Patna- राजद सांसद मनोज झा के द्वारा ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ का संसद में पाठ पर विवादों के बीच लालू यादव ने आनन्द मोहन और उनके बेटे को कम अक्ल बता कर राजद का स्टैंड का साफ कर दिया है. इसके साथ ही लालू यादव ने मनोज झा को विद्वान और चिंतक की उपाधि से भी सुशोभित किया है.
ध्यान रहे कि मनोज झा के द्वारा ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ पर विवाद अब भी थमने का नाम नहीं ले रहा है, मनोज झा को मिलने वाली धमकियों का सिलसिला अभी भी जारी है, कभी जीभ खींचने की धमकी दी जा रही है, तो कभी छाती तोड़ने की, कभी इस बात का दावा किया जा रहा है कि काश! मैं संसद में रहता तो भरी महफिल में औकात बता देता.
हालत यह है कि एक तरफ भाजपा विधायक नीरज बबलू जीभ काटने का एलान कर रहे हैं तो उनकी ही पार्टी के एक और विधायक राघवेंद्र प्रताप सिंह गर्दन धड़ से जुदा करने की धमकी दे रहे हैं. और यह भी नहीं है कि यह धमकी सिर्फ भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं के द्वारा दी जा रही है, खुद जदयू-राजद नेताओं के द्वारा भी मनोज झा को हर दिन ललकारा जा रहा है, जान से मारने की धमकी दी जा रही है.
जदयू भी खड़ा हुआ मनोज झा के बयान के साथ
इधर जदयू की ओर से भी मनोज झा के पक्ष में बयानबाजी तेज हो गयी है और मनोज झा के बयान को जाति विशेष के नजरिये से देखने से परहेज करने की सलाह देते हुए जदयू राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने साफ किया है कि मनोज झा का आशय़ महज वंचित समाज की सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाओं को सामने लाना था.
इन तमाम विवादों के बीच राजद प्रवक्ता और पूर्व विधायक ऋषि मिश्रा ने कहा है कि मनोज झा को ना सिर्फ भाजपा नेताओं से खतरा है बल्कि जदयू-राजद नेताओं से भी उनकी जान को खतरा बना हुआ है, इस हालत में यह गृह मंत्रालय की जिम्मेवारी है कि कि मनोज झा को (Y) श्रेणी की सुरक्षा प्रदान करे.
किस बयान पर मचा घमासान
चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का, हल की मूठ पर हथेली अपनी, फ़सल ठाकुर की।
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के, फिर अपना क्या?
गाँव? शहर? देश?
वर्ष 1981 में जब ओमप्रकाश वाल्मिकी इन पंक्तियों को लिख रहें होंगे, तो निश्चित रुप से उनके जेहन में आजाद भारत की सामाजिक गुलामी का दंश सामने रहा होगा, इस बात की पीड़ा भी रही होगी कि आजादी के तीन दशकों के बाद भी यह आजादी वंचित तबकों तक नहीं पहुंच पायी, सामाजिक न्याय और समाजवाद के तमाम नारों और शोर के बीच आजादी का यह सपना उंची-उंची अट्टालिकाओं में कैद हो कर रह गया. एक व्यक्ति एक वोट का हथियार भी इन सामाजिक दीवारों को तोड़ नहीं पाया और उच्च वर्णीय-वर्गीय प्रभूता आज भी हमारी सामाजिक जीवन में अट्हास करता है. सामाजिक आर्थिक विकास के हर पैमाने पर आज भी दलित पिछड़े और आदिवासी निचले पायदान पर खड़े हैं.
राहुल गांधी ने दिखलाया आईना
और इसकी पुष्टि राहुल गांधी के उस आंकड़ों से होती है, जिसमें वह इस बात का दावा करते हैं कि आज सरकार को जिन 90 कैबिनेट सचिवों के द्वारा चलाया जा रहा है, उसमें से महज तीन ओबीसी जातियों से आते हैं. आजादी के 8वें दशक में भी हम सामाजिक रुप से समानता के फर्श पर नहीं खड़ें है, हमारी जमीन आज भी उंची-नीची है, हमारे जीवन में आज भी उस सामाजिक न्याय का प्रवेश नहीं हुआ है. जिसकी अनुगूंज ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविताओं में दिखलायी पड़ती है.
ओमप्रकाश वाल्मिकी की मौत के दो दशकों के बाद भारतीय संसद में गुंजा ठाकुर का कुंआ
ओमप्रकाश वाल्मिकी के देहांत के दो दशक के बाद राज्यसभा सांसद मनोज झा ने जब उनकी प्रसिद्ध रचना ‘ठाकुर का कुआं” का संसद में पुर्नपाठ किया, तब उनके अन्दर भी यह पीड़ा होगी. सामाजिक विभेद का दर्द होगा.
यहां याद रहे कि आजादी के 75 साल में दलितों और पिछड़ों की जीवन में भले ही क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया हो. लेकिन बदलाव की चिंगारी तो जरुर दिख रही है. यह बदलाव सिर्फ दलित पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समाज का वह तबका जिस पर आज तक शोषण का आरोप लगता रहा है. बदलाव का उद्घोष वहां से भी निकला रहा है. क्रांतिकारी कवि गोरख पांडे हो या सुदामा पांडे या फिर जन कवि पाश या फिर बाबा नागार्जुन सामाजिक यथार्थ को आईना दिखलाते ये नायक को कथित उच्ची जातियों से ही आते थें, लेकिन उनकी पूरी वैचारिकी दलित पिछड़ें और वंचित तबकों के पक्ष में थी. और आज खुद मनोज झा भी उसी कड़ी में खड़े हो चुके हैं.
चंद चेहरों से नहीं बदलती सामाजिक हकीकत
लेकिन सवाल यहां यह है कि इस सामाजिक दीवारों में टूटन आयी या फिर मुट्ठी भर लोगों में इस सामाजिक चेतना का विकास हुआ. निश्चित रुप से गोरख पांडे, सुदामा पांडे, पाश और नागार्जून उच्च वर्गीय समाज का हिस्सा होकर भी समानता का संदेश फैला रहे हों. लेकिन ताजा विवाद से यह परिलक्षित होता है कि समाज नहीं बदला, आज भी उस समाज में जातीय श्रेष्ठता का अंहकार है. उसकी ही बानगी मनोज झा की कविता के पुर्नपाठ के बाद सामने आ रहा है. कहीं राख से उनकी जीभ खिंचने की धमकी दी जा रही है, तो कहीं इस बात का दावा किया जा रहा है कि काश! उस दिन मैं भी संसद में रहता तो मनोज झा की हेकड़ी निकाल देता.
ध्यान रहे कि अभी चंद दिन पहले ही भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी ने संसद में बसपा सांसद दानिश अली के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग किया है, उसके बाद मनोज झा को मिलने वाली धमकियों में गंभीरता दिखालाई पड़ने लगती है.
बिहार में क्षत्रीय ब्राह्मण विवाद तेज
लेकिन उससे भी दुखद पक्ष यह है कि मनोज झा के इस पाठ पर दलितों पिछड़ों की सामाजिक स्थिति पर नया विमर्श शुरु होने के बजाय बिहार में क्षत्रिय ब्राह्मण विवाद गहराते नजर आने लगा है. राजपूत जाति से आने वाले कुछ नेताओं के द्वारा मनोज झा के बहाने ब्राह्मण जाति को अपना अंहकार मिटाने की सलाह वाची जा रही है. हालांकि यह वही मनोज झा हैं, जिन्होंने पहली बार भारतीय संसद में रामासामी पेरियार की सच्ची रामायण के कुछ अंशों का पाठ कर ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर सवाल खड़ा किया गया था. शायद यह पहली बार था कि किसी ने भारतीय संसद में उ सच्ची रामायण के अंशों को उधृत करने का साहस किया था, जिसकी हिम्मत खुद ओबीसी और दलित समाज के आने वाले सांसद भी नहीं कर पा रहे थें.
अम्बेडकरवारी विमर्श के प्रखर वक्ता मनोज झा
कहने का अभिप्राय यह है कि मनोज झा भले ही ब्राह्मण जाति से आते हों. लेकिन सत्य यह है कि आज के दिन वह भारतीय संसद में अम्बेडकरवादी विचारधारा के सबसे प्रखर वक्ता है. जिस प्रकार उनके द्वारा दलित विमर्श के मुद्दों को उठाया जाता है. कई बार वह मान्यवार कांशीराम की भाव चेतना की याद दिला जाता है. इ मनोज झा को ब्राह्मण जाति का प्रतिनिधि मान कर उनके बहाने ब्राह्रमण जाति को कटघरे में खड़ा करना, और मनोज झा को किसी जाति विशेष का विरोधी घोषित करना बेहद दुखद है.
मनोज झा उसी समाजवादी विचारधारा की आवाज हैं. जिसकी वकालत करने का दावा खुद पूर्व सांसद आनन्द मोहन करते हैं. हालांकि समाजवाद के प्रति आनन्द मोहन की कितनी निष्ठा और वचनबद्धता है, वह खुद में एक बड़ा सवाल है, लेकिन जिस प्रकार उन्होंने जीभ खिंचने की चेतावनी दी है. वह बिहार के जातिवादी समाज में एक नये धुर्वीकरण को तेज कर सकता है. लेकिन इसके साथ ही एक नये सियासी- सामाजिक विर्मश की शुरुआत भी
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