रांची (RANCHI): मोदी जी के ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के नारे के बीच सोलापूर में उठा एक अनोखा मामला. जी हाँ यहां के लड़के दुल्हन लाओ शादी कराओ के नारे लगा रहे हैं. मामला ही ऐसा है कि जो भी देखा वो सोचने को मजबूर हो गया की आखिर क्यों सजे धजे ये युवक कलेक्टर से मांग रहे है अपनी दुल्हनियां. बात दें एक अनोखा धरना प्रदर्शन महाराष्ट्र मे देखा गया जहां कुवरे लड़के गाजे बाजे के साथ घोड़ी चढ़कर कलक्टर के कार्यालय जाकर ज्ञापन दिया. जिसने भी इस प्रदर्शन को देखा दंग रह गया. शहनाई और दूल्हे के लिबास में घोड़ी चढ़कर धरना देने पहुंचे युवाओं ने अपनी जो व्यथा बताई उसे सुनकर ना सिर्फ हंसी आई बल्कि एक गंभीर मुद्दे को पुनः याद दिला दिया. जी हाँ इन दूल्हों ने कलेक्टर से मांगी अपने लिए दुल्हनिया. मालूम हो की सोलापूर जिले मे लिंगानुपात में बहुत अंतर है. भ्रूण हत्या के कारण लड़कियां बहुत ही कम बची है और जो बची है वो ब्याह के लायक नहीं है. ऐसे में शादी की राह देख रहे युवकों ने कलेक्टर के कार्यालय को ही घेर लिया और अपने लिए दुल्हनिया की मांग करने लगे. उनका कहना था कि शादी के लिए लड़की की तलाश है, लेकिन राज्य में दिनोंदिन लड़कियों की संख्या कम हो रही है. इसी वजह से उनकी शादी नहीं हो पा रही है. उन्होंने सरकार से लड़की ढूंढने की मांग की. इस पत्र में उल्लेख है कि महिला और पुरुषों का अनुपात बिगड़ गया. आंदोलनकारियों ने कहा कि हमें शादी करने के लिए लड़की नहीं मिल रही है, इसीलिए सरकार और प्रशासन लड़की ढूंढने में हमारी मदद करे. युवाओं ने लेटर में स्त्री-पुरुष के विषम अनुपात का मुद्दा भी उठाया. महाराष्ट्र में पुरुष-महिला अनुपात में सुधार के लिए प्री-कंसेप्शन एंड प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स एक्ट (PCPNDT एक्ट) को सख्ती से लागू करने की मांग की.
एक गंभीर मुद्दे को नजरअंदाज करता समाज!
इस मार्च का आयोजन ज्योति क्रांति परिषद ने किया है. संस्था के संस्थापक रमेश बारस्कर ने कहा कि कई लोग इस मार्च का मजाक उड़ा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि कई योग्य लड़कों को सिर्फ इसलिए दुल्हनें नहीं मिल पा रही हैं, क्योंकि महाराष्ट्र में पुरुष और महिलाओं का अनुपात विषम है. ये एक गंभीर मुद्दा है जिसे सोलापूर में इस तरह के अनोखे प्रदर्शन के साथ उठाया गया है. समाज को इस बारे में सोचने की जरूरत है.
कन्या भ्रूण हत्या रोकने में सरकार विफल
रमेश ने दावा किया कि लड़के-लड़कियों में इतने भारी अंतर के लिए सरकार जिम्मेदार है, क्योंकि वह कन्या भ्रूण हत्या रोकने में असफल है. महाराष्ट्र का लिंगानुपात प्रति 1,000 लड़कों पर 889 लड़कियों का है. यह असमानता कन्या भ्रूण हत्या के कारण मौजूद है और सरकार इस असमानता के लिए जिम्मेदार है. राजस्थान हरियाणा उत्तर प्रदेश सहित देश के हर राज्य में कन्या संतति की कोख में हत्या होती रही है जिसमें हरियाणा में सर्वाधिक हुआ था. ऐसा नहीं है कि कन्या भ्रूण हत्या सिर्फ अशिक्षित लोग ही करते हैं बल्कि कन्या भ्रूण हत्या पढे लिखे लोग अधिक करते हैं. इसके कई कारण होते हैं.
बदलनी होगी सोच तभी आएगा संतुलन
भारतीय समाज अपनी पुरुषवादी सोच के कारण कन्या को अपनी कमजोरी मानता है. उसे ये लगता है कि यदि कन्या संतति की अधिकता परिवार में रही तो अनावश्यक जिम्मेदारियां बढ़ जाएगी. अपनी इसी सोच के कारण पुरुष सत्ता पूर्व में अंधाधुन स्त्री भ्रूण हत्या करता गया जिसका परिणाम ये हुआ की लिंगनुपात कम होता चला गया .
कोख में ही मार दी जाएंगी 68 लाख बेटियाँ
2019 को “जर्नल प्लोस” में छपे एक नए शोध के अनुसार भारत मे 2017 से 2030 के बीच भारत में 68 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले सकेंगी, क्योंकि बेटे की लालसा में उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाएगा. शोधकर्ताओं ने इसके लिए देश भर में हो रही कन्या भ्रूण हत्या को जिम्मेवार माना है. भारत मे हर वर्ष हो रही कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़ों को देखते हुए ये जानकारी दी है बता दें, यह शोध फेंग्किंग चाओ और उनके सहयोगियों द्वारा किया गया है जोकि किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सऊदी अरब से जुड़े हैं. ये कोई पहली बार नहीं है जब कन्या भ्रूण की हत्या हो रही है इससे पहले भी भारत के इतिहास में कन्या संतति को जन्म लेते ही मार दिया जाता था लेकिन तब और अब में बहुत फर्क है भारतीय समाज में लम्बे समय से लड़कों को दी जा रही वरीयता का असर लिंगानुपात पर भी पड़ रहा है. समाज में फैली इस कुरुति ने धीरे धीरे संस्कृति का रूप ले लिया है. “वंश लड़का ही चलाएगा” यह मानसिकता आज भी भारतीय समाज की जड़ों में फैली हुई है. सिर्फ अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे परिवारों में ही नहीं बल्कि शिक्षित लोगों में आज भी यह मानसिकता ख़त्म नहीं हुई है. 1970 के बाद से तकनीकी ज्ञान ने इस काम को और आसान कर दिया है. इसमें भ्रूण की पहचान बताने वाले अल्ट्रासाउंड सेंटर और नर्सिंग होम की एक बड़ी भूमिका है. हालांकि शोध में ये पाया गया है कि जिन परिवारों में पहली सन्तान लड़की होती है उनमें से ज़्यादातर परिवार पैदा होने से पहले दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवा लेते हैं और लड़की होने पर उसे मरवा देते हैं. लेकिन अगर पहली सन्तान बेटा है तो दूसरी सन्तान के लिंग अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई.
खत्म करना होगा भेदभाव
शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया की देश में लिंग भेदभाव अपने उच्चतम स्तर पर है . हर 10 मे से नौ परिवार बेटे को ही अपना वंश मानता है और बेटियों के प्रति उदासीन है. इस शोध में शोधकर्ताओं ने देश के 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल किया है और उनमें जन्म के समय लिंगानुपात का विश्लेषण किया है. इसमें से उत्तरपश्चिम के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है. यदि पूरे भारत को देखें तो 2017 से 2030 के दौरान 68 लाख कन्या भ्रूण जन्म नहीं ले पाएंगी. यदि 2017 से 2025 के बीच का वार्षिक औसत देखें तो यह आंकड़ा 469,000 के करीब है. जबकि 2026 से 2030 के बीच यह बढ़कर प्रति वर्ष 519,000 पर पहुंच जाएगी. शोधकर्ताओं के अनुसार कन्या जन्म में सबसे अधिक कमी उत्तर प्रदेश में होगी, जिसमें अनुमान है कि 2017 से 2030 के बीच 20 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पाएंगी.
भ्रूण हत्या पर भारतीय कानून कमजोर
भारतीय दंड संहिता की धारा 312 कहती है ‘जो कोई भी जानबूझकर किसी महिला का गर्भपात करता है जब तक कि कोई इसे सदिच्छा से नहीं करता है और गर्भावस्था का जारी रहना महिला के जीवन के लिए खतरनाक न हो, उसे सात साल की कैद की सजा दी जाएगी’. इसके अतिरिक्त महिला की सहमति के बिना गर्भपात (धारा 313) और गर्भपात की कोशिश के कारण महिला की मृत्यु (धारा 314) इसे एक दंडनीय अपराध बनाता है. धारा 315 के अनुसार मां के जीवन की रक्षा के प्रयास को छोड़कर अगर कोई बच्चे के जन्म से पहले ऐसा काम करता है जिससे जीवित बच्चे के जन्म को रोका जा सके या पैदा होने का बाद उसकी मृत्यु हो जाए, उसे दस साल की कैद होगी धारा 312 से 318 गर्भपात के अपराध पर सरलता से विचार करती है जिसमें गर्भपात करना, बच्चे के जन्म को रोकना, अजन्मे बच्चे की हत्या करना (धारा 316), नवजात शिशु को त्याग देना (धारा 317), बच्चे के मृत शरीर को छुपाना या इसे चुपचाप नष्ट करना (धारा 318). हालाँकि भ्रूण हत्या या शिशु हत्या शब्दों का विशेष तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है , फिर भी ये धाराएं दोनों अपराधों को समाहित करती हैं. इन धाराओं में जेंडर के तटस्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ताकि किसी भी लिंग के भ्रूण के सन्दर्भ में लागू किया जा सके. हालाँकि भारत में बाल भ्रूण हत्या या शिशु हत्या के बारे में कम ही सुना गया है. भारतीय समाज में जहाँ बेटे की चाह संरचनात्मक और सांस्कृतिक रूप से जुड़ी हुई है, वहीं महिलाओं को बेटे के जन्म के लिए अत्यधिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दबाव झेलना पड़ता है. इन धाराओं ने कुछ और जरूरी मुद्दों पर विचार नहीं किया है जिनमें महिलाएं अत्यधिक सामाजिक दबावों की वजह से अनेक बार गर्भ धारण करती हैं और लगातार गर्भपातों को झेलती हैं. बता दें भारतीय कानून के अनुसार गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 के तहत गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के लिए लिंग परीक्षण करना अपराध है. भारतीय दंड संहिता के अनुसार लिंग परीक्षण के लिए प्रचार करने गैरकानूनी है . साथ कन्या भ्रूण की पहचान करना दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है. 50 हजार का जुर्माना लगाने का प्रावधान था. जबकि दूसरी बार पकड़े जाने पर पांच वर्ष की जेल एवं एक लाख रुपये का अर्थ दंड निर्धारित किया गया है. इसके बावजूद देश में अभी भी इस कानून का उल्लंघन जारी है.
कानून का उठा रहे गलत फायदा!
1964 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक समिति का गठन किया. शांतिलाल शाह नाम से गठित इस समिति को महिलाओं द्वारा की जा रही गर्भपात की कानूनी वैधता की मांग के मद्देनजर महिला के प्रजनन अधिकार के मानवाधिकार के मुद्दों पर विचार करने का काम सौंपा गया. 1971 में संसद में गर्भ की चिकित्सकीय समाप्ति अधिनियम, 1971 (एमटीपी एक्ट) पारित हुआ जो 1 अप्रैल 1972 को लागू हुआ और इसे उक्त अधिनियम के दुरुपयोग की संभावनाओं को को ख़त्म करने के उद्देश्य से गर्भ की चिकित्सकीय समाप्ति संशोधन अधिनियम (2002 का न. 64) के द्वारा 1975 और 2002 में संशोधित किया गया. गर्भ की चिकित्सकीय समाप्ति अधिनियम केवल आठ धाराओं वाला छोटा अधिनियम है. यह अधिनियम महिला की निजता के अधिकार, उसके सीमित प्रजनन के अधिकार , उसके स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के अधिकार, उसका अपने शरीर के सम्बन्ध में निर्णय लेने के अधिकार की स्वतंत्रता की बात करता है लेकिन कुछ बेईमान लोग केवल कन्या भ्रूण को गिराकर इसका बेजा फायदा उठा रहे हैं.
बदलनी होगी सोच तभी बदलेगी स्थिति
यह स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलती. केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा. भारतीय समय में मानसिकता के बदलाव की जो प्रक्रिया है वो बहुत धीमी है. आज भी लोग बेटियों की जगह बेटों को तरजीह देते हैं. जिसके पीछे की मानसिकता यह है कि बेटों से वंश चलता है, जबकि बेटियां पराया धन होती हैं. जो शादी के बाद पराये घर चली जाती हैं. देश में आज भी लड़की का मतलब परिवार के लिए अतिरिक्त खर्च होता है. इसमें समाज की भी बहुत बड़ी भूमिका है, बच्चियों के खिलाफ बढ़ते अपराधों की वजह से भी लोग बेटी के बदले बेटा चाहते हैं. तकनीक की मदद से गर्भ में ही बच्चे के लिंग का पता चल जाता है और बेटी होने पर गर्भपात करा दिया जाता है. ऐसे में कानून के साथ-साथ मानसिकता में भी बदलाव लाने की जरुरत है, जिससे वास्तविकता में बेटियों को बराबरी का हक़ दिया जा सके.
झारखंड में भ्रूण हत्या
झारखंड भी कन्या भ्रूण हत्या के मामले में अन्य राज्यों से पीछे नहीं है. आंकड़ों की माने तो हर वर्ष करीब डेढ़ लाख बेटियां कोख में ही मार दी जाती है. जगह जगह अल्ट्रा साउंड के नाम पर क्लिनिक खोल के बैठे डाक्टरों का ये अनैतिक पेश ही बन गया है की गर्भ में पल रहे शिशु के लिंग परीक्षण कर कुछ एक्स्ट्रा कमाई कर सके. लेकिन डाक्टरों की इस करतूत का खामियाजा इस पूरे समाज को उठाना पड़ेगा. हर वर्ष झारखंड में तकरीबन डेढ़ लाख लड़कियां कोख में ही मार दी जाती है . इस मामले में धनबाद की स्थिति सबसे बुरी है. यहाँ लैंगिक अनुपात सबसे कम है. ज्ञात हो झारखंड में मुख्यमंत्री लाडली लक्ष्मी योजना झारखंड में बाल विकास परियोजना के तहत मुख्यमंत्री लाडली लक्ष्मी योजना संचालित है. इस योजना का उद्देश्य राज्य में कन्या भ्रूण हत्या को रोकना, बालिकाओं के जन्म के प्रति लोगों की सोच में बदलाव लाना, बालिकाओं की शैक्षणिक तथा स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार लाना और बाल विवाह को रोकना है. राज्य में यह योजना 15 नवम्बर 2011 से लागू हुई. परंतु ये योजना भी अन्य योजनाओं की तरह केवल कुछ ही प्रभावी रह सकी इस योजना के बावजूद लोगों की सोच मे कोई सुधार नहीं हुआ और अब भी झारखंड में कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है.