धनबाद(DHANBAD) | आज मजदूर दिवस है. मजदूरों के नाम पर राजनीति करने वाले अभी चुनाव में जुटे हुए है. मजदूरों की बात करने का दावा तो जरूर करेंगे, चाहे वह कोयला मजदूर यूनियन से जुड़े लोग हो अथवा किसी दूसरी यूनियन के. लेकिन सच्चाई क्या है, यह जानने के लिए किसी को बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. धनबाद शहर से चलकर बीसीसीएल की कोलियारियों में पहुंचने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद भी आज असंगठित क्षेत्र के मजदूर किस हाल में जी रहे है. 1971, 1973 में जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ था, उसके बाद तो कोयला मजदूरों की हालत में अप्रत्याशित सुधार हुआ लेकिन यह सुधार धीरे-धीरे खत्म होने लगा. आज तो बिलकुल समाप्त होने के कगार पर खड़ा है. आज कोयले का उत्पादन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के भरोसे रह गया है.
देश में आउटसोर्सिंग के भरोसे कोयले का उत्पादन
रेगुलर मजदूरों की संख्या लगातार घट रही है. नई नियुक्तियां नहीं हो रही है, आउटसोर्सिंग के भरोसे कोयले का उत्पादन हो रहा है. आउटसोर्सिंग कंपनियां उत्पादन बढ़ाने के लिए बहुत कुछ करती हैं और अ संगठित क्षेत्र के मजदूरों से हाड़ तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. धनबाद कोयलांचल में कोयला मजदूरों की यूनियन की भरमार है. यहां के हर एक पॉलिटिशियन दावा करते हैं कि वह कोयला मजदूरों के नेता है. कोयला मजदूरों पर अत्याचार कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे. इसको लेकर आंदोलन भी होते है. धनबाद से लेकर कोलकाता तक बैठकें भी होती है, लेकिन कोयला मजदूरों की हालत नहीं सुधरती है. मजदूर दिवस मजदूरों की ए कजुटता को बताने के लिए ही आयोजित किया जाता है. आज का दिन मजदूरों के लिए समर्पित होता है. मजदूर दिवस मनाने के पीछे भी कारण है.
अमेरिका में मजदूर दिवस मनाने का प्रस्ताव पहली मई 18 89 में लागू हुआ था
अमेरिका में मजदूर दिवस मनाने का प्रस्ताव पहली मई 18 89 में लागू हुआ, लेकिन भारत में इस दिन को मनाने की शुरुआत लगभग 34 साल बाद हुई. भारत में भी मजदूर अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठ रही थी. मजदूरों का नेतृत्व वामपंथी कर रहे थे. उनके आंदोलन को देखते हुए एक मई 1923 में पहली बार चेन्नई में मजदूर दिवस मनाया गया. उसके बाद से पहली मई को मजदूर दिवस मनाया जाता रहा है. अभी चुनाव का मौसम है, हर एक पार्टियां मजदूरों की बात कर रही है. लेकिन मजदूर किस हालत में रहते हैं, उनके धौड़ो (रहने की जगह ) का क्या हाल है, यह देखने कोई नहीं जाता. मजदूरों की बदहाल स्थिति कभी चुनावी मुद्दा भी नहीं बनती. नतीजा होता है कि मजदूरों के नाम पर राजनीति करने वाले तो शरीर पर खादी चमकाते फिरते हैं ,लेकिन जिनके नाम पर राजनीति होती है ,उनके शरीर पर ढंग के वस्त्र भी उपलब्ध नहीं होते.
रिपोर्ट -धनबाद ब्यूरो