रांची (RANCHI): सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी बेटियों के लिए चिंता जताई है. कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी कर केंद्र को कहा है कि हिन्दू वारिस अधिकार अधिनियम के तहत आदिवासी बेटियाँ क्यों नहीं आती. आदिवासी बेटियों को भी वही अधिकार वही सम्मान मिलना चाहिए जो गैर आदिवासी बेटियों को भारत के संविधान से प्राप्त है. कोर्ट ने साफ कहा कि जब गैर-आदिवासी लड़कियां पिता की संपत्ति की हकदार, तो आदिवासी बेटियां क्यों नहीं? शीर्ष अदालत ने कहा कि जब गैर-आदिवासी की बेटी अपने पिता की संपत्ति में समान हिस्से की हकदार है, तो आदिवासी समुदायों की बेटी को इस तरह के अधिकार से वंचित करने का कोई कारण नहीं है.
कोर्ट ने कहा संशोधन करें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम
बता दें आदिवासी महिलाओं को उत्तराधिकार देने के मामले पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को केंद्र सरकार को इस मुद्दे की जांच करने और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों में संशोधन करने पर विचार करने का निर्देश दे दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान, जिसके तहत समानता के अधिकार की गारंटी है, के 70 वर्षों की अवधि के बाद भी आदिवासियों की बेटी को समान अधिकार से वंचित किया जा रहा है. केंद्र सरकार के लिए इस मामले को देखने का सही समय है और यदि आवश्यक हो तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों में संशोधन करे.
जानें क्यों उठ रहा सवाल
शीर्ष अदालत का यह निर्देश उस याचिका को खारिज करने के फैसले में आया है कि ‘क्या अनुसूचित जनजाति से संबंधित एक बेटी, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत सर्वाइवरशिप के आधार पर अधिग्रहित भूमि के संबंध में मुआवजे में हिस्सेदारी की हकदार है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यद्यपि हमारी प्रथम दृष्टया यह राय है कि पिता की संपत्ति में पुत्री को उत्तरजीविता का लाभ नहीं देना कानून की दृष्टि से बुरा कहा जा सकता है और वर्तमान परिदृश्य में इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन जब तक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा- 2(2) में संशोधन नहीं किया जाता है तब तक अनुसूचित जनजाति के सदस्य होने वाले पक्ष हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2 (2) द्वारा शासित होंगे.
भारत सरकार करेगी इस अधिनियम पर पुनर्विचार
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि जहां तक अनुसूचित जनजाति की महिला सदस्यों का संबंध है, उत्तरजीविता के अधिकार ( संयुक्त हित वाले व्यक्ति की मृत्यु पर किसी व्यक्ति का संपत्ति का अधिकार) से इनकार करने का कोई औचित्य नहीं है. पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार को यह निर्देश दिया जाता है कि वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत दिए गए अपवाद को वापस लेने पर विचार करे. पीठ ने कहा कि हमें आशा और विश्वास है कि केंद्र सरकार इस मामले को देखेगी और भारत के संविधान के अनुच्छेद- 14 और 21 के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए उचित निर्णय लेगी.
हिन्दू उत्तराधिकार कानून जनजातीय वर्गों पर नहीं लागू होते हैं
दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार, ये “हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम” अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है. ऐसे में अनुसूचित जनजाति की बेटियां पिता की संपत्ति की हकदार बनने से वंचित रह जाती हैं. जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि जहां तक अनुसूचित जनजाति की महिला सदस्यों का संबंध है, उत्तरजीविता के अधिकार से इनकार करने का कोई औचित्य नहीं है.
जानिए क्यों आदिवासी बेटियों को नहीं मिलता प्रॉपर्टी में अधिकार
आदिवासी जनजातीय सामाजिक व्यवस्था थोड़ी अलग होती है. सामान्यतः आदिवासी समाज महिला प्रधान होता है. अपने अलग समाज के लिए जनजातीय लोग अपने अलग कानून नियम को मानते है जिसे 'आदिवासी कस्टमरी कानून' कहा जाता है. 'आदिवासी कस्टमरी कानून' के तहत अगर आदिवासी दंपती को पुत्र नहीं है तो उनकी संपत्ति के उत्तराधिकारी उस परिवार के निकटतम पुरुष संबंधी होंगे. आदिवासियों के 24 समूहों में इस कानून के तहत आदिवासी बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार से वंचित रखा गया है. बता दें आदिवासियों पर आईपीसी व सीआरपीसी लागू नहीं होती. आईपीसी सेक्शन 5 में साफ लिखा है कि इस अधिनियम की कोई बात “स्थानीय विधि” और “विशेष विधि” को प्रभावित नहीं करेगी. यहां स्थानीय विधि से मतलब आदिवासियों के कस्टमरी लॉ से है जिसे कोर्ट भी मान्यता देती है. मतलब भारत में दो तरह के लॉ चलते हैं. पहला जनरल और दूसरा कस्टमरी. इसी कास्टमरी लॉ के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया और केंद्र को निर्देश दिया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत आदिवासी बेटियों को भी लाया जाय. अब तक एक आदिवासी स्त्री को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता, जो कि कस्टमरी लॉ है. परिवार चाहे तो उपहार के तौर पर या दया करके उसे जमीन पर हिस्सा दे सकते हैं, परंतु लड़की किसी भी तरह से कोर्ट में जाकर संपत्ति में हिस्सा की मांग नहीं कर सकती. अगर किसी तरह से लड़की संपत्ति में हिस्से की मांग करती है तो कस्टमरी ला (रुढि, प्रथा) का हवाला देने पर कोर्ट परिवार के हित में ही फैसला सुनाएगी. ऐसे में पिता की संपती पुत्री को न मिलकर परिवार के बेटे अगर बेटे ना हुए तो कोई भी निकट पुरुष संबंधी ले जाएगा. इसका एक कारण यह भी है कि आदिवासी समाज में जमीन का बड़ा ही महत्व होता है और लड़की यदि गैर-आदिवासी से शादी करती है तो जमीन भी उन शर्तों में गैर-आदिवासी के पास चली जाएगी इसलिए आदिवासी समाज में लड़की को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देना वर्जित है यहां पर भी कस्टमरी लॉ सामान्य कानून से पृथक है जो बेटी को पिता की संपत्ति से बेदखल करता है.
जानिए क्या है हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम
बता दें हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तब लागू होता है, जब किसी हिंदू की बिना वसीयत छोड़े ही मौत हो जाती है. इसके बाद उत्तराधिकार कानून के नियमों पर ही निर्भर करता है. उत्तराधिकार शब्द का इस्तेमाल विशेष रूप से उत्तराधिकार के संदर्भ में किया जाता है. एक शख्स की मौत पर उसकी संपत्ति, टाइटल, लोन और दायित्व के वारिस हो सकते हैं. लेकिन विभिन्न सोसाइटीज विरासत को लेकर अलग-अलग व्यवहार करते हैं. वास्तविक और अचल संपत्ति को अक्सर विरासत के रूप में माना जाता है. आइए आपको हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में विरासत के बारे में बताते हैं.
जानिए कब बेटियों को मिला था पिता की संपत्ति मे अधिकार
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (HSA) में साल 2005 में संशोधन किया गया था. इसमें प्रॉपर्टी के मामले में बेटियों को बराबर का अधिकार दिया गया था. 2005 से पहले केवल बेटों को ही दिवंगत पिता की प्रॉपर्टी में अधिकार मिलता था. जबकि बेटियों को सिर्फ कुंवारी रहने तक. ऐसा माना जाता था कि शादी के बाद महिला अपने पति की संपत्ति से जुड़ जाती है और उस संपत्ति में उसका अधिकार हो जाता है. अब शादीशुदा और गैरशादीशुदा बेटियों का अपने पिता की संपत्ति में भाइयों के बराबर ही अधिकार है. वे भी अपने भाइयों की तरह समान कर्तव्यों, देनदारियों की हकदार हैं. 2005 में, यह भी फैसला सुनाया गया कि एक बेटी के पास समान अधिकार हैं बशर्ते 9 सितंबर 2005 को पिता और बेटी दोनों जीवित हों. इसके बाद एक और फैसले में 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक बेटी अपने मृत पिता की संपत्ति को विरासत में हासिल कर सकती है, भले ही पिता इस तारीख पर जीवित था या नहीं. यहां, महिलाओं को सहदायिक के रूप में भी स्वीकार किया गया था. वे पिता की संपत्ति में हिस्सा मांग सकती हैं. इसी साल 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि बेटियों को अपने माता-पिता की स्वयं अर्जित की गई संपत्ति और किसी भी अन्य संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार है, जिसके वे पूर्ण रूप से मालिक हैं. यह कानून उन मामलों में भी लागू होगा जहां बेटी के माता-पिता की मृत्यु बिना वसीयत किए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के संहिताकरण से पहले ही हो गई हो.
जानिए विवाहित बेटियों को पिता की प्रॉपर्टी में कितने प्रतिशत का अधिकार प्राप्त है
विवाहित बेटियां अपने पिता की संपत्ति में कितना हिस्सा ले सकती हैं? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, पिता की पैतृक संपत्ति में बेटी को उसके भाइयों के बराबर अधिकार मिलता है. हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि पिता की मौत के बाद संपत्ति को भाई और बहन के बीच समान रूप से बाँटा जाएगा. चूंकि उत्तराधिकार कानून मृतक के अन्य कानूनी उत्तराधिकारियों को भी संपत्ति के अधिकार प्रदान करते हैं, संपत्ति का बँटवारा लागू विरासत कानूनों के अनुसार प्रत्येक वारिस के हिस्से पर आधारित होगा. विवाहित बेटी का अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा होने का सीधा सा मतलब यह है कि उसका भाई जितना भी दावा करेगा, उसे भी उतना ही हिस्सा मिलेगा.
मुस्लिम महिला को संपत्ति में अधिकार
आपको बता दें कि भारत में मुस्लिम लोगों को दो श्रेणियों में बांटा गया है. इनमें से एक सुन्नी मुस्लिम होते हैं और दूसरी श्रेणी वाले शिया मुस्लिम होते हैं. आपको बता दें कि शिया मुस्लिम की शादीशुदा महिलाओं को मेहर की राशि उनके निकाह (शादी) के समय मिलती है और अगर निकाह के बाद उनके पति की कभी भी अगर मृत्यु हो जाती है तो उन्हें संपत्ति का एक चौथाई हिस्सा मिलता है. लेकिन यह तभी होगा जब वह महिला सिर्फ अपने पति की इकलौती पत्नी होती है. अगर मृत पति की कई पत्नियाँ हैं तो उन सभी को संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलता है. इसके अलावा अगर कोई मुस्लिम पुरुष बीमारी के कारण मर जाता है और उससे पहले वह पत्नी को तलाक दे देता है तो उस विधवा मुस्लिम महिला को संपत्ति में तब तक अधिकार रहता है जब तक वह दूसरी शादी नहीं करती है.
अगर बात करें सुन्नी मुस्लिम लोगों की तो वह सिर्फ इन रिश्तेदारों को वारिस के रूप में मानते हैं जिनका पुरुष के माध्यम से मृतक से संबंध होता है. इसमें पुरुष के माता और पिता, पोती और पोता ही आते हैं. आपको बता दें कि मुस्लिम बेटियों को संपत्ति में बेटो के मुकाबले आधा हिस्सा ही मिलता है. इस संपत्ति के हिस्से का मुस्लिम बेटी अपनी इच्छा के अनुसार इस्तेमाल कर सकती है. बता दें कि मुस्लिम बेटी शादी के बाद या फिर तलाक के बाद भी अपने घर में हक से रह सकती है यदि उसके कोई बच्चा नहीं होता है. कानून के अनुसार अगर बच्चा बालिग है तो वह अपनी मां की देखरेख कर सकता है इसलिए उस मुस्लिम महिला की जिम्मेदारी उसके बच्चों की हो जाती है. अगर कोई महिला तलाकशुदा हो जाती है या फिर विधवा हो जाती है तो अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए उसे संपत्ति में आठवें हिस्से का अधिकार दिया जाता है. अगर महिला के कोई भी बच्चा नहीं होता है तो उसे पति की संपत्ति में एक चौथाई का हिस्सा मिलता है.