TNP DESK-देश की आजादी के बाद अपने नायकों को सम्मानित करने और उनकी स्मृतियों और संघर्षों को जन-जन तक पहुंचाने के जिस भारत रत्न की शुरुआत 2 जनवरी 1954 को गयी थी, इस चुनावी वर्ष में भारत सरकार के द्वारा एक साथ पांच-पांच भारत रत्नों की घोषणा एक नयी शुरुआत की गयी है. अब तक यह किसी भी एक वर्ष में अधिकतम तीन लोगों को ही प्रदान किया गया है. निश्चित रुप से भारत रत्न के सम्मान को किसी चुनावी चश्में से देखने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए, एकबारगी इसकी संख्या को बढ़ाने का एक मकसद इस सम्मान का जनतंत्रीकरण की कोशिश भी हो सकती है. शायद भारत सरकार की मंशा इस सम्मान को उन सामाजिक समूहों तक पहुंचाने की रही हो, जो अब तक वर्चस्ववादी राजनीति का शिकार होकर हाशिये पर रहने को मजबूर किये जाते रहे हैं.
वर्चस्ववादी राजनीति की टूटती धार
याद रखिये कि यह वही सामाजिक समूह हैं, जो मंडलवादी राजनीति के विस्तार के बाद बेहद तेजी से देश और राज्य की सियासत में अपनी पकड़ को मजबूत बना रहा है. प्रतीकात्मक रुप से ही सही, अब उसकी आवाज सत्ता के गलियारों में सुनी जा रही है. और यह माना भी जा रहा है कि अब इन सामाजिक समूहों को नजरअंदाज कर देश और राज्य की सियासत को साधा नहीं जा सकता है और यही कारण है जिस कर्पूरी ठाकुर को उनके जनतांत्रीक सियासत के उसूल के कारण कभी वर्चस्ववादी सामाजिक समूहों के द्वारा अपशब्दों की बौछार की जाती थी, आज उसी कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित कर वोटों की फसल लहलहाने के दावे किया जा रहे हैं. ठीक यही हालत चौधरी चरणसिंह की भी है, बाकी के तीन पुरस्कार एक रामरथ की यात्रा निकाल कर भाजपा को फर्स से अर्स तक पहुंचाने वाले लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व पीएम पीएन नरसिम्हा राव और महान कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन के हिस्से गया है.
भारत रत्न की सूची में अपने नायकों का नाम खोजता आदिवासी समाज
लेकिन इस कथित जनतंत्रीकरण की अवधारण को धक्का तब लगता नजर आया, जब इस सूची से जयपाल सिंह मुंडा से लेकर दिशोम गुरु शिबू सोरेन का नाम एकबारगी गायब दिखा और यहीं से सवाल खड़ा होता है कि यह जनतंत्रीकरण की कोशिश है, या फिर इसके इरादे कुछ और हैं. आखिर इस सूची से आदिवासी समाज के नायकों के नाम गायब क्यों है? एक तरफ हम आजादी के अमृत काल का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, दूसरी तरफ आदिवासी समाज आज भी भारत रत्न की सूची में अपने नायकों का नाम खोजने को अभिशप्त है. तो क्या यह सिर्फ यह हमारी सियासत की त्रासदी है या फिर जनतंत्रीकरण के तमाम दावों के बावजूद आज भी हमारी राजनीति वर्चस्ववादी सियासत का शिकार है.
13 करोड़ की आबादी के नायकों को कब मिलेगा उसके हिस्से का सम्मान
यहां ध्यान रहे कि पूरे देश में आदिवासी समाज की आबादी करीबन 13 करोड़ की है, जो हमारी आबादी का करीबन 9 फीसदी होता है. और यही वही समाज है, जो अपने आप को बेहद गर्व के साथ धरती पुत्र कहता है,लेकिन सवाल यहां यह है कि आजादी के 75 सालों में हमारे इन धरती पुत्रों के हिस्से क्या आया? जिस 1857 की क्रांति को हम पहला स्वतंत्रता दिवस बताते नहीं अधाते हैं, उसके पहले ही संथाल की इस धरती से हूल विद्रोह का बिगुल फुंकने वाले सिद्दो-कान्हू के वंशजों को उनकी हिस्सेदारी-भागीदारी कब मिलेगी. आखिर क्या कारण है कि भारतीय संविधान सभा में एकलौता आदिवासी चेहरा मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा को इस सम्मान से वंचित किया जाता रहा. आखिर कब इस सूची में रामदयाल मुंडा और दिशोम गुरु का नाम खोजने के लिए हमारा आदिवासी समाज इस सूची को उपर से नीचे तक निहारने को अभिशप्त होगा, यह महज एक सामाजिक त्रासदी है, या इसके पीछे भी एक सियासत है, जो आज भी इन वंचित समूहों को हिकारत भरी नजरों से देखता है, या इसकी जरुरत उसे तब ही पड़ती है, जब इनके सम्मान से उनकी सियासत का जायका बदलता नजर आता है?
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