टीएनपी डेस्क (TNP DESK) : आज पूरे देश में रामचरितमानस को लेकर विवाद की स्थिति है. कभी बिहार तो कभी उत्तर प्रदेश से मानस की चौपाइयों को उद्धृत करते हुए दलित, पिछड़े और दूसरे वंचित वर्गो को यह बताने-समझाने की कोशिश की जा रही है कि तुलसीदास का मानस दलित पिछड़ों के लिए आदर्श ग्रंथ नहीं हो सकता, इसके पहले बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर भी राजधानी दिल्ली में बबाल मचा था, जिसके बाद आप की ओर से सामाजिक कल्याण मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम को मंत्री पद से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं को सवाल पर दिल्ली में बवाल
हालांकि राजेन्द्र पाल गौतम को मंत्री पद से बाहर कर जिस राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश आप के द्वारा की गई थी, वह राजनीतिक लाभ आप को नहीं मिल सका. माना जाता है कि बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं के सवाल पर आप का राजेन्द्र पाल गौतम के साथ नहीं खड़ा होने से दलित संगठनों और सामाज में आप के प्रति एक नाकारात्मक संदेश गया, जिसका नुकसान आप को उठाना पड़ा, यहां बता दें कि राजधानी दिल्ली में दलितों की एक बड़ी आबादी निवास करती है, माना जाता है कि इनका वोट आप को मिलता रहा है, लेकिन 22 प्रतिज्ञाओं के मुद्दे पर जिस प्रकार आप ने राजेन्द्र पाल गौतम से दूरी बनायी, उसका नुकसान आप को हो सकता है.
अखिलेश यादव ने चुना दूसरा रास्ता, स्वामी प्रसाद मौर्य का कद बढ़ाया गया
लेकिन अखिलेश यादव ने रामचरित मानस के मुद्दे पर दूसरा रास्ता चुना, वह ना सिर्फ स्वामी प्रसाद मौर्या के साथ खड़े हैं, बल्कि इस विवाद के बाद सपा में स्वामी प्रसाद मौर्या का कद बढ़ाया गया है, अब उन्हे पार्टी का महासचिव बनाया गया है. साफ है कि अखिलेश यादव ने राजेन्द्र पाल गौतम के मुद्दे पर आप के स्टैंड से सबक लिया है, अखिलेश की राजनीति इस मुद्दे पर संयमित बयान देते हुए भी खुलकर दलित-पिछड़ा कार्ड खेलने की भी है. यही कारण है कि अखिलेश यादव कहते हैं कि बीच सदन में सीएम योगी से पूछूंगा कि मैं शूद्र हूं या नहीं.
भाजपा को दलित पिछड़ा साबित करने की कोशिश
दरअसल, इस विवाद के बहाने अखिलेश यादव की कोशिश भाजपा को दलित पिछड़ा विरोधी साबित करने की है. उन्हे पत्ता है कि यही दलित-पिछड़ा उनका आधार मतदाता है, और उनकी राजनीति इन्ही सामाजिक वर्गों के बीच से गुजरती है.
तेजस्वी यादव भी शिक्षा मंत्री डा. चन्द्रेशखर के साथ खड़े रहे
बता दें कि कुछ दशक पहले तक ज्योंही किसी हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ को लेकर कोई विवाद की स्थिति बनती थी, तो पार्टियां उस बयान से अपने आप को किनारा कर लेती थी. माना जाता था कि इससे उनका नुकसान हो सकता है. लेकिन अब यह स्थिति बदल रही है. पूर्व सीम जीतन राम मांझी मर्यादा पुरुषोतम राम को लेकर लगातार बयान देते रहते हैं, वह भाजपा के साथ रहें हो या महागठबंधन के साथ कोई उनसे अपनी दूरी नहीं बनाता. क्योंकि सबको पता है कि उनका एक सामाजिक आधार है, यही कारण है कि जब महागठबंधन की सरकार में शिक्षा मंत्री चन्द्रशेखर के द्वारा मानस की चौपाइयों को उद्धृत करते हुए रामचरित मानस को बंच और थॉट और मनुस्मृति के समान ही विभाजनकारी ग्रन्थ बताया जाता है तो भाजपा के द्वारा इसे मुद्दा तो बनाया जाता है, लेकिन राजद उनके साथ खड़ी रहती है, राजद की ओर से इसे मंडलवादी राजनीति का स्वाभाविक विस्तार बताया जाता है.
दलित-पिछड़ों की सामाजिक एकजुटता के कारण बदल रही है राजनीतिक दलों की सोच
साफ है कि यह बदलाव इस लिए आ रहा है कि आजादी के बाद दलित-पिछड़ों की सामाजिक स्थिति में बड़ा बदलाव आया है, अब उनका एक बड़ा सामाजिक आधार है, जिसके बुते इस समाज के आने वाले राजनेता अपनी राजनीति कर सकते हैं, कर रहे हैं. कोई भी राजनीतिक दल इन नेताओँ के बयानों से अपने को दूर कर दलित-पिछड़ों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता. हां, राजेन्द्र पाल गौतम के मामले में अरविंद केजरीवाल ने बीच की स्थिति निर्मित कर राजनीति करने की कोशिश की थी, लेकिन परिणाम उनके विपरित गया, या कहें तो उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली.
स्वामी मौर्य प्रसाद के बहाने खुलकर दलित पिछड़ा कार्ड खेलने की तैयारी
यहीं कारण है कि स्वामी मौर्य प्रसाद के बहाने अखिलेश खुलकर दलित पिछड़ा कार्ड खेलने की तैयारी कर रहे हैं, उनका यह बयान कि सदन में सीएम योगी से पूछूंगा की मैं शूद्र हूं या नहीं, उनकी इसी तैयारी की हिस्सा है, उनकी कोशिश किसी भी प्रकार भाजपा को दलित पिछड़ा विरोधी साबित करने की है, साफ है कि इस बहुजन कार्ड का भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं है.