टीएनपी डेस्क(TNP DESK): "ईस्ट इंडिया कंपनी" इस नाम को शायद ही भारत का कोई नागरिक नहीं जानता होगा. इसी कपंनी ने भारत में आने के बाद लूटपाट शुरू किया और भारत को गुलाम बना लिया. भारत लगभग 200 सालों तक गुलामी की जंजीर में रही और कितने आंदोलन, विद्रोह और जान गंवाने के बाद भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली. ईस्ट इंडिया ने कंपनी ने उस समय के झारखंड में भी अपना कब्जा जमाया या जमाना चाहा तब हमारे झारखंड के वीर योद्धाओं और सेनानियों ने अंग्रेजों का जमकर सामना किया. हम आपको अंग्रेजों के समय में हुए झारखंड के उन विद्रोहों के बारे में बतायेंगे जिसे जान आप अपने आप को काफी गौरवान्वित महसूस करेंगे. लेकिन उससे पहले आपको बताते हैं कि उस समय के झारखंड में अंग्रेजों ने कैसे कब्जा किया था.
अंग्रजों ने ऐसे किया झारखंड पर कब्जा
ये बात है 16 वीं शताब्दी की जब 1658 से 1674 तक राजा मेदिनी राय ने पलामू क्षेत्र पर शासन किया. लेकिन चेरो राजवंश के कमजोर होने के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी का इस क्षेत्र में दखल शुरू हो गया था. सबसे पहले ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने चेरो के पालामू किले पर कब्जा कर लिया और 1765 के बाद यहां ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभाव पड़ा. वहीं, आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद छोटा नागपुर पठार के कई राज्य ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन हो गए. उनमें नागवंश रियासत, रामगढ़ रियासत, गागंपुर, खरसावां , साराईकेला, जशपुर, सुरगुजा आदि शामिल थे. ब्रिटिश दासता के अधीन यहां काफी अत्याचार हुए और अन्य प्रदेशों से आने वाले लोगों का काफी दबदबा हो गया था. इस कालखंड में इस प्रदेश में ब्रिटिशों के खिलाफ बहुत से विद्रोह हुए, इनमें से हम कुछ प्रमुख और खास विद्रोह के बारे में बताने जा रहे हैं.
1766–1816 : जगन्नाथ सिंह के नेतृत्व में भूमिजों का चुआड़ विद्रोह
बंगाल के जंगल महल के आदिवासी जमींदारों और किसानों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जल, जंगल, जमीन के बचाव और नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1776 में जो आंदोलन आरंभ किया उसे जुगाड़ विद्रोह कहते हैं यह आंदोलन 1816 तक चला और इसका नेतृत्व जगन्नाथ सिंह, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह, रघुनाथ सिंह, रघुनाथ महतो, सुबल सिंह, श्याम गंजम सिंह, रानी शिरोमणि, मंगल सिंह और अन्य जमींदारों ने अलग-अलग समय काल में किया. इस विद्रोह को “जंगल महल आंदोलन” भी कहा जाता है.
1767–1777 : राजा जगन्नाथ धल के नेतृत्व में धल विद्रोह
धल विद्रोह या धाल विद्रोह या ढाल विद्रोह 1767 से 1777 तक वर्तमान झारखंड प्रदेश में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम विद्रोह था. धल विद्रोह का अर्थ है धालभूम के राजा के नेतृत्व में संपूर्ण दल राज्य की जनता का विद्रोह.
1772–1780: पहाड़िया विद्रोह
पहाड़िया आदिवासी विद्रोह 1772 से 1780 के मध्य चला झारखंड का एक जन विद्रोह था. इस विद्रोह का नेतृत्व जगरनाथ शाहदेव ने किया था.
1780–1785: तिलका मांझी के नेतृत्व में मांझी विद्रोह
मांझी विद्रोह 1784 में तिलका मांझी के नेतृत्व में शुरू हुआ आंदोलन था. वहीं, 1785 में तिलका मांझी को फांसी दे देने के बाद इसका नेतृत्व भागीरथी मांझी ने किया था.
1795–1821: तमाड़ विद्रोह
तमाड़ विद्रोह की शुरुआत 1782 में छोटा नागपुर की उरांव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ हुआ था जो 1794 तक चला. इस विद्रोह का नेतृत्व ठाकुर भोलानाथ सिंह ने किया था.
1793–1796: मुंडा विद्रोह रामशाही के नेतृत्व में
मुंडा आदिवासियों ने 18वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक कई बार अंग्रेजी सरकार और भारतीय शासकों, जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किया है. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 19वीं सदी में आखिरी दशक में किया गया मुंडा विद्रोह 21वीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनजाति आंदोलनों में से एक है. इसे उलगुलान यानी महान हलचल के नाम से भी जाना जाता है. मुंडा विद्रोह झारखंड का सबसे बड़ा और अंतिम रक्ताप्लावित जनजातीय विप्लव था, जिसमें हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी शहीद हुए थे. वहीं, मशहूर समाज शास्त्री और मानव विज्ञानी कुमार सुरेश सिंह ने मुंडा के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन पर “बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन” नाम से बड़ी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है.
1812: बख्तर साय और मुंडल सिंह के नेतृत्य में ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध विद्रोह
1832–1833: खेवर विद्रोह भागीरथ, दुबाई गोसाई और पटेल सिंह के नेतृत्व में
खेवर विद्रोह झारखंड में भागीरथ, दुबाई गोसाई और पटेल सिंह के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के विरुद्ध 1832-1833 में हुआ विद्रोह है.
1833–1834: भूमिज विद्रोह वीरभूम के गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में
भूमिज विद्रोह तत्कालीन बंगाल राज्य के मिदनापुर जिले के बीरभूम, धलभूम और जंगल महल क्षेत्र में स्थित भूमिज आदिवासियों द्वारा 1832-1833 के दौरान में किया गया विद्रोह है. इसका नेतृत्व गंगा नारायण सिंह ने किया था. अंग्रेजों ने इस विद्रोह को 'गंगा नारायण का हंगामा' कहा है, जबकि इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह के नाम से लिखा है.
1855: लार्ड कार्नवालिस के खिलाफ सांथालों का विद्रोह
1855–1860: सिद्धू कान्हू के नेतृत्व में सांथालों का विद्रोह
1857: नीलांबर-पीतांबर का पलामू में विद्रोह
1857: पाण्डे गणपत राय, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, टिकैत उरांव सिंह, शेख भिखारी और बुधु बीर का सिपाही विद्रोह के दौरान आंदोलन
जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था. यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला. इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और आगजनी से हुआ था लेकिन जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया. विद्रोह का अंत भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले 90 सालों तक चला.
1874: खेरवार आंदोलन भागीरथ मांझी के नेतृत्व में
खेरवार आंदोलन भारतीय राज्य झारखण्ड के संथाल परगना में भागीरथ मांझी के नेतृत्व में 1874 में आरम्भ हुआ आंदोलन था. इस आंदोलन का उद्देश्य प्राचीन मूल्य और जनजाति परंपराओं को पुनः स्थापित करना था.
1880: खड़िया विद्रोह तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में
तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में खड़िया विद्रोह 1880 में हुआ, यह आंदोलन अपनी माटी की रक्षा के लिए शुरू हुआ. जंगल की जमीन से अंग्रेजों को हटाने के लिए युवा वर्ग को गदका, तीर और तलवार चलाने की शिक्षा दी गई. तेलंगा की पत्नी रत्नी खड़िया ने हर मोर्चे पर पति का साथ दिया. रत्नी ने कई जगह अकेले ही नेतृत्व संभालते हुए अंग्रेजों से लोहा लिया. 23 अप्रैल 1880 को अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने गोली मारकर तेलंगा खड़िया की हत्या कर दी. उनकी हत्या के बाद रत्नी खड़िया ने पति के अधूरे कार्यां को पूरा किया. वह अपनी सादगी, ईमानदारी और सत्यवादिता से लोगों में जीवन का संचार करती रहीं.
1895–1900: बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह
झारखंड मे हुए अनेक विद्रोहों मे जो सबसे प्रभावकारी जनजातीय आंदोलन हुआ वो बिरसा मुंडा के नेतृत्व मे हुआ. ये आंदोलन बाकी सभी आंदोलनों से विस्तृत और संगठित था. इस विद्रोह को उलगुलन भी कहते है जिसका तात्पर्य महाविद्रोह से है. इस आंदोलन की मुख्य वजह था जमींदारों और जागीदारों का शोषण, जगीदारों के द्वारा खुंटकुटी के अधिकारों का उल्लंघन, औपनिवेशिक शोषण की नीतियां और बढती बेरोजगारी. इस आंदोलन का उद्देश्य आंतरिक शुद्धीकरण, औपनिवेशिक शासकों से मुक्ति व स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना करना था.
जनजातीय समाज के बीच में खुंटकुटी व्यवस्था मौजूद थी. यह व्यवस्था सामूहिक भू-स्वामित्व पर आधारित कृषि व्यवस्था थी. ब्रिटिश सरकार ने इस व्यवस्था को खत्म कर निजी भू स्वामित्व की व्यवस्था उन पर लागू कर दी थी. आदिवासियों के शोषण के साथ ही राजस्व को बढ़ा दिया गया था. यहां की भूमि कम उपजाऊ थी और परंपरागत तरीके से कृषि कार्य करने से उपज काफी कम होती थी. जिसके कारण बढ़ी हुई राजस्व दर से लगान देने में अधिकांश कृषक असमर्थ थे. लगान देने किए लिए कृषक साहुकारों और महाजनों से ऋण लेते थे आयर वे इस ऋण जाल में फंसते चले जाते थे. आदिवासियों की जमीन हथियाने के लिए अंग्रेजों ने व्यवस्था बनाई थी की जो कृषक लगान नहीं दे पाते थे उनकी भूमि अंग्रेजी शासकों के द्वारा जब्त कर लिया जाता था. जमीन को अपनी मोम मानने वाले मुंडा समाज जब अपनी ही जमीन से बेदखल होने लगे तो उनकी जनजातीय समाज में आक्रोश बढ़ता ही गया.
इस शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ बिरसा मुंडा ने एक आंदोलन का नेतृत्व किया. एक सशक्त जनजातीय नेता जिनके विद्रोहों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी. बिरसा ने मुंडा समाज को संगठित किया उन्होंने मुंडा समाज को परंपरागत रीति रिवाज से मुक्त होकर ईश्वर पर आस्था रखने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म सुधार और एकेश्वरवाद का उपदेश दिया. उन्होंने अनेक देवी देवताओं को छोड़कर एक ईश्वर सिंहबोंगा की आराधना का आदेश अपने अनुयायियों को दिया. उन्होंने स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित किया और कहा की ईश्वर ने मुंडा को विदेशी दासताओं से मुक्ति और एक सभ्य समाज की स्थापना के लिए उन्हें भेजा है. उन्होंने अपने उपदेशों में राजनीतिक अधिकारों की बात की और ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान नहीं देने का आदेश दिया. बिरसा के उपदेशों से अनेक लोग प्रभावित हुए और धीरे-धीरे बिरसा आंदोलन का प्रचार-प्रसार पूरे जनजातीय क्षेत्र में हो गया.
विद्रोह की शुरुआत औपनिवेशिक शोषणकारी तत्व ( ईसाई मिशनरियों, साहूकारों, अधिकारियों आदि) पर आक्रमण द्वारा किया गया. इसके बाद बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 2 साल की सजा हुई. महारानी विक्टोरिया के हीरक जयंती के अवसर पर 1898 में बिरसा को कैद से मुक्त कर दिया गया. उन्होंने फिर से मुंडा आंदोलन को संगठित करना प्रारंभ किया और विदेशी शासन के विरुद संघर्ष के लिए लोगों को तैयार किया. बिरसा के अनुयायियों ने यूरोपीय मिशनरियों पर छापेमारी की. रांची, खूंटी, तमाड़ आदि जगहों पर हिंसक झड़पें हुई. परिणाम स्वरूप सरकार द्वारा आंदोलन के दमन और बिरसा की गिरफ्तारी के लिए तैयारी शुरू कर दी. 3 फरवरी 1900 को बिरसा को पुनः बंदी बना लिया गया. जेल में हैजा की बीमारी से उनकी मृत्यु हो गयी. इसके बाद इस आंदोलन का दमन कर दिया गया. इस आंदोलन का दमन कर दिया गया लेकिन इसके परिणाम सकारात्मक और उत्साहवर्धक रहे. इस आंदोलन के उपरांत मुंडा समाज में आंतरिक सुधार की भावना जगी.
काश्तकारी संशोधन अधिनियम के तहत खुंटकुटी की कृषि व्यवस्था को कानूनी मान्यता मिल गई. छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को पास करके भूमि संबंधी समस्या का समाधान किया गया. 1905 में खूंटी को और 1908 में गुमला को अनुमंडल बनाया गया. आज पूरा झारखंड बिरसा के उलगुलान से प्रेरित है और धरती आबा भगवान बिरसा के आंदोलनों को झारखंड के इतिहास मे स्वर्ण अक्षरों से लिपिबद्ध किया गया है.