रांची(RANCHI): बहुत दिन नहीं गुजरे, सिर्फ कुछ एक दशक पीछे की ही तो बात है, जब हमारा और आपका जीवन गांव में इन्ही कच्चे घरों में गुजरी थी. हां, हमने शहर आकर अपनी आबोहवा बदल ली, और गांव भी तो अब वह नहीं रहा, शहरों से निकला पैसा गांवों को बदलता चला गया, यह बदलाव कितना सकारात्मक और कितना दर्द भरा यह अलग बहस का मुद्दा हो सकता है, है भी, लेकिन गांव तो बदल गयी, अब वहां कच्चे मिट्टी के मकान नहीं हैं, शायद गांव की गलियां भी अब कच्ची नहीं रही, हां एक बात और, अब उस गांव के लोग भी कच्चे नहीं रहें. मंगरु चा, बुधन चा की पीढ़ी गुजर गयी. शहरों से चला सोफा गांव पहुंच चुका है. अब वहां भरी दोपहर पीपल के पेड़ की नीचे महिलाओं की जमघट नहीं लगती. नल-जल योजना कितनी पहुंची वह एक अलग बात है, लेकिन कुछ एक घरों में गैस सिलेन्डर भी दिखाई देने लगा है. सरकारी स्कूल में खिचड़ी खाकर बच्चे बगल के प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाई के लिए जाने लगे हैं.
क्या लौटने ही वाली है मिट्टी के घरों के फैशन
दरअसल, यह कोशिश किसी बिहार, झारखंड में नहीं हो रही है, हम तो आज भी कच्चे मिट्टी के घरों को तोड़ कर ‘कंक्रिट का खेल’ खेल अपने को आधूनिक बनाने की होड़ में लगे हैं. वैसे अपने कच्चे मिट्टी के घरों को तोड़ कर कितनी आधूनिकता हमारे पास आयी यह भी एक विवाद का ही विषय है.
'पृथ्वी की इमारतें' बनाने पर ध्यान केंद्रित करता- अर्थ होम्स के शिल्पकार
दरअसल, कच्चे मिट्टी के इन घरों को एक बार फिर से फैशन में लाने का श्रेय जाता है अर्थ होम्स के वास्तुकार बेंगलुरु की आर्किटेक्ट शरण्या अय्यर के द्वारा, उन्होंने अपने ऑफिस का नाम रखा है 'स्टूडियो वर्ज. वह कहती है कि उनके द्वारा “पृथ्वी की इमारतें” बनायी जा रही है. इनके द्वारा निर्माण सामग्री में पृथ्वी से बने और स्थायी तकनीकों को ही उपयोग किया जा रहा है. वह इन पर्यावरण-अनुकूल इमारतों को एक न्यूनतम सौंदर्य और सुविधाओं के साथ एक समकालीन अनुभव देती है जो आराम और सुविधा सुनिश्चित करती है.
50 से अधिक पर प्रोजेक्ट पर काम
शरणा कहती है कि उनके द्वारा स्टूडियो वर्ज के नाम से वर्ष 2013 से कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और तेलंगाना में 50 से अधिक परियोजनाओं पर काम किया जा चुका है. आज हाल यह है कि यदि उनके पास पांच ग्राहक आते हैं, तो उसमें चार के द्वारा पृथ्वी होम की बात की जाती है. स्वतंत्र घरों और अपार्टमेंटों के अलावा उनके द्वारा कई शिक्षण संस्थाओं और दूसरे कार्यालयों का निर्माण भी किया गया है. अभी भी कई प्रोजेक्ट पर काम किया जा रहा है.
यह धारणा गलत है कि मिट्टी के घर तंग और सिलनभरी होती है
शरण्या कहती है कि यह धारणा बिल्कुल गलत है कि मिट्टी के घर अंधेरा, सिलनभरी और तंग होती है. और यह की बारिश में दीवारे धुल जाती है. मिट्टी के घरों के निर्माण में कोई जरुरी नहीं है कि सिर्प पारंपरिक रुप का ही ध्यान रखा जाय, इसके निर्माण में सौंदर्यशास्त्र का ख्याल रखने की भी जरुरत है. स्थिरता, स्थायित्व और रखरखाव में संतुलन कायम करने की जरुरत है.
यहां बता दें कि शरण्या ने अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी से अर्बन डिजाइन में मास्टर्स किया है. उसके बाद चार साल तक यूएस में गृह निर्माण में काम करने का अनुभव है. उनके द्वारा LEED ग्रीन बिल्डिंग सर्टिफिकेशन के साथ-साथ भारत में GRIHA सर्टिफिकेशन लिया गया है.
इंफोसिस फाउंडेशन और कर्नाटक के पर्यटन विभाग भी शरणा के ग्राहकों में शामिल
वह बताती हैं कि भारत लौटने के बाद उनके द्वारा एक संस्था के लिए काम शुरु किया गया. लेकिन आखिरकार हमने अपने सपनों पर काम करना शुरु किया. आज उनके ग्राहकों की सूची में इंफोसिस फाउंडेशन और कर्नाटक के पर्यटन विभाग भी शामिल हैं.
रैम्ड अर्थ तकनीक के पक्षधर हैं शरण्या
शरण्या रैम्ड अर्थ तकनीक के पक्षधर हैं, जहां प्लाइवुड के दो तख्तों के बीच मिट्टी को दबाने के बाद नौ इंच मोटी दीवार बनाई जाती है। दीवार को लंबा बनाने के लिए तख्तों को ऊंचा और ऊंचा किया जाता है. मिट्टी जमने के बाद प्लाईवुड को हटा दिया जाता है, जिसमें लगभग एक दिन लग जाता है. वह कहती हैं कि इस तकनीक को लागू करना आसान और तेज़ है.
50 फीसदी कम लागत में किया जा सकता है मिट्टी के घरों का निर्माण
कच्चे घर इमारतों की तरह मजबूत और जलवायु के प्रति संवेदनशील हैं. इसके कारण एयर-कंडीशनिंग की जरुरत नहीं पड़ती. इमारत में पर्याप्त क्रॉस वेंटिलेशन और चकाचौंध से मुक्त प्राकृतिक प्रकाश व्यवस्था किया जा सकता है.
पारंपरिक संरचनाओं की तुलना में श्रम और शिल्प कौशल पर अधिक खर्च किया जाता है. इसके अलावा, हम स्थानीय श्रमिकों को रोजगार दे रहे हैं और उनके कौशल का निर्माण कर रहे हैं.”
शालिनी और उनके पति बेंगलुरु में स्थित कंप्यूटर इंजीनियर हैं, वह कहती है कि हम पृथ्वी के घरों में भी रहे हैं और वास्तव में यह बेहद शानदार अनुभव है.
रिपोर्ट: देवेन्द्र कुमार