TNP DESK-पांच राज्यों का विधान सभा का चुनाव लेकर कांग्रेस की व्यस्तता और इंडिया गठबंधन को लेकर उसकी चुप्पी से अब इसके घटक दलों के बीच सियासी बेचैनी पसरने लगी है और यह सवाल खड़ा होने लगा है कि इस गठबंधन को लेकर कांग्रेस में कितनी गंभीरता है. या वह सिर्फ अपने सियासी लाभ-हानी के लिए इस गठबंधन का इस्तेमाल करना चाहती है, जिसमें हर कुर्बानी इसके दूसरे घटक दलों के द्वारा दी जायेगी. जहां वह कमजोर स्थिति में होगी वहां वह अपने लिए सीटों की मांग करेगी और जहां वह मजबूत स्थिति में होगी, वहां वह खुद अपने बूते भाजपा को निपटाने का दंभ पालेगी.
सवाल यह भी खड़ा होने लगा है कि क्या वाकई कांग्रेस के अन्दर गठबंधन की राजनीति को साधने का सियासी हुनर भी है, क्या वह गठबंधन धर्म को निभाना जानती है, क्या वह अपने सहयोगी दलों के लिए कुर्बानी देने का मनःस्थिति रखती है. क्या उसका पिछला इतिहास इंडिया गठबंधन के घटक दलों को उस पर विश्वास करने का भरोसा देती है.
पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में कहीं नहीं खड़ी है इंडिया गठबंधन
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया, क्योंकि पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव में इंडिया गठबंधन कहीं खड़ा दिखलाई नहीं पड़ता, पूरी लड़ाई कांग्रेस अपने बूते लड़ती हुई दिखलाई पड़ रही है, कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि छत्तीसगढ़ लेकर मध्य प्रदेश में लालू नीतीश से लेकर शरद पवार की कोई उपयोगिता नहीं है, वह तो महज एक क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जिनका एक विशेष इलाके में सीमित जनाधार है.
जबकि इसके विपरीत भाजपा अपने एनडीए सहयोगियों को अपने तरफ से बैंटिंग में उतार रहा है, उनकी शख्सियत का उपयोग कर रहा है. और तो और पटना और बेंगलूरु की बैठक के बाद जिस तरीके से विपक्षी एकजुटता को प्रदर्शित करने के लिए संयुक्त रैली का दावा किया गया था, दावा किया जाता है कि कमलनाथ की हठधर्मिता के कारण उस संयुक्त रैली को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. कमलनाथ की सोच है कि इस रैली से उनकी जीत पर असर पड़ सकता है, काग्रेंस और खुद उनकी सनातनी छवि को नुकसान पहुंच सकता है.
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भाजपा के उग्र हिन्दुत्व के मुकाबले उदार हिन्दुत्व का चोला पहन रही है कांग्रेस
दरअसल छतीसगढ़ लेकर मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस अपने उदार हिन्दुत्व के सहारे भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व का मुकाबला करने की रणनीति पर चलती नजर आ रही है, उसका मानना है कि इंडिया घटक के दूसरे दलों की छवि धर्म विरोधी की बन रही है, और चुनावी समर में इनका साथ नुकसानदायक हो सकता है.
जातीय जनगणना और पिछड़ा कार्ड के सहारे क्षेत्रीय दलों के पंरपरागत मतदातों को अपने पाले में करने की रणनीति
जबकि दूसरी ओर कांग्रेस बड़ी ही चालाकी से जातीय जनगणना की मांग से अपने आप को जोड़ कर सपा, राजद, झामुमो और जदयू जैसी पार्टियों के परंपरागत जनाधार में सेंधमारी की रणनीति पर भी काम कर रही है, ‘जात पर ना पात पर वोट लगेगा पंजा छाप पर’ की बात करने वाली कांग्रेस आज अपने आप को पिछड़ी जातियों का सबसे बड़ा हितैषी होने का दंभ पाल रही है, यह वही कांग्रेस है जिसने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को बरसों तक फाइलों में दबा रखा था, जिसके लिए सामाजिक न्याय की मांग और आन्दोलन महज जातिवादी आन्दोलन था, और जिसके लिए पिछड़ों की हिस्सेदारी और भागीदारी का सवाल सिर्फ जातिवादी सोच थी.
पीएम मोदी के पिछड़ा कार्ड के बाद जातीय जनगणना के सवाल पर पिछड़ों के साथ खड़ा होना कांग्रेस की सियासी मजबूरी
लेकिन जैसे ही उसे लगा कि पीएम मोदी ने पिछड़ा कार्ड खेलकर भाजपा के पक्ष में पिछड़ों की गोलबंदी को मजबूत कर दिया है, सवर्ण वोट पहले ही भाजपा के पास चली गयी है, और दलितों की नजर में आज भी उनका मुक्तिदाता बसपा और दूसरी अम्बेडकरवादी पार्टियां हैं. कांग्रेस ने अपना पुराना चोला उतार कर कांशीराम का पुराना नारा ‘जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ को पकड़ लिया, लेकिन जब टिकट वितरण की बात आती है तो इस नारे को जमींदोज कर दिया जाता है, जबकि इसके विपरीत भाजपा आज भी दिल खोल कर पिछड़ों को टिकट दे रही है.
अभी भी दिल से पिछड़ों को अपनाने की स्थिति में नहीं हैं कांग्रेस
इस राजनीतिक पसमंजर में सियासी जानकारों का आकलन है कि कांग्रेस अभी भी एक दुविधा की शिकार है, उसका मनमिजाज आज भी गठबंधन की राजनीति के तैयार नहीं है. उसकी कोशिश एक रणनीति के तहत सपा, बसपा, राजद और जदयू जैसी तमाम पार्टियों को पंरपरागत वोट बैंक को अपने पाले में करना है. और कांग्रेस की इसी अधोषित रणनीति से इंडिया गठबंधन के तमाम दलों के बीच सियासी बेचैनी पसरती हुई दिखलाई पड़ रही है. जिसकी एक झलक सीएम नीतीश के उस बयान में मिलती है, जब वे कहते हैं कि इंडिया गठबंधन को लेकर कांग्रेस का रुख बेहद उदासीन है. जबकि सबसे बड़े घटक के रुप में उसकी जिम्मेवारी बनती थी कि वह इस कारवां को आगे बढ़ाये, लेकिन इससे विपरीत आज के दिन उसका पूरा फोकस पांच राज्यों के चुनाव पर हैं, नीतीश के इस बयान से उनका दर्द भी सामने आता है.
तीसरे मोर्चे की संभावना भी विचार कर सकते हैं सीएम नीतीश
ध्यान रहे कि इंडिया गठबंधन नीतीश कुमार का सपना था, वह इसके प्रमुख शिल्पाकर थें, लेकिन आज जब उनके अन्दर ही यह निराशा फैलने लगी है, तो इसके भविष्य का आकलन किया जा सकता है. दूसरी तरफ कई सियासी जानकारों का मानना है कि यदि इंडिया गठबंधन को लेकर कांग्रेस का यही रुख रहा तो नीतीश तीसरे मोर्चा का भी खांचा खींच सकते हैं, जहां उनका पूरा फोकस बिहार, यूपी और झारखंड पर होगा और इसके साथ ही वह उन दलों को भी अपने साथ खड़ा कर सकते हैं जो आज के दिन किसी भी गठबंधन का सदस्य नहीं है. यानि कांग्रेस-भाजपा मुक्त मोर्चा. देखना होगा कि क्या नीतीश अब इसी दिशा में आगे बढ़ते हैं या कांग्रेस इस संकट को टालने लिए सामने आती है
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