रांची(RANCHI)- एक तरह जब झारखंड सहित पूरे देश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है, माना जा रहा है कि यदि आबादी की रफ्तार इसी दर से बढ़ती रही तो आने वाले दिनों में हमें एक अदद छत के लिए भी तरसना पड़ सकता है, नदी, जंगल और पहाड़ कुछ भी इस बढ़ती आबादी की भूख और प्यास को शांत की स्थिति में नहीं होंगे, जिन चौड़ी-चौड़ी चमकती सड़कों का जाल बिछाकर हम विकास का गाथा लिखने का दावा कर रहे हैं, इस जनसंख्या विस्फोट के सामने सब कुछ बिखरने वाला है.
लेकिन आबादी की इस बढ़ती रफ्तार के बीच एक दूसरी सच्चाई यह भी है कि आदिम जनजाति में शामिल कई जनजातियों की आबादी साल दर साल सिमटती जा रही है, उनकी औसत आयू कम होता जा रहा है, शारीरिक क्षमता में गिरावट आ रही है और माना जा रहा है कि यदि इस प्रक्रिया विराम नहीं लगाया गया तो बहुत जल्द कई जनजातियों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा.
सवालों के घेरे में हमारा विकास मॉडल
इसी आदिम जनजाति में शुमार होने वाली मान पहाड़िया को लेकर रिम्स का प्रिवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन (पीएसएम) विभाग एक बड़े शोध की तैयारी में है. इस शोध में माल पहाड़िया का लाईफ स्टाईल और उनके खान पान को समझने की कोशिश की जायेगी और इसके साथ ही स्वीडन की सामी जनजाति के साथ तुलनात्मक अध्ययन कर इस बात को समझने की कोशिश की जायेगी कि इस बेतहाशा बढ़ती आबादी के बीच जनजातियों आबादी सिमट क्यों रही है. क्या हम जिस जीवन पद्धति को अपना विकास मान रहे हैं, वही जीवन पद्धति उनके लिए विनाश का रोडमैप लेकर खड़ी है. आखिर कथित मुख्यमार्ग का उनकी जिंदगी में बढ़ती दखल के बाद उनका अस्तित्व पर संकट कैसे खड़ा कर रहा है.
कुपोषणा या मुख्यधारा की मार
यहां बता दें कि सामी जनजाति की औसत उम्र 83 वर्ष है, जबकि मालपहाड़िया की औसत आयी 60 वर्ष, इसके साथ ही झारखंड की दूसरी जनजातियों की तुलना में भी इनकी आयू बेहद कम है. अब इस शोध में यह समझने की कोशिश की जायेगी कि आखिर इसका राज क्या है, क्या कुपोषण इसकी बजह है या मुख्यधारा का उनकी जिंदगी में बढ़ता हस्तक्षेप?
ध्यान रहे कि माल पहाड़िया और सामी जनजाति का रहन सहन लगभग एक जैसा है, लेकिन दोनों के खान पान में काफी बड़ा अंतर है, वहां की सरकार जनजातियों को बेहद उम्दा भोजन उपलब्ध करवाती है, जबकि यहां उन्हे न्यूनतम आवशक्ता मुहैया करवाने पर बहस होती है, उसे उपलब्ध करवाने का वादा किया जाता है, इनके लिए साफ पानी भी उपलब्ध करवा पाना एक उपलब्धि है. जिस पीडीएस के मार्फत चावल दाल और आटा देकर उन्हे मदद करने का दावा किया जाता है, उसकी गुणवता भी सवाल खड़े होते रहे हैं, और क्या वह मिल भी पाता है, एक अलग प्रश्न है.
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