टीएनपी डेस्क(Tnp desk):-‘ठाकुर का कुआं ‘कविता मनोज झा ने महिला आरक्षण बिल के दौरान संसद में पढ़ी थी. इसके बाद इसे लेकर बिहार में राजपूत नेता भड़क गया. विवाद इतना हुआ औऱ हो रहा है कि बिहार की सियासत दलों से भटकर जातियों में पर आ गई. आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी में शामिल ठाकुर नेता मनो झा की जीभ काटने, गर्दन उतारने औऱ पटक-पटक कर मारने पर उतारु हो गये. लगातार मिल रही धमकियों के बावजूद आरजेडी के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने लंबी खामोशी अख्तियार की और कोई जवाब नहीं दे रहे थे. हालांकि, अब उन्होंने इस पर अपना मुंह खोला है. .
मनोज झा ने तोड़ी चुप्पी
मनोज झा ने इस सियासी घमासान के बाद कहा कि कविता सुनाने से पहले ही उन्होंने साफ कर दिया कि, इसका किसी जाति से संबंध नहीं है. अगर कोई राज्यसभा में उनकी कही गई बात सुनेगा तो साफ हो जाएगा. उनका कहना है कि बेतुकी बातों को लेकर उनके पास फोन भी आ रहें हैं. प्रोफेसर झा ने कहा कि 'ठाकुर का कुआं' कविता ओम प्रकाश वाल्मीकि की लिखी गई थी. जो दलित बहुजन चिंतक थे. संसद में पढ़ने के पहले यह साफ कहा था कि यह किसी जाति से ताल्लुकात नहीं था. ठाकुर किसी के अंदर भी हो सकता है, वो किसी भी जाति का प्रतीक है.
बेवजह आ रहे हैं फोन
आऱजेडी से राज्यसभा सांसद झा ने बताया कि बेवजह अंट-शंट लोगों के फोन आ रहें हैं. इस तरह के कॉल पिछले 72 घंटे से देख रहें हैं. पार्टी अध्यक्ष और आरजेडी ने खुलकर अपनी सारी बात रख दिया है. इसके बाद भी विवाद हो रहा है, तो इसके पीछे कुछ ऐसे तत्व है, जिनको दलित बहुजन समाज की चिंता से कोई फर्क नहीं पड़ता है.
21 सितंबर को पढ़ी थी “ठाकुर का कुआं” कविता
‘’ठाकुर का कुआं’’ कविता मनोज झा ने महिला आऱक्षण बिल के दौरान पढ़ी थी, हालांकि, इसे लेकर तकरीबन एक हफ्ते के बाद राजनीति बिहार में सुलग गई. सभी दल में मौजूद राजपूत नेताओं ने मनोज झा पर हमला बोलने में मर्यादा की चिंता नहीं की और न ही तहजीब में मिठास रखी. हालांकि, दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफेसर मनोज झा के समर्थन लालू यादव, ललन सिंह , जीतन राम मांझी और शिवानंद तिवारी समर्थन में आए . सभी कहा कि झा ने “ठाकुर का कुआं” कविता पढ़कर किसी जाति विशेष को आहत नहीं किया .
जानिए आखिर “ठाकुर का कुआं” कविता में क्या लिखा है
दलित चिंतक, कवि, सहित्यकार ओमप्रकश वाल्मीकि की लिखी कविता “ठाकुर का कुआं” बेहद चर्चित है. इसके लिखने का संदर्भ उस दौरान समाज में फैली जाति की दीवारे,ऊंच-नीच और छूआछूत की बेड़ियां थी. ओमप्रकाश वाल्मीकि इस बात को समझते थे कि दलितो का दर्द दलित ही समझ सकता है. उसके जख्म और इससे महसूस होने वाले दर्द से सरोकार दलित ही रख सकता है. 1981 में लिखी गई ठाकुर का कुंआ भी ऐसी ही कविता थी, जिसमे दलितो के दर्द,तड़प और बेबसी को उकेरा गया था . आईए उस कविता को जानते हैं, जिसे चार दशक बाद संसद में पढ़ी गई और अब बवाल हो गया है.
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गांव ?
शहर ?
देश ?