पटना(PATNA): अब तक हिन्दुत्व का कार्ड खेलती रही भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव में पसमांदा कार्ड खेलने की तैयारी में है, उसकी कोशिश ओबीसी और पसमांदा समाज को अपने साथ लाकर पीएम मोदी को तीसरी बार दिल्ली के सिंहासन पर सत्तारुढ़ करने की है. भाजपा अपने इस तीर से विपक्षी पार्टियों के द्वारा उठाये जा रहे महंगाई, बेरोजगारी और अडाणी विवाद को पीछे छोड़ना चाहती है. यही कारण है कि प्रधानमंत्री अब बार-बार इसकी चर्चा भी कर रहे हैं.
लेकिन क्या यह तरकीब हिन्दी बेल्ट में कामयाब होने जा रहा है, और खासकर बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां मुस्लिमों का स्पष्ट झुकाव समाजवादी और सामाजिक न्याय की तथाकथित पार्टियों की ओर रहा है, क्या मुस्लिम समुदाय तेजस्वी, हेमंत सोरेन, मायावती और अखिलेश जैसे सामाजिक न्याय के सिपहसालारों को छोड़ कर भाजपा के साथ जाकर केसरिया झंडा फहरायेगी.
पसमांदा समाज की आबादी
यदि हम आंकड़ों की बात करे तो बिहार में मुसलमानों की आबादी करीबन 17 करोड़ के आसपास है, जो कुल आबादी का 16.9 फीसदी होता है, उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की 4 करोड़ के आसपास है जो कुल आबादी का करीबन 19 फीसदी है. जबकि झारखंड में मुस्लिमों की आबाद करीबन 15 फीसदी है. मुस्लिमों की इस आबादी में पसमांदा समाज की कुल आबादी करीबन 80 फीसदी मानी जाती है. यही कारण है अब भाजपा के नजर पसमांदा समाज है.
राजनीतिक रुप से नगण्य है पसमांदा समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
लेकिन इतनी बड़ी आबादी की बात करें तो इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व काफी कम है, और भाजपा में तो यह नगण्य है. साफ है कि भाजपा को यदि इन पसंमादा समाज की राजनीति करनी है तो यह सिर्फ पांच किलों राशन और प्रधानमंत्री आवास नहीं होने वाला है, और ना ही यहां गैस और दूसरे मुद्दे काम आने वाले हैं, सीधा मामला प्रतिनिधित्व है.
सवाल जनसंख्या के अनुपात में राजनीतिक प्रतिनिधित्व का है
क्या भाजपा पसंमादा समाज को उसकी आबादी के अनुपात में टिकट का वितरण करेगी. अब तक भाजपा एसटी एसी और पिछड़ा वर्ग को कुछ सीटे देकर शेष सभी सीटों का वितरण सामान्य वर्ग में करता रहा है, अब इस बदली राजनीति में उसे सामने यह संकट खड़ा होगा कि वह किस समाज की सीटों में कटोती करे.
पिछड़े वर्ग की कमजोर जातियों में पहले से जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं होने की नाराजगी है
यहां हम बता दें कि पिछड़ा वर्ग की कई कमजोर मानी जातियों के द्वारा पहले ही राजनीतिक हिस्सेदारी का सवाल उठाया जाता रहा है, उनका आरोप है कि उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा रहा है, इसका सीधा सा अर्थ है पसमांदा समुदाय को को प्रतिनिधित्व तब ही दिया जायेगा जब सामान्य वर्ग की सीटों में कटौती की जाय, लेकिन इसमें खतरा यह यह है कि अब तक भाजपा का आधार वोट माने जाने वाला सामान्य वर्ग उसके दूर जा सकता है.
रास्ता क्या है
कुछ जानकारों का कहना है कि भाजपा सामान्य वर्ग की सीटों में कटौती नहीं कर हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों के मजबूत मानी जाने वाली यादव-कोयरी जैसी जातियों के प्रतिनिधित्व में कटौती कर सकती है, क्योंकि उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी यादव जाति का वोट भाजपा को थोक के भाव में नहीं मिलता है, वह पूरी मजबूती के साथ तेजस्वी और अखिलेश के साथ खड़ा रहा. साफ है कि कटौती इन्ही जातियों की प्रतिनिधित्व में करनी होगी. और यह भाजपा के लिए बेहद आसान होगा.
क्या धार्मिक ध्रुवीकरण से दूर होगी भाजपा
लेकिन इसके साथ ही दूसरा सवाल खड़ा होता है, भाजपा आज तक जिस प्रकार आक्रामक रुप से हिन्दुत्व का कार्ड खेलते रही है, क्या वह अपनी राजनीति का रुख सामाजिक न्याय की ओर करेगी? क्या वह धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति से अपने को दूर करेगी. क्योंकि ऐसा करते ही उसका आधार वोट धारासाई होने लगेगा.
अखिलेश तेजस्वी और हेमंत मुस्लिमों के लिए सबसे भरोसेमंद चेहरा
जानकारों का कहना है कि हर समाज की कोशिश अपने मुद्दों की राजनीति करने की होती है, रोजी रोटी सड़क कुछ सामान्य मुद्दें है, लेकिन व्यापक राजनीति इस पर नहीं होती, बगैर राजनीतिक सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रदान किये और उसके मुद्दों की राजनीति किये आप उस समुदाय को अपने साथ खड़ा नहीं कर सकते हैं.
भाजपा का पसमांदा कार्ड वोट लेने की तरकीब से ज्यादा अंतर्रराष्ट्रीय स्तर पर छवि सुधारने की कोशिश
मुस्लिमों के लिए लालू यादव, मुलायम और मायावती, ममता आजमाया चेहरा है, ठीक उसी प्रकार अखिलेश, तेजस्वी और हेमंत पर उनका विश्वास कायम है. मुस्लिम समुदाय इन चेहरों को छोड़कर धार्मिक पहचान की राजनीति करने वाले भाजपा के साथ खड़ा होना नहीं चाहेगी, और खासकर तब जब इन पार्टियों के द्वारा उन्हे पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाता रहा है. उनके मुद्दों की राजनीति की जाती रही है. उनका मानना है कि भाजपा का पसमांदा कार्ड वोट लेने की तरकीब से ज्यादा अंतर्रराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि में सुधार करने की है.