Ranchi- 2024 के महाजंग से पहले झारखंड में डुमरी उपचुनाव को इंडिया गठबंधन का लिटमस टेस्ट माना जा रहा था. इस बात का दावा किया जा रहा था कि डुमरी का परिणाम यह तय कर देगा कि राज्य में हेमंत सरकार की लोकप्रियता बरकरार है या सरकार के तमाम हसीन दावों के बावजूद जमीन पर सत्ता विरोधी लहर अपनी जड़ों को मजबूत कर रहा है.
सरकार के दावे अपनी जगह और लोगों की दुश्वारियां अपनी जगह
क्योंकि सरकार के दावे अपनी जगह होते हैं, और आम लोगों की दुश्वारियां और आकांक्षाएं अपनी जगह. सरकार जिस फील गुड का दावा करते नहीं अघाती, कई बार जनता उसे उबाई प्रवचन मानती है, और इसी चक्कर में कई बार कथित लोकप्रिय सरकारों को जमींदोज होते देखा गया है.
हालांकि इंडिया गठबंधन ने 17 हजार से अधिक मतों के साथ एनडीए खेमें को शिकस्त देने में सफलता प्राप्त कर ली, लेकिन यदि पिछले विधान सभा चुनाव परिणामों पर दौर करे तो डुमरी के परिणाम इंडिया गठबंधन के लिए कई राजनीतिक संकेत दे रहे हैं, सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती 2024 के जंगे मैदान में अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखने की चुनौती होगी, वह इसलिए कि पिछले विधान सभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को करीबन 26 हजार मत मिले थें, यह हालत तब थी जब असदुद्दीन ओवैसी ने यहां कोई प्रचार नहीं किया था, और एआईएमआईएम प्रत्याशी मोहम्मद मोबीन रिजवी ने यह 26 हजार मत अपने प्रचार के बुते पाया था, लेकिन इस बार ओवैसी की मौजूदगी के बावजूद यह आकंड़ा 3462 मत तक सिमट गया.
क्या 2024 में भी नहीं चलेगा ओवैसी का जादू
साफ है कि यदि डुमरी में ओवैसी का जादू चल गया होता तो यह का आंकड़ा 26 हजार से पार भी जा सकता था, और तब डुमरी का यह किला झामुमो के हाथ से निकल गया होता. लेकिन डुमरी के अल्पसंख्यक मतदाताओं ने ओवैसी के आक्रमक भाषण को एक सिरे से नकार दिया. तब क्या माना जाय कि आने वाले लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक मतदाताओं का यही रवैया रहने वाला है. क्या 2024 में नये तीर और तरकश के साथ एक बार फिर से ओवैसी की वापसी नहीं हो सकती है. और यदि यह होता है तब क्या यह इंडिया गठबंधन के लिए हार का कारण नहीं बन सकता है.
यहीं से शुरु होती है इंडिया गठबंधन की चुनौतियां
और यहीं से शुरु होती है इंडिया गठबंधन की चुनौतियां, उसे हर हाल में अल्पसंख्यक मतदाताओं को अपने साथ खड़ा रखना होगा, लेकिन यह साथ सिर्फ राजनीतिक बयानों के जरिये हासिल नहीं किया जा सकता है, हेमंत सरकार के फोकस में अब तक दलित पिछड़ा और आदिवासी रहा है, वह मूलवासी और आदिवासी मुद्दों के इर्द गिर्द बैटिंग करता रहा है, लेकिन उसी रुप में वह अल्पसंख्यकों के साथ अपने को जोड़ती नजर नहीं आ रही है. कोई भी सामाजिक समूह की पहली चाहत सत्ता में हिस्सेदारी की होती है, वह सत्ता के शीर्ष केन्द्र पर अपने अपने चहेरों की खोज करता है, लेकिन इसके साथ ही वह योजनाओं में भी अपनी हिस्सेदारी खोजती है.
कर्नाटक दिखला सकता है रास्ता
यही कारण है कि कर्नाटक फतह के साथ ही मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अल्पसंख्यक मतदाताओं को रिझाने के लिए एक से बढ़कर एक योजनाओं की घोषणा कर रही है, इसी में से एक अल्पसंख्यक समुदाय के लिए वाहन की खऱीद पर 3 लाख रुपये तक की सब्सिडी देने की घोषणा है, ताकि अल्पसंख्यक युवाओं को भी रोजगार के अवसर प्राप्त हो सकें, झारखंड में भी अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं के समक्ष रोजगार एक बड़ी समस्या है, हेमंत सरकार भी अल्पसंख्यक युवाओं के कुछ स्पेशल योजनाओं की शुरुआत कर उन युवाओं को यह संदेश दे सकती है कि सरकार उनके साथ खड़ी है, और इस सरकार में आपके भविष्य और सपनों को लेकर संजीदगी है.
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