टीएनपी डेस्क(TNP DESK): झारखंड विभिन्न परंपरा और संपदाओं का राज्य है, जिसने अपने अंदर कई रहस्मयी संस्कृति और परंपरा को अपने अंदर समाहित किया हुआ है. झारखंड को देखकर ऐसा लगता है, मानो प्रकृति ने इसे बड़े ही प्यार और फुरसत से सजाया और संवारा है. झारखंड को प्रकृति ने कई कीमती संसाधनों से नवाजा है, वहीं जिस तरीके से झारखंड पूरी तरह से जंगल, पहाड़ियों और झरनों से घिरा है, इसकी खूबसूरती देखकर कोई भी अपना दिल हार सकता है. झारखंड में विशेष रुप से आदिवासी जाति के लोग निवास करते है.जो आज भी कई परंपराओं को मानते है,और इसके-इर्द गिर्द ही जीवन को जीते है.
छऊ नृत्य-उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में भी काफी फेमस है
झारखंड की परंपरा तीज त्यौहार काफी रोचक और रंगीले है, जिसमे आपको प्रकृति से जुड़ाव महसूस होगी. इन्ही में से एक यहां का छऊ नृत्य है. वैसे तो छऊ नृत्य, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में भी काफी फेमस है, जिसको काफी ज्यादा किया जाता है, लेकिन विश्व प्रसिद्ध छऊ नृत्य की शुरुआत झारखंड में हुई थी.जानकारों का मानना है कि छऊ नृत्य की शुरुआत कोल्हान प्रमंडल से हुई थी.यहीं से निकलकर इसको विश्व में अलग पहचान मिली.
छऊ नृत्य सरायकेला सिंहभूम क्षेत्र का हिस्सा है
आपको बताये कि छऊ नृत्य सरायकेला सिंहभूम क्षेत्र का हिस्सा है. इसको झारखंड का मुखौटा नृत्य भी कहा जाता है,क्यूंकि मुख्य रूप से मिट्टी और अन्य चिज़ो से बने मुखौटों का इस्तेमाल किया जाता है. आपको बताये कि सरायकेला छऊ ऊर्जावान नृत्य शैली में से एक है.जिसकी उत्पत्ति परिखंडा नाम के मार्शल आर्ट की तकनीक से हुई है. छऊ नृत्य मुखौटा पर आधारित होता है. बिना इसके छऊ नृत्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
छऊ नृत्य में रंग बिरंगी मुखौटा को इस्तेमाल किया जाता है
अब चलिए बात करते हैं कि छऊ नृत्य में किन रंग बिरंगी मुखौटा को इस्तेमाल किया जाता है, आख़िर उसको कैसे तैयार किया जाता है, तो आपको बताये कि मुखौटे मिट्टी के बनाए जाते हैं और धूप में सुखने के लिये रखे जाते हैं.जब मुखौटे अच्छी तरह से सुख जाते हैं तो उसके ऊपर कागज की परत लगाया जाता है उसके बाद कपास और मिट्टी की एक पतली लेप लगायी जाती है. फ़िर से इसको अच्छे से सुखाया जाता है और इसके बाद इन मुखौटों पर नाक कान और आंख बनाई जाती है.इसके बाद इसको धूप में रखा जाता है और इस तरह मुखौता बनकर तैयार हो जाता है.
बसंतोत्सव के दौरान छऊ नृत्य विशेष आकर्षण का केन्द्र होता है
सरायकेला में बसंतोत्सव के दौरान छऊ नृत्य विशेष आकर्षण का केन्द्र होता है. इस दौरन इसे बहुत ही व्यापक रूप से लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाता है. छऊ नृत्य की शुरुआत शाम के समय में होती है और नृत्य के माध्यम से ही रात का स्वागत किया जाता है. छऊ नृत्य के माध्यम से आधी खुली आंखों से रात को दर्शाया जाता है. वहीं आपको बताए कि ऋग्वेद के रात्रि सूत्र पर आधारित, नृत्य शांत दृश्यों को दर्शाता है.
बिजॉय प्रताप से जुड़ी है सरायकेला छऊ नृत्य की विरासत
आपको बताये कि सरायकेला छऊ नृत्य की विरासत बिजॉय प्रताप से जुड़ी है. बिजॉय प्रताप को छऊ नृत्य के महान प्रशिक्षकों में से एक माना जाता है. है.बिजॉय प्रताप के बाद इस ख़ूबसूरत परंपरा को आदित्य प्रताप और उनके बेटों ने आगे बढ़ाया. छऊ नृत्य में महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं होती है ये मुख्य रूप से पुरूषों नर्तकों के लिए ही बना है.
छऊ नृत्य में गाने का प्रयोग नहीं होता है
आपको बताएं कि जिस तरीके से अलग-अलग डांस फॉर्म में गानों का इस्तेमाल किया जाता है. वहीं छऊ नृत्य में इस तरीके के गाने का प्रयोग नहीं होता है. सरायकेला छऊ नृत्य में केवल पृष्ठभूमि संगीत होता है, क्योंकि इसमें शब्दों का कोई उच्चारण नहीं होता है.