रांची(RANCHI): झारखंड में आदिवासी और सरकार के बीच सीधा टकराव देखने को मिल रहा है यह टकराव की वजह आदिवासियों की जमीन है. ऐसे में सरकार की सेहत पर इसका क्या असर पड़ेगा और आने वाले चुनाव में किसे कितना फायदा और नुकसान होगा यह जानना बेहद जरूरी है. क्योंकि झारखंड की सत्ता में झारखंड मुक्ति मोर्चा को लाने में आदिवासियों का सबसे बड़ा योगदान है, एक बड़ा बेस वोट बैंक आदिवासी समाज का है. माना जाता है कि आदिवासी समाज झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ जाते है.
ऐसे में हाल के दिनों में आदिवासी और सरकार के बीच सबसे बड़ी टकराव की वजह जमीन बनी है. उसके बारे में चर्चा करेंगे. लेकिन इससे पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि झारखंड आदिवासी बाहुल्य प्रदेश है. और शहर के विकास में सबसे बड़ी बाधा जमीन बनती है. क्योंकि अधिकतर जमीन आदिवासी की है,और सीएनटी एसपीटी जैसे कानून है. इस वजह से जमीन की खरीद बिक्री नहीं हो सकती. लेकिन सरकारी काम में अक्सर आदिवासियों की जमीन ली जाती है. चाहे उदाहरण के तौर पर रिम्स 2 अस्पताल की बात कर ले या फिर एयरपोर्ट विस्तारीकारण का काम हो, सभी में आदिवासियों की जमीन जा रही है. जिससे सीधा टकराव बनता दिख रहा है.
ऐसे में सबसे पहले बात करेंगे एयरपोर्ट विस्तारीकरण की. यहां पर सैकड़ो एकड़ जमीन आदिवासियों की ली गई, और कहा गया कि नौकरी के साथ-साथ उन्हें दूसरे जगह पर जमीन दी जाएगी. लेकिन 20 साल बीतने के बाद भी अब तक ना तो नौकरी मिली और ना ही दूसरी जगह पर जमीन. ऐसे में हर बार विस्थापित आंदोलन करते हैं, धरना देते हैं, बावजूद उनकी कोई सुनवाई नहीं होती.
इसके अलावा नए रिम्स बनाने की तैयारी सरकार की ओर से की गई. नगड़ी अंचल इलाके में जमीन भी चिन्हित कर ली गई. लेकिन यह जमीन भी आदिवासियों की है. जैसे ही जमीन की मापी करने सरकारी कर्मचारी पहुंचे तो एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया. यहां पर भी आंदोलन शुरू कर दिया गया, और सीधे सरकार को चेतावनी दी. अगर इस बार जमीन ली गई तो फिर एक बड़े आंदोलन की तैयारी की जाएगी. आंदोलन कर रहे लोगों का मानना है कि जमीन उनके खाने-पीने का एक बड़ा साधन है. ऐसी जमीन पर खेती करके अपना परिवार चलते हैं सरकार को अगर अस्पताल बनना है तो वह बंजर जमीन को चिन्हित करें यहां पर जमीन नहीं देने वाले हैं.
यह दो बड़े विरोध की बात हो गई. लेकिन अगर हाल में शुरू हुए सिरम टोली फ्लाईओवर के रैंप का मामला हो या फिर लापुंग और पेड़ों में जमीन के मामले में ही दरोगा की पिटाई देख ले. इस लड़ाई में आदिवासियों की जमीन तो जा रही है लेकिन साथ में जेल भी जाना पड़ रहा है. इन तमाम घटना को देखें तो एक अच्छा मैसेज नहीं पहुंच रहा है. और इसे विपक्ष मुद्दा बनाकर भुनाने में लग गया है. जो आदिवासी हेमंत सोरेन के साथ खड़े थे. उन्हे यह बताने में लगी है कि सरकार आदिवासी के विरोध में काम कर रही है.
ऐसे में अब देखना होगा कि आखिर यह तमाम विवादों का अंजाम क्या होता है और आखिर झारखंड सरकार क्या एक्शन लेगी. किस तरह से आदिवासियों को उनका हक मिल सके अगर देखे तो विकास के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर भी उतना ही जरूरी है.