रांची : देश की कोयला राजधानी धनबाद की सियासी गलियारों में लोकसभा चुनाव की चर्चा खूब हो रही है. कोयला खानों की नगरी में राजनीतिक सरगर्मी हमेशा से ही तेज रही है , चाहे जमाना कोई भी हो. अभी एनडीए और इंडिया की टक्कर के लिए मैदान सजने वाला है. भाजपा ने तो अपने प्रत्याशी के नाम के एलान को रोके रखा है. शायद मौजूदा सांसद की जगह कोई नया चेहरा अखाड़े में उतरे, इधर कांग्रेस भी अपनी तैयारियों को मुक्कमल की हुई है. यहां भी कुछ प्रत्याशी दौड़ में बनें हुए हैं. जिनमे, बाघमारा के पूर्व विधायक जलेश्वर महतो , पूर्व सांसद ददई दुबे और अशोक सिंह का नाम चर्चा में हैं. अंदरखाने में चर्चा इस बार अशोक सिंह को लेकर भी तेज बनीं हुई है. शायद पार्टी उन पर दांव खेले और भाजपा को चुनौती देकर इस सीट को छीन ले.
कौन हैं अशोक सिंह ?
अशोक सिंह सियासत की बिसात पर लंबे समय से जमे हुए हैं , राजनीति की हर दांव-पेच को समझते और जानते हैं. उन्होंने 2015 में स्थानीय विधायक फूलचंद मंडल के बेटे धरणीधर मंडल को हराकर एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जिला परिषद चुनाव जीता था, उनकी पत्नी भी उस समय मौजूदा जिला परिषद सदस्य और अध्यक्ष थीं. फरवरी 2019 में औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल हो गए, देखा जाए तो अशोक सिंह चार दशकों से अधिक समय से कांग्रेस पार्टी के लिए पर्दे के पीछे से काम करते रहे. अभी लगातार पार्टी और संगठन को मजबूत करने के लिए जोर-शोर से काम में जुटे हुए हैं. उनकी गतिविधियां भी अक्सर धनबाद में काफी दिखाई पड़ती रही है.
वैसे बता दें कि अशोक सिंह पिछले 20 सालों से झारखंड पेट्रोलियम डीलर एसोसिएशन और झारखंड टैंकर ऑनर एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं. अगर कांग्रेस पार्टी उन्हें टिकट देती है, तो फिर टक्कर बीजेपी के उम्मीदवार को तगड़े तरीके से दे सकते हैं. मौजूदा वक्त में धनबाद लोकसभा सीट के 300 पेट्रोल पंप उनके संपर्क में हैं. इसके साथ ही एक सकारात्मक पक्ष ये है कि अशोक सिंह को झरिया विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह और बोकारो विधानसभा से श्वेता सिंह का भी समर्थन प्राप्त है. बेशक अशोक सिंह एक बड़ा नाम न हो . लेकिन भूमिहार जाति से आने के चलिए जातिए समीकरण में भी फिट दिखाई पड़ रहें है. समान्य वर्ग के वोटर्स , जिसमे कुछ भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूत मतदाता उनको अपना वोट देंगे . इसके साथ ही यहां मुस्लिमों की 20 फीसदी वोट बैंक है. जिनका वोट भी उन्हें एकमुश्त मिल सकता है. ऐसी सूरत और समीकरणों को देखते हुए उनका दांवा यहां मजबूत दिखाई तो पड़ता है.
टिकट के लिए जिन नामों चर्चा तेज है
अगर अशोक सिंह को टिकट नहीं मिलता है, तो दावेदारों की दौड़ में जलेश्वर महतो औऱ पूर्व धनबाद सांसद ददई दुबे भी है. जलेश्वर महतो ने 2018 में कांग्रेस में शामिल हुए. इससे पहले बाधमारा विधानसभा से 2000 और 2005 में जेडीयू से विधायक थे. 2014 में गिरिडीह लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ा था. लेकिन सिर्फ 40,000 वोट ही ला सके थे. यहां उनके साथ एक बात ये भी हो जाती है कि धनबाद लोकसभा सीट एक सामान्य सीट है. ऐसी सूरत में अगर वो लड़ते हैं तो फिर शहरी मतदाता भाजपा की तरफ खिसक सकता है . ऐसे भी शहरी वोटर्स भाजपा का वोट बैंक माना जाता है. इसके साथ ही उनके समर्थन में स्थानीय वामदलों के नेता आनंद महतो और अरुप चटर्जी भी शायद करेंगे. हालांकि, जलेश्वर महतो का लंबा राजनीतिक अनुभव और एक कद्दावर नेता माने जाते रहें हैं.
जलेश्वर महतो के साथ ही ददई दुबे भी कांग्रेस की टिकट के दावेदारों में हैं. लेकिन, उनके साथ दिक्कत ये है कि 2004 में सांसद तो बनें थे. लेकिन, 2009 में भाजपा के पीएन सिंह से शिकस्त खाने के बाद फिर पंजा को छोड़कर 2014 में टीएमसी की टिकट पर चुनाव लड़े. लगातार पराजय और बढ़ती उम्र के चलते धनबाद की राजनीति में उनकी गैरमोजूदगी बनीं रही. ऐसे में एकबार फिर लोकसभा के रण में उतरे तो ऐसा बहुत कम ही दिखाई पड़ता है. हालांकि, उनका नाम भी रेस में हैं.
भाजपा के पीएन सिंह ने लगायी जीत की हैट्रिक
वर्तमान हालत की बात करें तो धनबाद संसदीय सीट पर भाजपा का कब्जा लगातार तीन बार से बना हुआ है. लेकिन, कोयलांचल की इस सीट को समझें तो यहां पर वजूद कभी किसी का नहीं रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने सेक्युलर वोटों के बंटवारे के कारण जीतने में कामयाबी हासिल की है. भाजपा की जीत के पीछे कांग्रेस का कमजोर उम्मीदवार भी एक फैक्टर रहा हैं. पिछली बार कीर्ति आजाद ने कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा, जिसे यहां का मतदाताओं ने सिरे से खारिज किया. अगर कोई मजबूत कैंडिडेट यहां उतरता है तो शायद तस्वीर उलट होगी .
धनबाद में शहरी मतदाताओं की संख्या ज्यादा
ऐसा माना जाता है कि शहरी मतदाता जिस तरफ भी अपना वोट बरसा दे, उसका जीतना तय है. क्योंकि धनबाद में 60 फीसदी से अधिक वोटर्स शहरी है. 2019 की जनगणना के मुताबिक 21 लाख वोटर्स हैं. जातिए समीकरण को समझे तो सबसे ज्यादा 25 फीसदी आबादी एससी और एसटी की है. वही, दूसरी सबसे बड़ी 20 प्रतिशत जनसंख्या मुस्लिमों की है. जबकि, भूमिहार और ब्राह्मण 16 फीसदी है. वही राजपूत और महतो 7 प्रतिशत है.
धनबाद में भाजपा लगातार चौथी बार जीतने के फिराक में है. अगर इस विजय रथ को कांग्रेस रोकना चाहती है, तो उसे बेहद ही सूझ-बूझ से चुनाव रण में उतरना होगा. एक मजबूत उम्मीदवार के साथ-साथ सटीक समीकरण भी बैठाना होगा. तब ही यहां जीत कांग्रेस को मुनासिब होगी