टीएनपी डेस्क(TNP DESK): बिहार में आज यानी 7 जनवरी से जातीय जनगणना की शुरुआत हो गई. बिहार सरकार ने इसके लिए 5000 करोड़ रुपए की मंजूरी दी है. जातीय जनगणना का मुख्य उद्देश्य बिहार में रह रहे सभी जातियों के वास्तविक आंकड़े का पता लगाना है. सरकार का दावा है कि जाति आधारित गणना का यह आंकड़ा बिहार के विकास में और बिहार के आने वाले बजट को तैयार करने में मदद करेगी. बता दें कि काफी दिनों से बिहार में जातीय जनगणना कराने की मांग हो रही थी. लेकिन केंद्र ने जातीय जनगणना कराने से इनकार कर दिया, जिसके बाद बिहार सरकार ने राज्य सरकार के खर्च पर जातीय जनगणना कराने का फैसला किया. कई राजनीतिक जानकार नीतीश कुमार के इस फैसले को काफी बड़ा मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं. मगर आपको उन राज्यों के बारे में भी जानना चाहिए जहां पहले जाति आधारित जनगणना हुई और वहां फिर क्या हुआ?
बिहार से पहले दो राज्यों में हुआ जातीय जनगणना
आपको बता दें कि बिहार से पहले अब तक 2 राज्यों में जातिगत आधारित जनगणना हुई है. सबसे पहले राजस्थान में जातीय जनगणना हुई. इसके बाद साल 2014-15 में कर्नाटक में जातीय जनगणना कराई गई. साल 2011 में सबसे पहले राजस्थान में जातीय जनगणना कराई गई लेकिन इसके आंकड़े आज तक जारी नहीं किए गए. ना ही सरकार ने इस रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक किया है. उस समय राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी. इसके बाद जब 2014-15 में कर्नाटक में जातीय जनगणना कराने का फैसला किया गया तब भी वहां कांग्रेस की ही सरकार थी. उस समय कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया थे. कर्नाटक में उसमें जातीय जनगणना के फैसले को असंवैधानिक बताया गया था, जिसके बाद सरकार ने इसका नाम बदलकर सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे कर दिया. कर्नाटक सरकार ने इस पर 150 करोड रुपए खर्च किए. इस जनगणना का रिपोर्ट 2017 में कंठ राज समिति ने सरकार को सौंपा लेकिन यह रिपोर्ट भी अब तक सार्वजनिक नहीं हुआ है.
कांग्रेस के लिए बुरा साबित हुआ जातीय जनगणना कराने का फैसला
जातीय जनगणना का सबसे बुरा असर कांग्रेस पार्टी पर ही पड़ा. राजस्थान और कर्नाटक दोनों ही जगह जातीय जनगणना कांग्रेस की सरकार ने कराया था. लेकिन यह फैसला कांग्रेस के लिए गलत साबित हुआ और सरकार ने अपना बहुमत खो दिया. कांग्रेस अपनी एक तिहाई सीट भी नहीं बचा सकी. कर्नाटक में शुरू हुआ सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे विवादों में गिर गया. कुछ समुदाय अपने समाज को ओबीसी और एससी/एसटी में शामिल कराना चाहते थे जिनके लिए यह सर्वे बड़ा मौका बन गया था. अधिकतर उपजातियों ने अपना नाम जाति के कॉलम में दर्ज करा दिया. नतीजा हुआ कि एक तरफ ओबीसी की संख्या में भारी वृद्धि हो गई तो दूसरी तरफ लिंगायत और जैसे प्रमुख समुदाय के लोगों की संख्या घटती चली गई. जिसके कारण आज तक रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं किया जा सका.
क्या बिहार सरकार रिपोर्ट करेगी सार्वजनिक
इस कारण अब बिहार सरकार पर भी सवाल उठ रहा है कि जब 2 राज्यों ने जातीय जनगणना का रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं किया है तो क्या बिहार सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करेगी? बिहार में भी भले ही नीतीश कुमार की सरकार है, लेकिन उन्हें कांग्रेस का समर्थन प्राप्त है. ऐसे में कहीं यह फिर से कांग्रेस का पुराना इतिहास ना दोहरा दे.
अब सवाल उठता है कि जातीय जनगणना की जरूरत क्यों पड़ी
दरअसल 1951 से एससी और एसटी जातियों का डाटा पब्लिश होता है लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का डाटा नहीं आता है. इससे ओबीसी और उसमें शामिल जातियों के सही आबादी का अंदाजा लगाना मुश्किल है. यही तर्क है जातीय जनगणना कराने वाले लोगों का. 1990 में जब बीपी सिंह की सरकार थी तब केंद्र ने दूसरा पिछड़ा आयोग की सिफारिश को लागू किया था. इस आयोग को ही मंडल आयोग के नाम से जानते हैं. इस आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर देश में ओबीसी की आबादी 52% का अनुमान लगाया था और जब भी बिहार की बात होती है बिहार की राजनीति जाति के आधार पर ही होती है. बिहार में ओबीसी की जनसंख्या काफी ज्यादा है और सभी पार्टियों के लिए अहम रखती है. इतिहास की बात करें तो जब मंडल आयोग का गठन हुआ था उसी दौरान बिहार की 2 सबसे बड़ी पार्टियों का उदय भी हुआ था. इसमें एक लालू यादव की आरजेडी है और दूसरा नीतीश कुमार की जदयू. बिहार में जातीय जनगणना का मोर्चा आरजेडी के ही तेजस्वी यादव ने संभाल रखा है. ऐसे में बिहार सरकार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पीछे नहीं रह सकते. इसीलिए जाति जनगणना कराने का श्रेय लेने के लिए नीतीश और तेजस्वी साथ आ चुके हैं. वहीं बीजेपी भले ही केंद्र में जातीय जनगणना का विरोध कर रही है लेकिन राज्य में सरकार के समर्थन में खड़ी है क्योंकि कोई भी ओबीसी वोटर को खोना नहीं चाहता.