Ranchi-आखिरकार जयराम समर्थकों के भारी विरोध के बीच सूरजकुंड महोत्सव के आयोजकों ने कार्यक्रम रद्द करने की औपचारिक घोषणा कर दी, और इसके साथ ही चर्चित गायक और भोजपूरी कलाकार खेसारीलाल यादव का आगवन भी स्थगित हो गया. और इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा हो गया कि क्या अब झारखंड में दूसरे राज्यों के कलाकारों के लिए दरवाजे बंद हो चुके हैं, क्या अब किसी भी आयोजन में बिहारी-भोजपूरी कलाकारों को आमंत्रित नहीं किया जायेगा? क्या हजारीबाग से शुरु हुई यह आग राज्य के दूसरे हिस्सों में फैलेगी, और यदि यह प्रवाह जारी रहता है, तो इसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा?
क्या महाराष्ट्र की राह चलने वाला है झारखंड
सवाल यह भी कि क्या झारखंड भी अब महाराष्ट्र की राह पर चल पड़ा है, जहां बिहारी प्रवासी मजदूरों के प्रति एक खास प्रकार का गुस्सा दिखलायी पड़ता है, या फिर दिल्ली की राह पकड़ चुका है, जहां एक भाजपा नेता के द्वारा दिल्ली को बिहार बनाने की साजिश का अंदेशा जाहिर किया जाता है और इसके साथ ही बिहारियों के लिए ओझे शब्दों का प्रयोग होता है. यह सब कुछ बानगियां है, दरअसल पूरे देश में बिहार की एक विशेष छवि प्रचारित की गयी है, भले ही अपराध के आंकड़ों में आज भी यूपी शीर्ष पर हो, लेकिन तुलना बिहार से की जायेगी. तो क्या यह माना जाय कि जो पूरे देश में बिहार की छवि है, अब उसी छवि को उसके पड़ोसी राज्य झारखंड में परोसने की साजिश की जा रही है.
बिहार और बिहारियत के खिलाफ नहीं, झारखंडियत के प्रति विशेष अनुराग
तो इसका साफ जबाव है नहीं, जयराम समर्थक कहीं से भी इस आधार पर खेसारीलाल यादव का विरोध नहीं कर रहे हैं, कि वह बिहारी है, या भोजपूरी कलाकार है, उनकी सवाल महज इतना है कि झारखंड के संसाधनों के बल पर दूसरे राज्यों के कलाकारों को भुगतान क्यों किया जाय? जबकि हमारे ही कलाकार गरीबी और भूखमरी से जुझ रहे हैं, खुद उनके सामने आजीविका संकट खड़ा है, बावजूद इसके राज्य के सभी बड़े आयोजनों में बाहरी कलाकारों को बुला बुला कर लाखों का भुगतान किया जा रहा है, उनकी दूसरी शिकयत खेसारीलाल यादव की खास छवि को लेकर भी है, उनका आरोप है कि खेसारीलाल अश्लीलता का पर्याय बन चुके हैं, उनके गीतों को झारखंडी समाज में परोसने का मतलब है कि अश्लीलता की गंगा बहाना, यह आरोप कितना सही और कितना गलत है, यह एक अलग बहस का मुद्दा है, लेकिन इतना को मानना ही होगा यदि कोई अपनी परंपरा, सभ्यता और रीति रिवाज को संरक्षित करने का प्रयास कर रहा है, तो यह उसका हक है, रही बात खेसारीलाल की इंट्री का, तो उनके लिए दरवाजे बंद नहीं हुए है, समर्थकों का दावा है कि खेसारीलाल यादव को भजन गायक तो हैं नहीं, जो सूरजकुंड महोत्सव में अपना भजन गाकर लोगों में धार्मिक भावना का प्रसार करेंगे, उसके लिए तो हमारे ही कलाकार काफी है. साफ है कि यह उनका हक है, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा होता कि जयराम समर्थकों को अपनी बात थोपने के बजाय, आयोजकों के साथ मिल-बैठ कर इसका समाधान निकाला जाना चाहिए था, आखिर जिन लोगों की चाहत खेसारीलाल यादव के प्रति है, वह उनकी उस चाहत पर ताला कैसे लगा सकते हैं, और उस हालत में जब खुद जयराम संविधान की बात करते हैं, संवैधानिक प्रावधानों का उदाहरण देते रहते हैं, तो फिर यही संविधान खेसारीलाल यादव के समर्थकों को भी अपनी बात कहने की ताकत देता है, हां, वाद विवाद और संवाद का रास्ता हमेशा से खुला है. और इसी रास्ते चल कर इसका समाधान निकाला जा सकता है. वैसे भी जयराम के सामने अभी सियासत की लम्बी पारी खेलनी है, इस हालत में अपनी बात तो जबरन थोप कर एक विशेष वर्ग को अपने खिलाफ खड़ा होने को मजबूत करना सियासी समझदारी तो नहीं कहा जा सकता.
14 जनवरी से हजारीबाग के सूरजकुंड में 15 दिवसीय मेले की शुरुआत
ध्यान रहे कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी से हजारीबाग के सूरजकुंड में 15 दिवसीय मेले की तैयारियां शुरु हो चुकी है. सूरजकुंड मेला श्रावणी मेले के बाद झारखंड का दूसरा सबसे बड़ा मेला है. पूरा एक पखवाड़ा यहां लोगों की जमघट लगती है, दूर दूर से लोग यहां स्नान के लिए आते हैं. इस अवसर पर स्थानीय संस्थाओं और राज्य सरकार की ओर से भव्य व्यवस्था भी की जाती है. नृत्य संगीत का आयोजन किया जाता है, जिसमें राज्य और राज्य के बाहर के कलाकारों को बुलाया जाता है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस महोत्सव में बाहरी कलाकारों को लेकर विरोध के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं, इस बार भी जैसे ही इस बात की खबर लगी कि बिहार के चर्चित गायक खेसारी लाल को बुलाने की तैयारी चल रही है, विरोध का स्वर तेज होने लगा. और इसकी अनुगूंज सोशल मीडिया पर भी सुनाई पड़ने लगी है. दावा है कि इस आयोजन के लिए खेसारीलाल यादव को करीबन 21 लाख रुपया का भुगतान किया जाना था. खेसारीलाल के विरोध में खड़े युवाओं का कहना है कि इतनी राशि में तो दर्जनों झारखंडी कलाकारों को बुलाया जा सकता था. इससे हमारी मिट्टी से जुड़े कलाकार का सम्मान भी होता और उनकी रोजी रोटी की व्यवस्था भी हो जाती, लेकिन हम अपनी मिट्टी और संस्कृति से दूर होकर फूहड़ता को गले लगा रहे हैं, जब हम अपने ही कलाकारों का सम्मान नहीं करेंगे, अपनी ही भाषा और संस्कृति का संरक्षण नहीं करेंगे, तो हमारा सामाजिक वातावरण को प्रदूषित तो होगा ही.
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