हस्तक्षेप से दूर रहने की हिदायत दी, जिसके बाद अशोक चौधरी बिफर पड़े, ललन सिंह की हिदायत को सर आंखों लेने के बजाय अशोक चौधरी ने साफ अल्फाज में यह सुना दिया कि वह जो कुछ भी करते हैं नीतीश कुमार की मर्जी से, और उन्हे दबाने की कोई कोशिश बेकार है, उन्हे टकराना आता है.
यहां एक बार फिर से बता दें कि बरबीघा अशोक चौधरी की कर्मभूमि रही है, उनके पिता महावीर चौधरी यहां से 1980 से लेकर 1985 तक विधायक रहे हैं, और खुद अशोक चौधरी ने अपनी राजनीति की शुरुआत इसी विधान सभा क्षेत्र से की थी. दावा किया जाता है कि अशोक चौधरी फुर्सत मिलते ही बरबीघा पहुंच जाते हैं, और वहां अपनी जमीन को एक बार फिर से तैयार करने की जुगत बिठा रहे हैं, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि अशोक चौधरी वहां अपने पुराने करीबियों से ही मिलना पसंद करते हैं, और उसमें अधिकांश कांग्रेसी है, लेकिन जदयू विधायक सुर्दशन कुमार के करीबियों से दूरी बना कर चलते हैं, और बार बार इसकी शिकायत राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह तक पहुंचती रहती है. अब राष्ट्रीय अध्यक्ष के रुप में ललन सिंह अपने विधायक की इस समस्या का समाधान भर चाहते हैं, और यही अशोक चौधरी को बर्दास्त नहीं है.
भाजपा का उम्मीदवार बन सकते हैं सायन कुणाल
लेकिन एक दूसरी खबर भी है कि किशोर कुणाल के मार्फत अशोक चौधरी की नजदीकियां भाजपा के बढ़ती नजर आ रही है, और यह तेवर महज यह दिखलाने की कोशिश है कि हमारे रास्ते भाजपा के लिए बंद नहीं हुए हैं, जदयू ना सही हम भाजपा के टिकट पर अपने दामाद को विधान सभा भेजने का सपना पूरा कर सकते हैं, रही बात नीतीश कुमार की उस झपकी की, तो राजनीति में इन चीजों का कोई मतलब नहीं होता, जो भी रास्ता विधान सभा तक जाता है, दरअसल वही रास्ता सचा रास्ता होता है, राजनीति में कोई पालकी ढोने नहीं आता.
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