पटना(PATNA)- एक तरह बिहार में जातीय जनगणना की प्रक्रिया तेज है, घर घर दस्तक देकर लोगों से उनकी जाति पूछी जा रही है, करीबन 500 करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि का इस पर खर्च की जा रही है.नीतीश सरकार की हर संभव कोशिश बिहार में पिछड़ी जातियों की वास्तविक संख्या पत्ता लगाने की है, ताकि उनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक जरुरतों के हिसाब से उनके लिए कल्याणकारी नीतियों का निर्माण किया जा सके.
लेकिन इसके साथ ही नीतीश कुमार के कथित रुप से इस मास्टर स्ट्रोक को पलिता लगाने की भी पूरी तैयारी है, यही कारण है कि जाति आधारित गणना के विरोधियों के द्वारा हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इसे चुनौती दी जा रही है.
इसी तरह की एक कोशिश पटना हाईकोर्ट में की गयी है, जहां याचिकाकर्ता के द्वारा बिहार में जाति आधारित जनगणना की प्रक्रिया को रोकने की मांग की गयी है, याचिकाकर्ता के द्वारा जनगणना को असंवैधानिक बताने की मांग की गयी है.
दो दिनों की बहस के बाद फैसला सुरक्षित
इस मामले में दो दिनों तक दोनों पक्ष की बहस सुनने के बाद हाईकोर्ट के द्वारा फैसला सुरक्षित रख लिया गया था, आज संभावित रुप से उस फैसले को आना है. जिसके बाद इसके विरोधियों और समर्थकों की निगाहें पटना हाईकोर्ट की ओर लगी हुई है.
दोनों पक्षों का तर्क
घ्यान रहे कि मामले की सुनवाई के दौरान महाधिवक्ता पीके शाही ने सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि मंडल कमीशन की अनुशंसा को कार्यान्वित करने और उसे उसके वास्तविक जरुरत मंदों तक पहुंचाने के लिए यह सर्वेक्षण बेहद जरुरी है, साथ ही इसका फैसला विधान सभा के अन्दर सर्वसम्मत राय से किया गया है. जबकि याचिकाकर्ता की ओर से इस पूरी प्रक्रिया को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गयी थी. याचिकाकर्ता का तर्क था कि इससे समाज में जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा. सरकार के इस फैसले से किसको लाभ होगा, इसका सामाजिक परिणाम क्या होगा, क्या हम इस जातीय जनगणना के बाद जाति विहीन समाज की ओर बढ़ सकेंगे? जबकि हमारा संविधान जातिविहीन समाज बनाने का सपना देखता है. दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद मुख्य न्यायाधीश जस्टिस विनोद चंद्रन की बेंच के द्वारा फैसला सुरक्षित रख लिया गया था. आज दोनों ही पक्षों को इस मामले में कोर्ट के फैसले का इंतजार है.