पटना(PATNA): पिछले कई महीनों से विपक्षी एकता की मुहिम को धार देने में जुटे नीतीश कुमार के सियासी महत्वाकांक्षा को बड़ा धक्का लगा है. विपक्षी दलों की पटना में प्रस्तावित बैठक को अगले फैसले तक स्थगित कर दिया गया है, इसके साथ ही अब यह बैठक पटना में नहीं होकर हिमाचल के ठंढे वादियों में आयोजित की जायेगी. 2024 के महामुकाबले के पहले विपक्षी एकता की मुहिम को धारदार बनाने में जुटे नीतीश कुमार की कोशिश थी कि इस बैठक में सभी दलों के शीर्ष नेता शामिल हों, लेकिन इन दलों की ओर से अपने-अपने प्रतिनिधियों को भेजे जाने की बात कही जा रही थी, और यही नीतीश कुमार को गंवारा नहीं था. उनकी कोशिश इसी बैठक में विपक्षी एकता के हर गुत्थी को सलझाने की थी.
विपक्षी एकता की बैठक के बहाने अखिल भारतीय स्तर पर अपने कद को प्रदर्शित करने की कोशिश
माना जाता है कि नीतीश कुमार की कोशिश इस बैठक के बहाने अखिल भारतीय स्तर पर अपने सियासी कद को प्रदर्शित करने की थी, लेकिन इसे सबसे बड़ा झटका कांग्रेस की ओर से मिला. कांग्रेस इस बैठक के पक्ष में तो जरुर थी, लेकिन वह इसका सदारत नीतीश कुमार को देने के पक्ष में नहीं थी, उसकी कोशिश थी कि पटना की बैठक में विपक्षी दलों की एकता का मात्र एक खांचा खिंचा जाय, लेकिन इसका अंतिम फैसला कांग्रेस की सदारत में लिया जाय. यही कारण है कि वह इस बैठक में सलमान खुर्शीद को भेजने की बात कह रही थी, जबकि नीतीश कुमार की कोशिश थी सभी महत्वपूर्ण फैसले इसी बैठक में कर लिया जाय, और वह इसके बाद पूरे ताम-झाम के साथ पूरे देश के दौरे पर निकल पड़े. नीतीश कुमार की यही महात्वाकांक्षा कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी थी.
क्रांति, बगावत और बदलाव की भूमि से किनारा
अब कांग्रेस की कोशिश इस बैठक को क्रांति, बगावत और बदलाव की भूमि मगध में करने के बजाय हिमाचल प्रदेश के ठंढे वादियों में करने की है, क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार है, और तब इसकी सदारत का जिम्मा कांग्रेस के कंधों पर होता.
हिमाचल से हिन्दी बेल्ट की राजनीति को साधने की कोशिश से हो सकता है नुकसान
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि पटना की बैठक का जो सियासी मैसेज जाता, क्या वही मैसेज हिमाचल की सर्द वादियों से जा सकेगा, पटना की बैठक का पूरे हिन्दी भाषा भाषी बेल्ट पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ना तय था. झारखंड, बिहार के साथ ही यहां से छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और यूपी के सियासी समीकरणों को साधना आसान था, लेकिन लगता है कि कांग्रेस की रुचि फिलहाल विपक्षी एकता के इस मुहिम को दूर ढकेलने की है, अभी उसकी निगाहें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, तेलांगना और राजस्थान के विधान सभा चुनावों पर लगी हुई है, उसका आकलन है कि इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन के साथ ही वह क्षेत्रीय दलों के साथ बेहतर सौदेबाजी की स्थिति में होगा. जबकि वर्तमान सियासी हालत में उसे अधिक से अधिक समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.
ऊहापोह की यह स्थिति भाजपा के लिए हो सकती है मददगार
साफ है कि इस राजनीतिक पसमंजर में अभी नीतीश कुमार को लम्बा इंतजार करना पड़ेगा, तब तक गंगा में काफी पानी बह चुका होगा, और बहुत संभव है कि नवीन पटनायक सहित कई दूसरे दल इस ऊहोपोह की स्थिति में खुला रुप से एनडीए का दामन भी थाम लें.
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