धनबाद(DHANBAD): रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात का 100 वा एपिसोड लोगों ने सुना. देश से लेकर विदेश तक इसकी चर्चा हो रही है. विपक्षी नेता इस पर तंज कस रहे है. विपक्ष में शामिल लोग अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या कर रहे है. लगे हाथ विपक्षी दलों की एकता पर भी चर्चा छेड़ देते है. दावा करते हैं कि 2024 में विपक्षी दल एक होकर चुनाव लड़ेंगे लेकिन कैसे, इसका कोई ठोस जवाब उनके पास नहीं होता. सिर्फ यही कहते हैं कि 1977 इसका उदाहरण है. 1977 में तो लड़ाई स्वर्गीय इंदिरा गांधी और स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण के बीच थी. आपातकाल के बाद का दौर था. जनता दल में कई पार्टियों का विलय हो गया था. गुमनामी में जी रहे कई लोग एकाएक चमक उठे थे. राजनारायण जैसे व्यक्ति ने श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेत्री को हरा दिया था. लेकिन क्या ऐसी कोई स्थिति अभी बन रही है. देश में जब- जब चुनाव की बारी आती है तो विपक्षी एकता की बात भी होती है. होनी भी चाहिए, आज के तारीख में भाजपा देस ही नहीं विदेश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करती है.
देखिये 1965 के बाद कैसे कैसे कमजोर होती गई कांग्रेस
यह ताकत 1965 के पहले कांग्रेस के पास थी लेकिन उसके बाद कांग्रेस की ताकत धीरे-धीरे घटने लगी. कांग्रेस के वोटर कांग्रेस से छिट कने लगे. राज्यों की अगर बात की जाए तो कश्मीर में शेख अब्दुल्ला व मुफ्ति की पार्टी ने कांग्रेस को कमजोर किया, पश्चिम बंगाल में सीपीएम और टीएमसी ने कांग्रेस को झटका दिया. बिहार, हम झारखंड भी कह सकते हैं, में कांग्रेस को कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने हिला कर रख दिया. उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, कांशी राम, मायावती ने कांग्रेस की जड़े हिला दी. उड़ीसा में कांग्रेस को बीजू पटनायक और नवीन पटनायक ने इसके वजूद को लगभग खत्म कर दिया. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने जोर का झटका धीरे से दिया. राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते अभी भी सबकी निगाहें कांग्रेस की ओर ही टिकी हुई है. कांग्रेस कहती तो है लेकिन क्या करेगी, इस पर बहुतों को भरोसा नहीं हो रहा है. नतीजा है कि कोई रूपरेखा नहीं बन पा रही है. सबसे बड़ा जो पेंच है वह है, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का.
नीतीश कुमार खुद को नहीं बता रहे पीएम मटेरियल
नीतीश कुमार विपक्षी एकता की अगुवाई तो कर रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री पद की दावेदारी नहीं कर रहे है. घूम तो सभी जगह रहे हैं लेकिन कदम फूंक-फूंक कर उठा रहे है. बंगाल में ममता बनर्जी ने बहुत होशियारी से यह कह कर विपक्ष की बैठक को बिहार की तरफ ढकेल दिया है कि बिहार की धरती से ही 1977 में आंदोलन का बिगुल फूंका गया था. इसके भी कई राजनीतिक माने -मतलब निकाले जा रहे है. हो सकता है कि ममता बनर्जी पूरी तरह से इसके लिए तैयार नहीं हो. वैसे लालू प्रसाद यादव भी दिल्ली से पटना आए हुए है. नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों जेपी मूवमेंट की उपज है. वैसे भी देखने से विपक्षी एकता का प्रयास उत्साह में अधिक और विश्वास में कम प्रतीत हो रहा है. देखना है 2024 के पहले क्या कुछ हो पाता है.
