टीएनपी डेस्क (TNP DESK) : आज भले ही यूपी की राजनीति में स्वामी प्रसाद मौर्या के पक्ष और विपक्ष में खेमेबंदी जारी हो, हनुमानगढ़ी के महंत राजू दास के द्वारा स्वामी प्रसाद मौर्या का सर कलम करने वाले को 21 लाख रुपये से नवाजे जाने की घोषणा की जा रही हो, तो उधर स्वामी प्रसाद मौर्या के समर्थकों के द्वारा रामचरित मानस की प्रतियों को आग के हवाले किया जा रहा हो. लेकिन इसके पहले भी दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के द्वारा रामचरितमानस का विरोध किया जाता रहा है और मानस की प्रतियां जलाई जाती रही है.
ललई सिंह यादव ने प्रकाशित की थी सच्ची रामायण
एक सितम्बर 1921 को कानपुर देहात के कठारा ग्राम में जन्में ललई सिंह यादव को उत्तर भारत का पेरियार माना जाता है. इनके द्वारा ही उत्तर भारत में पेरियार की सच्ची रामायण का हिन्दी में प्रकाशन किया गया था. 01-07-1969 को सच्ची रामायण के प्रकाशन के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल मच गया था. 08.12.69 को यूपी सरकार के द्वारा सच्ची रामायण को जब्त कर लिया गया था. लेकिन ललई सिंह ने हार नहीं मानी थी और इस फैसले के विरोध में हाईकोर्ट में मामला दायर किया था. तीन जजों की स्पेशल फुल बेंच में पूरे तीन दिन मामले में विस्तृत सुनवाई हुई. ललई सिंह यादव की ओर से बनवारी लाल यादव ने हाईकोर्ट में उनका पक्ष रखा. आखिरकार सरकार के द्वारा जब्ती के आदेश को कोर्ट ने निरस्त करार दे दिया.साथ ही ललई सिंह को तीन सौ रुपये का मुआवजा भी मिला. यहां बता दें कि सच्ची रामायण के असली लेखक हैं इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी उर्फ पेरियार. पेरियार की गिनती दक्षिण भारत का महान समाज सुधारकों में की जाती है.
जब सदन में फाड़ी गयी रामचरित मानस की प्रतियां
इसी कानपुर के एक चर्चित राजनेता थें रामपाल सिंह यादव, वह दो बार सोशलिस्ट पार्टी से विधायक भी रहें. इलाके के लोग इन्हे रामायण फाड़ सिंह के नाम से जानते थें. 1969 में रामपाल सिंह यादव ने कांग्रेस के कद्दावर नेता नित्यानंद पांडेय को पराजित किया था और सदन के अंदर रामचरित मानस की उन चौपाईयों को फाड़ कर अपना विरोध दर्ज किया था, जिसका विरोध आज स्वामी प्रसाद मौर्या कर रहे हैं. इसी घटना के बाद यूपी की राजनीति में रामपाल सिंह यादव की पहचान रामायण फाड़ यादव के रुप हो गयी थी.
रामायण फाड़ यादव से स्वामी प्रसाद मौर्या, कितनी बदली यूपी की राजनीति
लेकिन यहां एक बात गौर करने वाली है. रामायण फाड़ प्रकरण के बाद रामायण फाड़ यादव की राजनीति ठहर सी गई, वे धीरे-धीरे वह राजनीतिक गुमनामी का शिकार होते चले गयें, लेकिन जब स्वामी प्रसाद मौर्या के द्वारा मानस की चौपाईयों को उद्धृत कर इसे दलित-पिछड़ा विरोधी बताया जाता है और यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि दलित-पिछड़ों को लेकर भाजपा की सोच भी तुलसीकृत रामचरित मानस की है, तो वह राजनीतिक गुमनामी का शिकार नहीं होते, उनका राजनीतिक कद को बढ़ाया जाता है, पार्टी उनके साथ खड़ी नजर आती है, उधर उनके नेता अखिलेश यादव खुद भी इस मुद्दे पर भाजपा से दो-दो हाथ करने को तैयार बैठे हैं, तो क्या यह माना जाय कि अब की राजनीति 70 के दशक की राजनीति नहीं रही. तब ये राजनेता समाज में अकेला पड़ जाते थें, उनके पीछे उनकी जमात नहीं चलती थी.
स्वामी प्रसाद मौर्या, जीतन राम मांझी और चन्द्रशेखर के साथ खड़ी नजर आती है उनकी जमात और पार्टियां
लेकिन अब सामाजिक हालत में बदलाव साफ-साफ नजर आने लगा है. अब स्वामी प्रसाद मौर्या, पूर्व मुख्य मंत्री जीतन राम मांझी, शिक्षा मंत्री चन्द्रशेखर, उदय नारायण चौधरी, राजेन्द्र पाल गौतम और दूसरे राजनेताओं के साथ उनकी पूरी जमात खड़ी नजर आती है. अब उनको राजनीतिक बियावान में फेंकना आसान नहीं रहा, उल्टे इन राजनेताओं को छेड़ने का मतलब अपने उपर दलित पिछड़ा विरोधी होने का लेबल लगाना है, शायद यही कारण है कि अखिलेश यादव स्वामी प्रसाद मौर्या के साथ पूरे ताल ठोक कर खड़े नजर आ रहे हैं, उनकी कोशिश इस बहाने अपने आप को दलित पिछड़ों का चैंपियन साबित करने की हो सकती है.
रिपोर्ट : देवेन्द्र कुमार, रांची