देवघर(DEOGHAR): देवाधिदेव महादेव की नगरी बैद्यनाथधाम अपनी अलौकिक विशिष्टताओं के लिए बाँकी धर्मस्थलों से अलग पहचान रखता है. ऐसी ही एक विशिष्टता में शामिल है देवघर मंदिर.
बाबा बैद्यनाथ मंदिर सहित मंदिर परिसर में स्थित अलग-अलग मंदिर की स्थापना के पीछे कई धार्मिक मान्यताएँ निहित है. ऐसी ही मान्यता मुख्य मंदिर और माता पार्वती मंदिर के बीच स्थित नीलचक्र की स्थापना को लेकर भी है. जानकारों के अनुसार सतयुग में महर्षि वशिष्ठ माँ कामाख्या की तपस्या कर रहे थे लेकिन माता ने उन्हें दर्शन नहीं दिया. क्रोधित हो कर वशिष्ठ मुनि ने माता को श्राप दे दिया. श्राप से मुक्ति का उपाय बताते हुए मुनि श्रेष्ठ ने उन्हें त्रिपुर पर्वत जिसे नील पर्वत भी कहा जाता है उसे छोड़ कर बैद्यनाथधाम जाने का आग्रह किया. त्रेता युग में लंकापति रावण द्वारा कैलाश पर्वत से पवित्र शिवलिंग को लंका ले जाने के क्रम में तब के हरितिका वन जो आज बैद्यनाथ धाम है वहाँ रावण को रोक कर माता सती के हृदय से आत्ममिलन कराने का कार्य सौंपा.
नीलचक्र पत्थर की मान्यता
जानकारों के अनुसार वशिष्ठ पुराण में इसका विशद वर्णन किया गया है जिसके अनुसार माता कामाख्या तब नील पर्वत की एक शिला पर सवार होकर बैद्यनाथधाम आईं और तंत्र विद्या से परिष्कृत इस शिलाखंड की स्थापना माता कामाख्या द्वारा यहां की गई. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस नीलचक्र को लांघ कर आगे जाने की शक्ति किसी में नहीं थी. यही कारण है कि रावण जब इस ओर से पवित्र शिवलिंग को लेकर आकाश मार्ग से जा रहा था तो उसे इसी नीलचक्र के प्रभाव से यहाँ उतरने के लिए विवश होना पड़ा था. आज भी इसके लांघने से आपको सफल फल नहीं मिलेगा. मंदिर परिसर स्थित इस नीलचक्र की पूरी आस्था और श्रद्धा से पूजा-अर्चना की जाती है.
कहते हैं ऐसी ही विशिष्टताओं और धार्मिक मान्यताओं के कारण देवघर का बाबा बैद्यनाथधाम बाँकी धार्मिक स्थलों से अपनी एक अलग अलौकिक पहचान और धार्मिक महत्व रखता है.
रिपोर्ट: रितुराज सिन्हा