धनबाद(DHANBAD) : अरविंद केजरीवाल का दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद छोड़ने का फैसला कितना सही है, आगे इसका क्या नतीजा निकलेगा, क्या अरविंद केजरीवाल फैसला लेने के पहले नीतीश कुमार और हेमंत सोरेन के आत्मघाती निर्णय को ध्यान में रखा या नहीं, क्या लालू प्रसाद के फैसले पर नजर डाली या नहीं, यह सब ऐसे सवाल हैं, जो मंगलवार से ही देश की राजनीति में घूम रहे है. सवाल यह भी है कि उन्होंने आतिशी पर अधिक भरोसा आखिर किस वजह से किया. आतिशी उनके भरोसे पर कितना खरा उतरेंगी, यह तो समय ही बताएगा. लेकिन लालू प्रसाद की तरह अरविंद केजरीवाल के पास भी सुनीता केजरीवाल का विकल्प था. लेकिन उन्होंने इस विकल्प को नहीं चुना. राजनीति में कोई किसी का अपना नहीं होता, ऐसे कई उदाहरण है, जिनका सिंहावलोकन किया जा सकता है. महाराष्ट्र में शरद पवार के परिवार को ही उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. परिवार के जिस व्यक्ति अजीत पवार को शरद पवार ने उंगली पड़कर राजनीति करना सिखाया,उसी अजीत पवार ने सत्ता के लिए भरोसा तोड़ दिया.
नीतीश कुमार की तरह धोखा तो नहीं मिलेगा
सवाल यह भी है कि अरविंद केजरीवाल आखिर बेल पर जेल से बाहर निकलने के बाद मुख्यमंत्री पद छोड़ने का निर्णय क्यों लिया. अगर उन्हें छोड़ना ही था तो जेल जाने के के बाद मुख्यमंत्री का पद छोड़ देते. यह अलग बात है कि दिल्ली में भी जल्द चुनाव होने है. ऐसे में कार्यों को गति देने के लिए हो सकता है कि इस्तीफा देने की बात अरविंद केजरीवाल के मन में आई हो. यह अलग बात है कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी अभी हाल ही में नीतीश कुमार की तरह गलती कर बैठे थे. अपनी गलती का उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा. हेमंत सोरेन ने सोरेन परिवार के करीबी चंपाई सोरेन को अपनी गिरफ्तारी के वक्त मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी थी. उस समय उन्होंने अपनी पत्नी कल्पना सोरेन के बजाय चम्पाई सोरेन का निर्णय लिया. उस वक्त अगर वह प्रयास करते तो कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे सकते थे. लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
चम्पाई सोरेन ने कुर्सी तो वापस कर दी लेकिन
हेमंत सोरेन को बेल मिलने के बाद उनकी कुर्सी तो चम्पाई सोरेन ने वापस कर दी. लेकिन इसे अपने अपमान से जोड़ लिया. फिर झारखंड मुक्ति मोर्चा छोड़कर भाजपा के पाले में चले गए. अब भाजपा हेमंत सोरेन के खिलाफ चंपाई दादा को हथियार बनाकर चुनाव लड़ने की दिशा में आगे बढ़ रही है. लालू यादव ने भी चारा घोटाला के समय जेल जाने से पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी थी. उनका यह प्रयोग तो लगभग सफल रहा लेकिन नीतीश कुमार ने जब कुर्सी छोड़ने का प्रयोग दोहराया तो उन्हें धोखा मिला. अब देखना है कि अरविंद केजरीवाल का फैसला कितना सही साबित होता है. वैसे, घोषणा तो यही की गई है कि चुनाव में अगर आम आदमी पार्टी को बहुमत मिलेगा तो अरविंद केजरीवाल फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे. सवाल फिर उठता है कि क्या काम करते-करते आतिशी के मन में मुख्यमंत्री का सपना नहीं रहेगा, ऐसा कैसे भरोसा कर लिया जाए.
रिपोर्ट -धनबाद ब्यूरो