Ranchi-पांच राज्यों में दो तीन से विजय के बाद भाजपा जिस तरीके से सेलिब्रेशन के मूड में थी. अब वही सेलिब्रेशन गले की हड़्डी बनती नजर आने लगी है. और यही कारण है कि चुनाव परिणाम के 9 दिन गुजरने के बावजूद हर किसी को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सीएम कौन होगा? इस घोषणा को सुनने का इंतजार है, कल्पना कीजिए यदि यही स्थिति कांग्रेस या किसी दूसरे क्षेत्रीय पार्टियों की होती तो आज राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां क्या होती? तब तो यह दावा जोर शोर से किया जाता कि जो फैसला विधायक दल की बैठक में होना है, उस फैसले को केन्द्रीय नेतृत्व पर सौंप कर तानाशाही की कौन सी पटकथा लिखी जा रही है, लेकिन आज जबकि जनादेश के नौ दिन बाद भी तीन प्रदेशों को सियासी उहापोह की स्थिति में खड़ा कर दिया गया है, बड़े ही शानदार तरीके से इस सियासी उहापोह को भी पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र बताने की होड़ चल रही है.
पीएम मोदी के चेहरे पर ही जीत, तो मामा महारानी का पर कतरने में देरी क्यों?
कहने को तो चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर लड़ा गया, लेकिन हकीकत यह भी है कि बगैर चौथे लिस्ट में अपने नाम का इंतजार किये मामा शिवराज पूरे दम खम के साथ अपने भांजे-भांजियों के बीच खड़े थें. और सिर्फ अपने भांजे-भांजियों के बीच ही नहीं खड़े थें, वह यह सवाल भी दाग रहे थें कि मैं चुनाव लड़ू या ना लड़ू? पीएम मोदी को तीसरी बार पीएम बनाना है कि नहीं, और इसके साथ पूरे गाजे बाजे के साथ अपनी लाड़ली बहन का नगाड़ा भी पीट रहे थें. यहां याद रहे कि इसके विपरीत पीएम मोदी अपने किसी भी रैली में लाड़ली बहन योजना का जिक्र नहीं कर रहे थें, उनकी जुबां पर भूलकर भी मामा शिवराज का नाम नहीं आ रहा था, और इसके साथ ही इस लड़ाई को दिल्ली से भेजे गये पहलवानों ने भी रोचक मोड़ पर खड़ा कर दिया था, जिसके बाद हर जिले में एक-एक सीएम खड़ा नजर आ रहा था.
उधर राजस्थान में भी हार मानने को तैयार नहीं है महारानी
ठीक यही हालत राजस्थान की थी, चुनाव शुरु होती ही महारानी को मैदान से बाहर का रास्ता दिखलाने की कोशिश की गयी, लेकिन मामा शिवराज की तरह ही महारानी बसुंधरा ने भी मैदान नहीं छोड़ा. और नतीजों का परवाह किये बगैर अपने समर्थकों का प्रचार करने निकल पड़ी, महारानी के जिन समर्थकों को कमल छाप से बेआबरु किया गया, वह भी महारानी का एक इशारे मिलते ही मैदान में कूद पड़े, और करीबन एक दर्जन ने सफलता का परचम भी लहरा दिया. दावा किया जाता है कि राजस्थान भाजपा में आज के दिन कम से कम चालीस विधायक महारानी समर्थक है, और यदि इसमें उनके लॉयल विद्रोहियों को भी जोड़ दिया जाय तो यह संख्या कम से कम 55 तक पहुंच जाता है.
ठीक यही से शुरु होती है भाजपा की मुसीबत
और भाजपा की मुसीबत यहीं से शुरु होती है. यहां ध्यान रहे कि मामा हो या महारानी, दोनों का ही पीएम मोदी से छत्तीस का रिश्ता है, दोनों ही आडवाणी कैंप से आते हैं, दोनों का सियासी प्रशिक्षण कुशाभाउ ठाकरे के नेतृत्व में हुआ है. जबकि मोदी इस नयी भाजपा के अवतार पुरुष हैं. उनकी एक अपनी कार्यशैली है, जिसके अंदर एक व्यक्तिवाद नजर आता है, यह वह भाजपा है जो अटल आडवाणी की नीतियों को त्याग कर अब पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रीत पार्टी में तब्दील हो चुकी है. कुल जना दो लोग ही पूरी पार्टी को हांकते नजर आते हैं, भले ही नगाड़ा सामूहिक सोच और सामूहिक नेतृत्व का पीटा जाये, लेकिन पार्टी की आंतरिक राजनीतिक किसी और दिशा में चलती प्रतीत होती है. यहां विरोध का मतलब सियासी अंत से हैं, एक ही झटके में बड़े बड़े दिग्गज को किनारा किया जा सकता है, कॉरपोरेट भाजपा की इस आंधी में नीतीन ग़डकरी से लेकर आज राजनाथ सिंह भी हासिये पर खड़े नजर आ रहे हैं. कहा जा सकता है पार्टी के अंदर सब कुछ ठीक नहीं है, भले ही कॉरपोरेट पूंजी और मीडिया के बल पर इस आंतरिक विभाजन को लाल कारपेट के अंदर छुपाने का पूरा दम दिखलाया जा रहा हो.
तो क्या पीएम मोदी के तीसरी पारी में दीवार बन सकते हैं मामा और महारानी
लेकिन यहां सवाल पीएम मोदी के तीसरी बार की ताजपोशी का है. और इसके लिए बेहद जरुरी है कि मामा और महारानी के इस द्वन्द को समाप्त किया जाय, क्योंकि इसमें से किसी का भी सपना दिल्ली का नहीं है, इनका सपना महज अपने-अपने राज्य का बागडोर संभालने की है. इस हालत में एक सियासी समझौता करते हुए इन दोनों को एक बार फिर से कमान सौंपी जा सकती है, लेकिन मुसीबत यह है कि इन चेहरों की आड़ में कहीं नीतीन गडकरी से लेकर राजनाथ सिंह के द्वारा कोई खेल नहीं कर दिया जाय, और यदि ऐसा होता है तो यह गंभीर खतरा बन सकता है, क्योंकि हालिया दिनों में जिस प्रकार से नीतीन गडकरी संघ के करीब खड़े नजर आ रहे हैं, उसके कारण गुजरात लॉबी में एक अंदेशा तो जरुर है, अब यदि कुछ देर के लिए नीतीन गडकरी से लेकर राजनाथ सिंह को दरकिनार भी कर दें, तो सवाल यह खड़ा होता है कि जिन पहलवानों को दिल्ली से तेल लगाकर मध्यप्रदेश और राजस्थान के सियासी दंगल में उतारा गया था, जो अपने अपने जिलों में सीएम का चेहरा बने घूम रहे थें, जिन्होंने अपने संसदीय सीट को दांव पर लगाया था, उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा? क्या वह अमित शाह के शब्दों में बारहवीं के बाद दसवीं की तैयारी करेंगे? और यदि वह करेंगे तो उनके पीछे खड़े मतदाताओं का क्या होगा, जिन्होंने उन्हे सीएम बनने के लिए वोट दिया था. क्या मामा और महारानी के सिर पर सीएम का ताज सौंपने के बाद ये उसी उत्साह के साथ 2024 में साथ खड़े नजर आयेंगे, या फिर दिल्ली दरबार के यही पहलवान किसी और दिशा में चलते नजर आयेंगे? वैसे भी इनके सामने तो अब बड़ा सवाल महज अपनी विधायकी बचाने की होगी.
और यहीं से यह सवाल खड़ा होता है कि फिर 2024 में क्या होगा?
यहां याद रहें कि राजस्थान में भाजपा कांग्रेस के बीच मत फीसदी का अंतर महज दो फीसदी का था. जबकि मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा 8 फीसदी का था, और इन्ही तीन से चार माह में भाजपा को अपने किये गये सभी वादों को पूरा करना होगा, यदि वह नाकाम होती, तो इसका अंजाम क्या होगा, उन सांसदों के गुस्से का क्या होगा, जो चले थे तो सीएम बनने, मामा और महारानी के चाल में फंस कर एक विधायक बन कर रह जायेंगे या बहुत हुआ तो मंत्री बन पायेंगे, इसमें कई तो केन्द्र में मंत्री थें, राज्य में मंत्री बन कर उन पर गया गुजरेगा, इसकी कल्पना भी मुश्किल है.
इस जीत को 2024 का श्रीगणेश मान लेना, भारी भूल साबित हो सकता है
इस प्रकार भाजपा के सामने इस जीत के साथ ही कई चुनौतियां आ खड़ी हुई है, और इस जीत को 2024 का श्रीगणेश मान लेना, भारी भूल हो सकती है, 2019 में इन तीनों राज्यों को गंवाने के बाद भी भाजपा सत्ता में आयी थी, क्योंकि तब तक इन राज्यों की सरकार के खिलाफ एक एंटी इनकम्बेंसी तैयार हो चुकी थी, इस बार यही एंटी इनकम्बेंसी भाजपा के खिलाफ होगी. इसके पहले इन तीनों ही राज्यों में भाजपा की सरकार थी और लोकसभा मे सत्ता की लहर कांग्रेस के पक्ष में चली थी, और यह चुनौती और भी गंभीर इस लिए हो जाती है कि इस बार भाजपा को अपनी सारी सीटों का जुगाड़ इन्ही हिन्दी भाषा भाषी राज्यों से करना है, दक्षिण के दरवाजे उससे लिए बंद हो चुके हैं, मणिपूर की घटना के बाद असम छोड़ पूरा पूर्वोत्तर ढहता नजर आ रहा है, और हिन्दी भाषी राज्यों में बिहार, झारखंड और यूपी में उसे अपना पुराना प्रदर्शन दुहराना एक कड़ी चुनौती है, पंजाब और हिमाचल में पहले ही खतरे की घंटी बज चुकी है, और यदि दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक साथ खड़ी नजर आती है तो मामला फंस सकता है, इस प्रकार 2024 की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली है, इस हालत में मामा और महारानी से टकराना एक खतरनाक सौदा साबित हो सकता है.
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