रांची (RANCHI): 16 दिसंबर भारत के इतिहास का एक बेहद खास दिन जब भारतीय सेन ने अपने शौर्य से न सिर्फ पाकिस्तान के अत्याचारों से मुक्त कराया बल्कि बांग्लादेश के रूप ने पाकिस्तान को तोड़ कर एक स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना भी की. हर वर्ष 16 दिसंबर को सनिकों के शौर्य और समर्पण के रूप मे याद किया जात है . आज द न्यूज पोस्ट भी भारतीय रक्षा के क्षेत्र से जुड़े सभी सैनिकों को सैल्यूट करता है साथ ही उन सैनिकों को सम्मान देता है जिन्होंने 71 की लड़ाई में भारत के स्वाभिमान और बांग्लादेश के मानवाधिकार की रक्षा अपने प्राणों की आहुति देकर की . इसके बाद बांगलादेश रूपी पूर्वी पाकिस्तान को वर्तमान पाकिस्तान से अलग कराया. इस दिन को सेना और पूरा देश विजय दिवस के रूप में मानता है .
जानिए किन कारणों से हुआ 71 का भारत पाक युद्ध
पाकिस्तान का निर्माण भारत की लाचारी और ब्रिटेन की कूटनीति का परिणाम था. आजादी के समय हुए बंटवारे को लेकर पाकिस्तान का असंतोष चरम पर था. बंटवारे का दर्द दोनों देशों ने सहा. निर्दोष हत्याएं और दंगों से उबरता भारत अपने पूर्वी और पश्चिमी हिस्से को लेकर सदा ही चिंतित था और हमेशा से भारत के लिए एक बाहरी खतरे के रूप मे पाकिस्तान का पूर्व और पश्चिमी हिस्सा रहा था. ऐसे में जहां एक ओर भारत चिंतित था तो वहीं पश्चिमी पाकिस्तान पूर्वी पाकिस्तान को कोई खास तवज्जो नहीं देता था . राजनीतिक आर्थिक सामाजिक रूप से पूर्वी पाकिस्तान हमेशा पश्चिमी पाकिस्तान पर निर्भर था. या यूं कहें की पश्चिमी पाकिस्तान पूर्वी पाकिस्तान को अपने उपनिवेशिक राज्य की तरह रखता था जिससे वहां की आवाम में भारी असंतोष था. अपने दुर्दशा का जिम्मेदार पूर्व के लोग पश्चिम को मानते आए थे और पूर्व में सामाजिक हिंसा भी अपने चरम रूप धरण कर चुकी थी. वहाँ रह रहे खासकर गैर मुस्लिमों के साथ बेहद बर्बरता बरती जा रही थी. इस तरह बांग्लादेश के लोगों ने अपनी आजादी का बिगुल फूँका जिसके कई कारण थे
पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान की असंतुलित राजनीति
भारत से अलग होने के बाद एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान अपने दोनों हिस्सों में संतुलन स्थापित नहीं कर सका . 1950 के दशक में पाकिस्तान की केंद्रीय सत्ता पर पश्चिमी पाकिस्तान का दबदबा था. पाकिस्तान का संविधान ही कुछ ऐसा था की सत्ता पर सैन्य-नौकरशाही का राज चलता था जो पूरे देश (पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान) पर बेहद अलोकतांत्रिक ढंग से शासन कर रहे थे. बड़ी बात ये कि शासन की इस प्रणाली में बंगालवासियों पूर्वी पाकिस्तान का कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं था . लेकिन वर्ष 1970 के आम चुनावों के दौरान पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान के इस प्रभुत्व को चुनौती दी. सत्ता के सीधे दखल के लिए पूर्वी पाक की राजनीतिक पार्टी आम चुनाव मे स्पष्ट बहुमत ले आई यहीं से नीव पड़ी विद्रोह की. आईए जानते है कैसे पाकिस्तान ने अपने ही हिस्से के नेतृत्व को नकार दिया और फिर हुआ महायुद्ध .
अवामी लीग की विजय बना पाक की आँखों का कांटा
पाकिस्तान में हुए आम चुनाव वर्ष 1970 में शेख मुज़ीबुर्र रहमान की अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ . अवामी लीग पूर्वी पाकिस्तान की पार्टी थी जो की वर्तमान बांग्लादेश जानी जाती है. पूर्वी पाकिस्तान के शेख मुज़ीबुर्र रहमान की अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत प्राप्त था, जो प्रधानमंत्री बनने के लिये पर्याप्त था. लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान पूर्वी पाकिस्तान के किसी नेता को देश पर शासन करने देने के लिये तैयार नहीं था और ये एक बड़ी वजह बनी जब चुनाव जीतने के बाद भी सत्ता पूर्वी पाकिस्तान के नेता के हाथ नहीं आई.
उर्दू और बंगाली भाषा का टकराव
पश्चिमी पाकिस्तान हमेशा की बांग्ला भाषी मुसलमानों को अपने से कमतर समझता आया और हमेशा खुद को श्रेष्ठ करने की होड में पूर्व के लोगों का दमन करना प्रारंभ कर दिया. उस वक्त के तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) ने ‘याहया खान’ के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के लोगों का सांस्कृतिक रूप से दमन करने की भयंकर कोशिश की. उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान पर भाषा पहनावा-ओढ़ावा इत्यादि को लेकर तानाशाही रवैया अपनाना शुरू किया. चुकी पूर्वी पाकिस्तान बंगाल के बड़े हिस्से को काटकर बनाया गया था अतः यहां की भाषा मुख्यतः बंगाली थी जबकि, पश्चिमी पाकिस्तान की भाषा मुख्यतः उर्दू थी.
चुनाव जीतने के बाद पश्चिमी पाकिस्तान उर्दू भाषी किसी कीमत पर पूर्व पाकिस्तान बांग्ला भाषी को देश की सत्ता सौंपने को तैयार नहीं थी. इसके लिए राजनीतिक वार्ता, बैठक की जाने लगी और सत्ता मे अस्थिरता आ गई . राजनीतिक वार्ता विफल होने के बाद पूर्वी पाक को सत्ता बांग्ला भाषियों के हाथ में जाने का डर सताने लगा . इसके बाद जनरल याहया खान के नेतृत्त्व में पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का फैसला किया.
ऑपरेशन सर्चलाइट:
26 मार्च, 1971 को पश्चिम पाकिस्तान ने पूरे पूर्वी पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू की. ऑपरेशन सर्चलाइट’ को पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान की निगरानी में पाकिस्तान की सेना ने 26 मार्च 1971 में अंजाम दिया था. तब के पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में उठ रही आजादी को कुचलने वाले सैन्य अभियान को ‘ऑपरेशन सर्चलाइट‘ कोडनेम दिया गया था. पश्चिमी पाकिस्तान की सेना ने उस समय पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) पर 25 मार्च 1971 की आधी रात को अचानक हमला कर दिया था. हमले का प्लान यह था कि पूर्वी पाकिस्तान के प्रमुख शहरों पर 26 मार्च को कब्जा कर लिया जाए, और चुनावों में भारी सफलता हासिल करने वाले बंगाली विपक्ष को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए. इसके परिणामस्वरूप लाखों बांग्लादेशी भारत भागकर भारत आ गए. मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय और त्रिपुरा जैसे राज्यों में क्योंकि ये राज्य बांग्लादेश के सबसे करीबी राज्य हैं. विशेष रूप से पश्चिम बंगाल पर शरणार्थियों का बोझ बढ़ने लगा और राज्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी सरकार से भोजन और आश्रय के लिये सहायता की अपील की. पाकिस्तान की इस दमनकारी नीति के खिलाफ जो विद्रोह की चिंगारी बंगाली मुस्लिमों के मन मे दब थी वो और भड़क गई और एक जलती अग्नि का रूप ले ली.
इंडो-बांग्ला सहयोग:
‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ से शुरू हुई क्रूरता का अंत खिंचता चला गया और यह बांग्लादेश की आजादी के साथ ही रुक पाया. आंकड़ों के मुताबिक, पाकिस्तानी सेना की बर्बर कार्रवाई में लगभग 30 लाख निर्दोष बंगाली और 1.5 लाख के आसपास बिहारी नागरिक मारे गए थे. पाकिस्तानी सेना के इसी ऑपरेशन के चलते बांग्लादेश की आजादी की मांग ने जोर पकड़ लिया और देश को आजादी दिलाने के लिए मुक्ति वाहिनी का गठन किया गया जिसमें सैनिक और आम नागरिक दोनों शामिल थे. बांग्लादेश के स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाली 'मुक्तिवाहिनी सेना' एवं भारतीय सैनिकों की बहादुरी से पाकिस्तानी सेना को मुंह की खानी पड़ी. बता दें कि मुक्तिवाहिनी सेना में बांग्लादेश के सैनिक, अर्द्ध-सैनिक और नागरिक भी शामिल थे. ये मुख्यत: गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करते थे. इस युद्धह मे भीतरी और बाहरी दोनों तरह से पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी.
पाकिस्तानी सेना की हार:
इस तेरह दिन के विद्रोह युद्ध के बाद 16 दिसंबर, 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक और पूर्वी पाकिस्तान में स्थित पाकिस्तानी सेना बलों के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाज़ी ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ सरेंडर’ पर हस्ताक्षर कर युद्ध में अपनी हार स्वीकार कर ली. ये रिकार्ड रहा की भारतीय फौज के सामने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे अधिक 93,000 से अधिक सशस्त्र पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना और बांग्लादेश मुक्ति सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. भारत के हस्तक्षेप से मात्र 13 दिनों के इस छोटे से युद्ध से एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ. इस पूरे युद्ध में भारतीय हस्तक्षेप ने 13 दिनों में युद्ध को समाप्त कर दिया और इस प्रकार एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ.
भारत के लिये भारत-पाकिस्तान युद्ध का महत्त्व
भारत के लिए ये बहुत ही निर्णायक मोड़ था. ये युद्ध भारत की सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण था. भारत को हमेशा से पाकिस्तान से दोनों ओर से खतरा था. ये एक स्वर्णिम अवसर था भारत के लिए जब भारत भविष्य के सभी अंदेशों को खत्म कर अपने लिए एक नए पड़ोसी का निर्माण करें. भविष्य में कभी भी पाकिस्तान से युद्ध होने पर भारत को दोनों मोर्चों से युद्ध का खतरा था. पूर्वी पाकिस्तान के विद्रोह से भारत को इस खतरे को समाप्त करने का बहाना मिल गया. हालांकि वर्ष 1965 में पूर्वी मोर्चा काफी हद तक निष्क्रिय रहा, लेकिन इसने पर्याप्त सैन्य संसाधनों को अपने पास रोक लिया था जो पश्चिमी मोर्चे पर अधिक प्रभावशाली हो सकता है. इस जीत ने विदेशी राजनीति में भारत की व्यापक भूमिका सुनिश्चित की. संयुक्त राज्य अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों ने महसूस किया कि शक्ति संतुलन दक्षिण एशिया में भारत में स्थानांतरित हो गया है. 1971 भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया और बांग्लादेश के रूप में एक नया देश बना. 16 दिसंबर को ही पाकिस्तानी सेना ने सरेंडर किया था. मात्र 13 दिन चलने वाला यह युद्ध इतिहास में दर्ज लघुतम युद्धों में से एक रहा.
1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध को खत्म हुए आज 52 साल पूरे हो गए. 16 दिसंबर 1971 की शाम 4.35 बजे पाकिस्तानी सेना की पूर्वी कमान ने सरेंडर किया था. उस शाम ढाका में आत्मासमर्पण पत्र पर हस्ताक्षर करते लेफ्टिनेंट जनरल ए.के. नियाजी और उन्हें निहारते तब पूर्वी कमान के कमांडर रहे ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा की तस्वीर आज भी भारतीय सेना प्रमुख की कुर्सी की ठीक पीछे लगी है.
ये लड़ाई विश्व में ताल ठोंकते भारत की आंतरिक लड़ाई थी. बंटवारे के दर्द की टीस दोनों ओर से भारत के जख्मों को कुरेद रही थी ऐसे में भारतीय सेना ने अपने शौर्य से दुश्मन को न सिर्फ कमजोर किया बल्कि दुनिया को ये संदेश दिया की भारत अब अपने जख्मों पर मरहम लगाना सीख गया है. 13 दिन की इस लड़ाई में पाक कई मोर्चे पर भारत से हार का सामना किया. सिर्फ पूर्वी सेक्टर ही नहीं बल्कि भारत ने पश्चिमी सेक्टर पर भी पाक को खदेड़ कर उसे उसकी औकात दिखा दी. आईए एक नजर डालते हैं 1971 के भारत पाक युद्ध में लड़ी गईं उन 5 महत्वपूर्ण पॉइंट्स पर जिसमें लड़ी लड़ाइयों ने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया.
पंजाब के नदी के तट पर हुई लड़ाई
असल में पंजाब में रावी की एक सहायक नदी है, बसंतसर. इस नदी के तट पर पाक सेन से भारतीय सेन ने खुलकर मोर्चा लिया . ये जंग उस इलाके पर पाकिस्तानी कब्जे की कोशिश की वजह से हुई. बता दें इस इलाके में जम्मू को पंजाब से जोड़ने वाली सड़कें थीं. रणनीतिक रूप से यह इलाका बेहद महत्वपूर्ण था. अगर पाकिस्तान यहां हावी हो जाता तो वह पूरे जम्मू से बाकी भारत का संपर्क कट सकता था. दरअसल, पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान को भारत का मुकाबला करने में काफी परेशानी हो रही थी. ध्यान भटकाने के लिए उसने पश्चिमी सेक्टर में मोर्चा खोला. मकसद था, युद्ध को लंबा खींचना. भारतीय सेना ने चौंकाने की नीयत से जरपाल इलाके में पाकिस्तानी चौकियों पर हमला किया. 4 दिसंबर, बसंतसर की लड़ाई शुरू हो चुकी थी. परिस्थितियां भारत के खिलाफ थीं, फिर भी सैनिकों ने गजब का जज्बा दिखाया. इस इलाके में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी. भारतीय सेना ने पाकिस्तान को पीछे तो खदेड़ा ही, साथ ही भारत की सेना पाक में इतना भीतर घुस चुकी थी कि सियालकोट में मौजूद पाकिस्तान सेना का बेस कुछ ही दूर रह गया था. पाकिस्तान के पास जवाबी हमला करने का कोई विकल्प नही बचा था. उसे लग रहा था कि भारत अब बड़ा हमला करेगा. बस इसी डर का नतीजा, बिना शर्त आत्मतसमर्पण का प्रस्ताव. संघर्ष विराम हुआ. भारत उस वक्त पाक के 1,000 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा के इलाके पर कब्जा किए बैठा था. बाद में पाकिस्तान के 350 वर्ग मील इलाके को भारत में शामिल किया गया.
लोंगेवाला पोस्ट की लड़ाई
बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में भारत के भूमिका के बाद पश्चिमी पाकिस्तान ने भारत पे सीधा आक्रमण करने की योजना बनी. हालांकि सीमा पर तनाव पहले ही था. रुक रुक कर गोलीबारी हो रही थी लेकिन पाक ने रात को भारत की सीमा में दखल करने और भारत का ध्यान बांग्लादेश से हटाने के लिए 4-5 दिसंबर की रात, टैंकों से लैस 4,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने लोंगेवाला बॉर्डर पोस्ट पर हमला किया. लोंगेवाला पोस्ट भारत की पश्चिमी सीमा पर मौजूद रणनीतिक रूप से बेहद अहम पोस्ट थी. पाकिस्तानी सैनिक 5 दिसंबर की सुबह करीब 1 बजे बॉर्डर पार कर आगे बढ़े. सुबह के करीब 4.30 बजे होंगे जब उनके टैंकों पर भारतीय पोस्टर की नजर पड़ी. सुबह के 7 बजते-बजते भारतीय वायु सेना के विमानों ने हमला किया और पाकिस्तानी टैंकों के परखच्चे उड़ा दिए. पूरे दिन रुक-रुककर हमले होते रहे मगर भारतीय सैनिकों ने हर बार उनका मुंहतोड़ जवाब दिया. दोपहर के 3.30 बजे पाकिस्तानी सेना ने पूरी ताकत के साथ हमला किया मगर भारतीय जवान डटे रहे. फिर IAF के विमानों ने उस इलाके को पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह बना दिया. पाक के 37 टैंक बर्बाद हो गए थे, वो 250 आर्मी की गाड़ियां छोड़कर भाग खड़े हुए. 5-6 दिसंबर की रात भारतीय सैनिकों ने दबाव बढ़ा दिया और पाकिस्तान के 10 किलोमीटर भीतर घुसकर मानितवाला पोस्ट को अपने कब्जा में ले लिया. इसके बाद बैकफूट पर आए पाकिस्तान ने संघर्ष विराम की घोषणा कर दी और पाकिस्तान को और नुकसान से बचा लिया.
ऑपरेशन ट्राइडेंट जब भारतीय नौसेना ने किया था कमाल
नवंबर, 1971 में भारतीय नौसेना से कहा गया कि पूर्वी पाक में मौजूद पश्चिमी पाक सैनिकों तक किसी भी तरह की मदद न पहुंचने दी जाए. बता दें इस जंग मे भारतीय नौसेना का काम पूर्वी पाक मे पहुँचने के लिए कराची बंदरगाह पर मौजूद पाकिस्तानी नौसेना के मुख्यालय का रास्ता रोकना था. 3 दिसंबर को, भारतीय नौसेना ने मुंबई से दीव तक का सफर तय किया. 4 दिसंबर की शाम 5 बजे, जब नौसेना कारांची से करीब 150 मील दूर थी, ऑपरेशन ट्राइडेंट शुरू करने का हुक्म दिया गया. रात का अंधेरा था, भारत की मिसाइल बोट्स तेजी से करांची की ओर बढ़ीं और मिसाइलें छोड़ दीं गई. पाकिस्तान भौचक्का रह गया, उसे लगा कि हवाई हमला हुआ है. भारतीय नौसेना ने उस हमले में PNS मुहाफिज, PNS खैबर और MV वीनस चैलेंजर को तो डुबोया ही, इसके साथ ही पाकिस्तान का हौसला भी डुबो दिया. बता दें इसी दिवस की याद मे भारत में प्रत्येक वर्ष नौसेना दिवस सेलिब्रेट किया जाता है.
ऑपरेशन तंगैल एयरड्रॉप जब हवा में भारतीय सनिकों ने दिखाया था अपना दमखम
1971 की जंग में दोनों ओर से भीषण युद्धह जारी था बांग्लादेश अपनी आजादी की लड़ाई में अपना पूरा दमखम लगा चुका था. इसी बीच सूचना प्राप्त हुई की पाकिस्ताबनी सेना की एक टुकड़ी ढाका की रक्षा करने उत्तुर से रवाना हुई है. इसके बाद आनन फानन ले. कर्नल कुलदीप सिंह पन्नू की अगुवाई वाली बटालियन को जिम्मा सौंपा गया कि वह पाकिस्ता नी सेना को ढाका पहुंचने न दे. इसके बाद सेना ने प्लाान बनाया कि तंगैल के पास मौजूद पुल पर कब्जा किया जाए जिससे पाकिस्ताकनी सेना निकल न सके. ब्लािस्ट से पुल उड़ाया जा सकता था मगर भारतीय सेना को भी ढाका पहुंचने की जल्दी थी. जल्द ही भारतीय सेना ने रणनीति बनाई कि जब पाकिस्तानी सेना को रोकने का एक उपाय है कि जब पाक सेना जब तंगैल पुल क्रॉस कर रही होगी तब उनपर हमला किया जाएगा. चुनौती बहुत बड़ी थी. मतलब भारतीय सेन की एक बड़ी टुकड़ी को पुल तक पहुंचाना था. सैनिकों को एयरड्रॉप करने का फैसला हुआ. इसके बाद भारतीय वायुसेना के 52 विमान इस ऑपरेशन का हिस्सा् बनी. शाम 4.30 बजे का वक्त चुना गया क्योंकि उस वक्त धुंधला होता है और सैनिकों को इतनी रोशनी भी मिल जाती कि वे आसानी से उतर कर अंधेरा होने तक छिप जाते. दुश्मन के इलाके में एक-एक IAF के विमान मंडराने लगे. करीब 700 पैराट्रूपर्स ने हवा में जम्प किया और नीचे पहुंचकर दुश्मनन का इंतजार किया. बता दें दूसरे विश्वग युद्ध के बाद यह सबसे बड़ा पैराड्रॉप ऑपरेशन था. चश्मऔदीद कहते हैं कि उस दिन आसमान में बस पैराशूट्स ही पैराशूट्स नजर आ रहे थे. हमारे पैराट्रूपर्स न सिर्फ सकुशल नीचे उतरे, बल्कि पुल की सुरक्षा में लगे पाकिस्तानी डिफेंडर्स को मात देकर उसपर कब्जा कर लिया. फिर डिफेंसिव पोजिशंस सेटअप की गईं और पाकिस्ताानी ब्रिगेड का इंतजार होने लगा. आधी रात के करीब पाकिस्ताननी सैनिक जब वहां पहुंचे तो भारतीय सेना को अपने इलाके में इतना भीतर पाकर हैरान रह गए. यह जगह ढाका से महज 70 किलोमीटर दूर थी. हमारे पैराट्रूपर्स ने पाकिस्तानी ब्रिगेड की धज्जियां उड़ा दीं. कई सैनिक खुले खेतों में भागे, कुछ लड़ते-लड़ते मारे गए और बहुत सारे बंदी बना लिए गए. तंगैल में इस ऑपरेशन का का मकसद जमुना नदी पर बने पूंगली ब्रिज पर कब्जा करना था. ऐसा करके पाकिस्तान की 93 वीं ब्रिगेड का रास्ता रोक दिया गया. पुल पर भारत का कब्जा हो जाने से भारत को माणिकगंज-ढाका रोड पर नियंत्रण हासिल हो गया. वापस लौटते पाकिस्तानी सैनिकों को ढाका जाने से रोक लिया गया. कई सैनिक खुले खेतों में भागे, कुछ लड़ते-लड़ते मारे गए और बहुत सारे बंदी बना लिए गए.
मेघना हेली-ब्रिज, ऑपरेशन कैक्टस लिली
पाकिस्तान ने बांग्लादेश में चलने वाले मुक्ति अभियान को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. इसका नतीजा था कि बांग्लादेश में हर रोज पाकिस्तान की सेना हजारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार रही थी. ऐसे में दिल्लीं में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. इसके बाद इंदिरा सरकार ने औपचारिक रूप से पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश में सेना को उतार दिया था. इस ऑपरेशन को कैक्टस लिली का नाम दिया गया था. इसमें भारतीय सेना के साथ बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के जवान भी शामिल थे. भारतीय सेना की चौथी कोर और बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के सैनिकों को भारतीय वायु सेना ने मेघना नदी के उस पार बांग्लादेश के राजपुरा में उतारा था. पाकिस्तानी सेना इस गफलत में रही कि उसने मेघना नदी का पुल उड़ा दिया है और भारतीय सेना अब अंदर नहीं आ सकेगी. इस पुल को आज मेघना हेली ब्रिज के नाम से जाना जाता है. पाकिस्तान की इस सोच का नतीजा उन्हें तब पता चला जब भारतीय जवानों ने बांग्लादेश में प्रवेश किया. एक-एक करके भारतीय फौज पाकिस्ताान के जवानों को पीछे खदेड़ती रही. 16 दिसंबर को पाकिस्तान सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एके नियाजी ने अपने 80 से अधिक सैनिकों के साथ भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष सरेंडर किया था. इस दौरान पाकिस्तान के इस सर्वोच्च अधिकारी ने अपनी पिस्तौल को भारतीय सेना के अधिकारी को सौंप दिया था .