TNPDESK-छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में करारी हार के बाद जहां कांग्रेस में सदमे की लहर है, पूरी पार्टी एक बार फिर से निराशा और हताशा के गर्त में जाती दिख रही है, वहीं निराशा के इस घटाटोप बादल के बीच भी जदयू नसीहत देने से बाज नहीं आ रही. इंडिया गठबंधन की एक प्रमुख सहयोगी जदयू ने चुनावी परिणामों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि काश! कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन को विश्वास में लेकर यह चुनाव लड़ा होता, तो आज कांग्रेस को इस हालत का सामना नहीं करना पड़ा, यह दुर्गति नहीं होती. लेकिन कांग्रेस हमारी इस नेक सलाह को सुनने को तैयार नहीं था. उसकी हसरते आसमान पर थी, उसके रणनीतिकारों को यह दंभ था कि कांग्रेस अपने बूते ही भाजपा को धूल चटा सकती है.
कांग्रेस के अहंकार की हार
जदयू नेता और बिहार सरकार मंत्री विजय चौधरी ने कहा कि कांग्रेस की इस हार से इंडिया गठबंधन को सबक सीखना होगा, इस हार का गंभीर विश्लेषण और विवेचना करनी होगी. आखिर रणनीतिक चूक कहां हो गयी? क्या प्रत्याशियों के चयन में कोई कमी रह गयी? क्या पिछड़ा -दलित का सिर्फ राग अलापा गया और टिकट बंटवारें के वक्त इन सामाजिक समूहों को हाशिये पर धकेल दिया गया? क्या विभिन्न राज्यों की छोटी-छोटी पार्टियों को साथ खड़ा कर इस हार को पलटा जा सकता था.
इंडिया गठबंधन ने चुनाव के ठीक पहले ही भोपाल में रैली करने का फैसला किया था, लेकिन कांग्रेस के कुछ नेताओं को यह मंजूर नहीं था, और यदि वह रैली हो गयी होती तो आज मध्यप्रदेश का नजारा ही कुछ दूसरा होता. कांग्रेस के लिए अब भी समय है कि सहयोगी दलों की राय को ग्रहण करने की आदत डाले और तमाम क्षेत्रीय दलों को सम्मान के साथ देखना सीखे.
अखिलेश-वखिलेश की टिप्पणी के बाद यादव-पिछड़ों ने कांग्रेस से किया किनारा
यहां ध्यान रहे कि सपा नेता अखिलेश यादव ने कांग्रेस से मध्यप्रदेश में 10 सीटों की मांग की थी, जिसके जवाब में कमलनाथ कौन अखिलेश-वखिलेश कहते सुन गये थें, जिस पर पलटवार करते हुए अखिलेश यादव ने भी कमलनाथ को चिरकुट बता दिया था. उसके बाद दोनों दलों के बीच तनातनी बढ़ गयी थी. ठीक यही स्थिति राजस्थान में रही, वहां भी हनुमान बेनीवाल और आदिवासी समाज के बीच प्रभाव रखने वाली पार्टियों के द्वारा कांग्रेस के साथ समझौते का प्रस्ताव दिया गया था. लेकिन अशोक गहलोत इसके लिए तैयार नहीं थें, इस बीच दलितों के बीच आइकॉन बन कर उफरे चन्द्रशेखर रावण ने हनुमान बेनीवाल के साथ मिलकर मोर्चा खोल दिया. जिसके कारण आदिवासी समाज और जाट जाति के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ खड़ा हो गया. और इसका नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा.
छत्तीसगढ़ में भारत आदिवासी पार्टी को साथ नहीं लाना पड़ा भारी
ठीक यही हालत छत्तीसगढ़ की रही, यहां भी भारत आदिवासी पार्टी और कई दूसरे दलों के द्वारा कांग्रेस को गठबंधन का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन यहां भी भूपेश बघेल सत्ता की मलाई का बंटवारा के पक्ष में नहीं थें, दरअसल इन तमाम स्थानों पर कांग्रेस का मानना था कि ये छोटे छोटे दल जीत के बाद टूट कर भाजपा के साथ हाथ मिला सकते हैं, या भाजपा इनके विधायकों की खरीद फरोख्त कर सकती है, लेकिन कांग्रेस की यह सोच उसके लिए घाटे का सौदा हो गया. यही कारण है कि कांग्रेस की इस हार के पीछे कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे पुराने नेताओं का सामंती मिजाज और कार्यशैली को जिम्मेवार बताया जा रहा है. दावा किया जाता है कि पुरानी पीढ़ी के नेताओं की सोच और कार्यशैली आज की सियासी हकीकत और जमीनी सच्चाई से दूर खड़ी है. ये राजनेता किसी भी हालत में सत्ता का बंटवारा करने को तैयार नहीं है, भले ही सत्ता हाथ से गंवानी पड़ें. यहां यह भी बता दें कि जिस भारत आदिवासी पार्टी के साथ भूपेश बघेल ने समझौता से इंकार किया था, वह अपने बूते तीन सीटों पर झंडा फहराने में कामयाब रही, जबकि कुल 11 सीटों पर कांग्रेस की हार का कारण बनी. यदि भूपेश बघेल ने भारत आदिवासी पार्टी को सम्मान के साथ देखा होता, अखिल भारतीय पार्टी होने का दंभ नहीं पाला होता तो निश्चित रुप से आज छत्तीसगढ़ में आज कांग्रेस और भूपेश बघेल की सत्ता होती, हां यह जरुर होता कि उसे पांच से दस सीट की कुर्बानी देनी होती.
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