टीएनपी डेस्क (TNP DESK): दक्षिण भारत में बीजेपी का इकलौता शासन भी कर्नाटक में चला गया । कर्नाटक को दक्षिण का दरवाजा कहा जाता है। लेकिन, न यहां मोदी का मैजिक चला, न बजरंगबली ही बचा पाए और न ही हिन्दु कार्ड काम आय़ा. कर्नाटक में कमल कीचड़ में नहीं खिल सका, अगले पाचं साल के लिए ये मुरझाया हीं रहेगा.
सवाल है कि बीजेपी को इतनी करारी पटखनी क्यों मिली, जब खुद प्रधानमंत्री रोड पर रोड शो कर पूरी ताकत झोंक दी थी. हालांकि, हार के कई वजह हो सकती हैं, इसपर पार्टी को मंथन-चिंतन और अवलोकन करने की जरुरत है.
कर्नाटक में भाजपा की हार की एक बड़ी वजह पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को किनारा करना भी था. राज्य में बीजेपी के बुरे दिन तब ही शुरु हो गये थे, जब येदियुरप्पा का इस्तीफा ले लिया गया था. जिसके चलते लिंगायत वोट बैंक खिसक कर कांग्रेस में शिफ्ट हो गयी. सिर्फ नयी पीढ़ी को मौका देने और उम्र को आधार मानकर, कद्दावर नेता येदियुरप्पा की अहमियत कम करना भारी गलती साबित हुई. लिंगायत वोटों पर येदियुरप्पा का अच्छा प्रभाव रहा है, अपने नेता की अनदेखी और उपेक्षा के चलते ही लिगांयत कांग्रेस की तरफ रुख कर गये. इस्तीफे के बाद खुद येदियरप्पा का मन छोटा हो गया था. इसके बाद भी वो अपने बेटे विजेयन्द्र को सीएम बनाने के फिराक में थे. लेकिन, पार्टी ने परिवारवाद के आरोपों से बचने के लिए उनकी चाहत को दबा दिया .
इतना ही नहीं सर से पानी तब और गुजर गया, जब टिकट बंटवारें में उनकी उपेक्षा की गई. उनके बेटे को ही , पारंपरिक सीट शिकारीपुरा टिकट मिलने पर काफी मश्शकत करनी पड़ी. जिससे भी लिंगायत समुदाय बिदक गया, यह महसूस किया जाने लगा कि उनकी कद्र कम की जा रही है.
बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व ने सबसे बड़ी गलती तब शुरु कि, जब लिंगायत नेताओं ने जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी को टिकट देने से इंकार कर दिया. जगदीश शेट्टर येदियुरप्पा के काफी करीबी माने जाते है. ऐसा कहा जाता है कि केन्द्र के किसी नेता से शेट्टार के नहीं पटने के चलते उनका टिकट काट दिया गया . दरअसल, यह इतना बड़ा फैक्टर साबित हुआ कि, लिगायत नेता और मतदाता, अब पूरी तरह से समझ चुके थे कि भाजपा उनकी तरफ नहीं देख रही है, उन्हें कमतर आंका जा रहा है. इसका नतीजा ये हुआ कि उनका मन और वोट दोनों कांग्रेस पार्टी की तरफ चला गया है.
बीजेपी ये सोच रही थी कि पीएम मोदी के चेहरे को भंजा कर वोट ले लेगी. प्रधानमंत्री ने पूरी ताकत भी झोंक दी. लेकिन, करिश्मा नहीं हो सका . कर्नाटक की जमीन पर, सत्ता विरोधी लहर, 40 प्रतिशत कमीशन और भ्रष्टाचार का मसला फिंजा में तैर रहा था. इसके अलावा टिकट बंटवारा, अपनों से शिकवा और ठोस रणनीति का नहीं होना बीजेपी के लिए भारी साबित हुआ। दक्षिण में इकौलता कर्नाटक ही था, जहां कमल खिला था, वहां भी हाथ से निकल गया . वही, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और तेंलगाना में अभी भी बीजेपी के लिए खुद को स्थापित और साबित करना सबसे बड़ी चुनौती है. कर्नाटक की हार के बाद क्या लोकसभा में भी इसका असर बीजेपी पर पड़ेगा। ये भी देखना दिलचस्प होगा, अगर वाकई विधानसभा वाला हाल लोकसभा चुनाव में हो गया, तो फिर दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना भी पीएममोदी के लिए उतना आसान नहीं होगा . हालांकि, ये हार एक सबक है , जो वक्त रहते सचेत होने की तरफ इशारा कर रही है .
रिपोर्ट- शिवपूजन सिंह