TNP DESK : इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर देश की राजनीति गरमा गई है. विपक्षी पार्टियां सत्ता पक्ष पर हमलावर है और जांच की मांग कर रहे हैं. वहीं सुप्रीम कोर्ट के हंटर के बाद एसबीआई भी बैकफुट पर आ गई है. सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी जताते हुए एसबीआई से फिर जवाब मांगा है. कहा है कि एसबीआई ने चुनाव आयोग को जो जानकारी दी है वो पूरी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को नोटिस जारी कर पूछा उसने बॉन्ड के यूनिक नंबर निर्वाचन आयोग को क्यों नहीं दिए. कोर्ट ने नोटिस जारी करते हुए एसबीआई से सोमवार यानि 18 मार्च तक जवाब मांगा है. वहीं कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इलेक्टोरल बॉन्ड की जांच एसआईटी से कराने की मांग की है. खड़गे ने कहा कि जबतक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक भाजपा के बैंक खाते के लेनदेन पर रोक लगा देनी चाहिए. वहीं विपक्षी द्वारा उठाए जा रहे सवाल पर गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि चुनावी बॉन्ड का चिट्ठा खुलेगा तो विपक्ष परेशानी में आ जाएगा. भ्रम फैलाया जा रहा है कि भाजपा को फायदा हुआ है, जबकि हकीकत उलट है.
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश के बाद एसबीआई ने बुधवार को भारतीय निर्वाचन आयोग को इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा सौंपा था. वहीं आदेश के मुताबिक गुरुवार को ही चुनाव आयोग ने इस डेटा को अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिया है. हालांकि इसमें किसी भी बॉन्ड का यूनिक नंबर नहीं दिया गया है. मालूम हो कि इस यूनिक नंबर से ही पता चलेगा कि किस कंपनी अथवा व्यक्ति ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया है.
इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है ?
आपको बता दें कि भारत में चुनाव के समय बहुत सारा पैसा खर्च होता है. पार्टियों को जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए पैसे की जरूरत होती है. और ये पैसा आता है चंदे के जरिए. राजनीतिक दलों को चंदा देने के जरिए को ही इलेक्टोरल बॉन्ड कहते है. मोदी सरकार ने 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड लाने की घोषणा की थी. अगले ही साल जनवरी 2018 में इसे अधिसूचित कर दिया गया. उस वक्त सरकार ने इसे पॉलिटिकल फंडिंग की दिशा में सुधार बताया और दावा किया कि इससे भ्रष्टाचार से लड़ाई में मदद मिलेगी.
कब और कौन खरीद सकता है इलेक्टोरल बॉन्ड?
इलेक्टोरल बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर महीने में जारी किए जाते है. चुनावी बॉन्ड को भारत का कोई भी नागरिक, कंपनी या संस्था खरीद सकती है. ये बॉन्ड 1000, 10 हजार, 1 लाख और 1 करोड़ रुपये तक के हो सकते हैं. देश का कोई भी नागरिक एसबीआई की 29 शाखाओं से इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीद सकते हैं. दान मिलने के 15 दिन के अंदर राजनीतिक दलों को इन्हें भुनाना होता है. बॉन्ड के जरिए सिर्फ वही सियासी दल चंदा हासिल कर सकती हैं जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत रजिस्टर्ड हैं और जिन्होंने पिछले संसदीय या विधानसभाओं के चुनाव में कम से कम एक फ़ीसद वोट हासिल किया हो.
इलेक्टोरल बॉन्ड से सबसे ज्यादा बीजेपी को मिले चंदा
चुनाव आयोग ने 14 मार्च को इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा अपनी वेबसाइट पर जारी किया था. इसके मुताबिक देश में सबसे ज्यादा चंदा लेने वाली पार्टी भाजपा है. 12 अप्रैल 2019 से 11 जनवरी 2024 तक पार्टी को सबसे ज्यादा 6,060 करोड़ रुपए मिले हैं. लिस्ट में दूसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस (1,609 करोड़) और तीसरे पर कांग्रेस पार्टी (1,421 करोड़) है. हालांकि, किस कंपनी ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया है, इसका लिस्ट में जिक्र नहीं किया गया है. इसी के बाद से राजनीति शुरू हो गई है. चुनाव आयोग ने वेबसाइट पर 763 पेजों की दो लिस्ट अपलोड की हैं।.एक लिस्ट में बॉन्ड खरीदने वालों की जानकारी है.
चुनावी बॉन्ड इनकैश कराने वाली पार्टियों में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, एआईएडीएमके, टीडीपी, बीआरएस, शिवसेना, वाईएसआर कांग्रेस, डीएमके, जेडीएस, एनसीपी, जेडीयू और राजद भी शामिल है. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को 15 मार्च तक डेटा सार्वजनिक करने का आदेश दिया था. इससे पहले भारतीय स्टेट बैंक ने 12 मार्च 2024 को सुप्रीम कोर्ट में डेटा सबमिट किया था. कोर्ट के निर्देश पर एसबीआई ने चुनाव आयोग को बॉन्ड से जुड़ी जानकारी दी थी.
इलेक्टोरल बॉन्ड किसने खरीदा
निर्वाचन आयोग के वेबसाइट पर अपलोड डेटा के मुताबिक स्टील कारोबारी लक्ष्मी मित्तल से लेकर अरबपति सुनील भारती मित्तल की एयरटेल, अनिल अग्रवाल की वेदांता, आईटीसी, महिंद्रा एंड महिंद्रा से लेकर फ्यूचर गेमिंग और होटल सर्विसेज चुनावी बॉन्ड के प्रमुख खरीदारों में शामिल थे. 2019 और 2024 के बीच राजनीतिक दलों को टॉप 5 चुनावी बॉन्ड डोनर्स में से तीन ऐसी कंपनियां हैं जिन्होंने ईडी और आयकर जांच का सामना करने के बावजूद बॉन्ड खरीदे हैं. इनमें लॉटरी कंपनी फ्यूचर गेमिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर फर्म मेघा इंजीनियरिंग और माइनिंग कंपनी वेदांता शामिल हैं. चुनाव आयोग द्वारा गुरुवार को जारी आंकड़ों में चुनावी बॉन्ड के नंबर 1 खरीदार सैंटियागो मार्टिन द्वारा संचालित फ्यूचर गेमिंग एंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड है. फ्यूचर गेमिंग की मार्च 2022 में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांच की गई थी. इसने दो अलग-अलग कंपनियों के तहत 1368 करोड़ रुपये से अधिक के चुनावी बॉन्ड खरीदे.
इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले लोगों की लिस्ट
- फ्यूचर गेमिंग और होटल सर्विसेज - 1,368 करोड़ रुपये
- मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड - 966 करोड़ रुपये
- क्विक सप्लाई चेन प्राइवेट लिमिटेड - 410 करोड़ रुपये
- वेदांता लिमिटेड - 400 करोड़ रुपये
- हल्दिया एनर्जी लिमिटेड - 377 करोड़ रुपये
- भारती ग्रुप - 247 करोड़ रुपये
- एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड - 224 करोड़ रुपये
- वेस्टर्न यूपी पावर ट्रांसमिशन - 220 करोड़ रुपये
- केवेंटर फूडपार्क इन्फ्रा लिमिटेड - 194 करोड़ रुपये
- मदनलाल लिमिटेड - 185 करोड़ रुपये
- डीएलएफ ग्रुप - 170 करोड़ रुपये
- यशोदा सुपर स्पेशियल्टी हॉस्पिटल - 162 करोड़ रुपये
- उत्कल एल्यूमिना इंटरनेशनल - 145.3 करोड़ रुपये
- जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड - 123 करोड़ रुपये
- बिड़ला कार्बन इंडिया - 105 करोड़ रुपये
- रूंगटा संस - 100 करोड़ रुपये
- डॉ रेड्डीज - 80 करोड़ रुपये
- पीरामल एंटरप्राइजेज ग्रुप - 60 करोड़ रुपये
- नवयुग इंजीनियरिंग - 55 करोड़ रुपये
- शिरडी साई इलेक्ट्रिकल्स - 40 करोड़ रुपये
- एडलवाइस ग्रुप - 40 करोड़ रुपये
- सिप्ला लिमिटेड - 39.2 करोड़ रुपये
- लक्ष्मी निवास मित्तल - 35 करोड़ रुपये
- ग्रासिम इंडस्ट्रीज - 33 करोड़ रुपये
- जिंदल स्टेनलेस - 30 करोड़ रुपये
- बजाज ऑटो - 25 करोड़ रुपये
- सन फार्मा लैबोरेटरीज - 25 करोड़ रुपये
- मैनकाइंड फार्मा - 24 करोड़ रुपये
- बजाज फाइनेंस - 20 करोड़ रुपये
- मारुति सुजुकी इंडिया - 20 करोड़ रुपये
- अल्ट्राटेक - 15 करोड़ रुपये
- टीवीएस मोटर्स - 10 करोड़ रुपये
2017 में ही शुरू हुआ था विवाद
बता दें कि विवाद की शुरुआत 2017 में ही हो गई थी जब इसकी घोषणा हुई. योजना को 2017 में ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई. सुप्रीम कोर्ट ने सभी पॉलिटिकल पार्टियों को निर्देश दिया था कि वे 30 मई, 2019 तक चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें. हालांकि, कोर्ट ने इस योजना पर रोक नहीं लगाई. फिर साल 2019 के दिसंबर महीने में ही इसको लेकर दो याचिकाएं दायर की गई. याचिकाओं में कहा गया था कि भारत और विदेशी कंपनियों के जरिए मिलने वाला चंदा गुमनाम फंडिंग है. इससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बनाया जा रहा है. यह योजना नागरिकों के जानने के अधिकार का उल्लंघन करती है.