Patna- वर्ष 2015 के बाद जदयू एक बार फिर से राजद महागठबंधन का हिस्सा है, हालांकि इस बार जनता दल, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोक दल और समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) का कहीं कोई अता पता नहीं है. कांग्रेस इस बार भी महागठबंधन के साथ है, माले सहित दूसरी तमाम वामपंथी पार्टियों की मजबूत उपस्थिति भी है. फिलवक्त राजद-79, जदयू -45 और काग्रेंस-19, माले-12 भाकपा-2 माकपा-2 विधायक हैं
एनडीए खेमा की वर्तमान तस्वीर
दूसरी ओर एनडीए खेमा की तस्वीर कुछ ज्यादा नहीं बदली है, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा आज भी उसके साथ है. हालांकि लोजपा-रामविलास को लेकर कुछ संशय की स्थिति जरुर है, लेकिन माना जाता है कि चिराग पासवान अंतिम समय में एनडीए खेमा के साथ ही खड़े नजर आयेंगे. संशय की स्थिति सिर्फ मुकेश सहनी को लेकर है, उनके बारे में अभी पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. फिलवक्त भाजपा-78, हम-4, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी-0, लोजपा-0 विधायकों के साथ है. साफ है कि इस खेमें में भाजपा के सिवा किसी के पास खोने को कुछ भी नहीं है. हालांकि जीतन राम मांझी की पार्टी हम की चिंता अपने चार विधायकों का संख्या बल को बचाये रखने की जरुर होगी.
किसके हाथ लगेगी बाजी
अब सवाल यह उठता है कि 2025 के विधान सभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन में से बाजी किसके हाथ लगेगी? साथ ही 2024 के लोकसभा चुनाव पर इसका क्या असर पड़ेगा? इसके लिए हमें 2015 के विधान सभा चुनाव परिणाम को देखना होगा, जब जदयू राजद के साथ मिलकर महागठबंधन का हिस्सा था. उस आकंडों को समझने के बाद महागठबंधन और एनडीए की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है.
2015 का परिणाम
तब विधान सभा की 243 सीटों पर हुए मुकाबले में राजद और जदयू दोनों ने 101-101 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थें. कांग्रेस के हिस्से 41 सीटें आयी थी. चुनावी नतीजों में राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, जबकि 71 सीटों के साथ जदयू दूसरे स्थान पर थी. कांग्रेस 27 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर थी. यदि इन तीनों को जोड़ दिया जाया तो कुल आंकड़ा-178 का आता है.
157 सीट पर लड़कर भी 53 सीटों पर सिमट गयी थी भाजपा
जबकि 157 सीटों पर लड़कर भी भाजपा को महज 53 सीटें मिली थी. यह स्थिति तब थी जब पूरे देश में पीएम मोदी का जादू बोल रहा था. लेकिन पीएम मोदी की तमाम रैलियों और बड़े-बड़े दावों के बावजूद भाजपा अपना करिश्मा दिखलाने में नाकामयाब रही थी.
इस बार क्या हो सकता है?
सवाल यह है कि इस बार क्या हो सकता है? खास कर जब भाजपा का सबसे प्रखर चेहरा पीएम मोदी का जादू राज्य दर राज्य पीटता चला जा रहा है. बंगाल, पंजाब, हिमाचल, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली कहीं भी पीएम मोदी का जादू अपना जलबा बिखेरता दिखलायी नहीं पड़ रहा. साम्रदायिक धुर्वीकरण की तमाम कोशिशें भी असफल हो रही है. नकाब, हिजाब, बजरंगबली, चीन पाकिस्तान सारे मुद्दे दम तोड़ते नजर आ रहे हैं, दूसरी ओर राष्ट्रीय फलक पर राहुल गांधी की जबरदस्त वापसी होती दिख रही है, दिन पर दिन उनके समर्थकों की संख्या पीएम मोदी के समकक्ष खड़ा होता दिख रहा है, क्योंकि इतना तो साफ है कि बिहार की राजनीति में चेहरा भले ही लालू, नीतीश और तेजस्वी हों, लेकिन यदि विपक्षी एकता की गाड़ी दौड़ती है, तो उसका नजारा यहां भी देखने को मिलेगा, तब अरविंद केजरीवाल सहित राहुल गांधी की जनसभाओं से इंकार नहीं किया जा सकता, प्रियंका की सभाओं में उमड़ती भीड़ भी एक खतरा है.
बिहार भाजपा की गुटबाजी
दूसरी तरह अपनी एकजुटता के तमाम दावों के बावजूद प्रदेश भाजपा के अन्दर जबरदस्त गुटबाजी है, एक गुट दूसरे गुट को सहन करने की स्थिति में नहीं है, उनके अन्दरुनी मतभेद की खबरें जगजाहिर हैं. यही कारण है कि जब जदयू यह दावा करता है कि भाजपा के करीबन एक दर्जन विधायक उसके सम्पर्क में हैं, तो उसे नकारना मुश्किल हो जाता है.
भाजपा विधायकों को भी है नीतीश कुमार की ताकत की एहसास
हालांकि विधान सभा चुनाव के पहले पहले दोनों ही खेमों की ओर से कोई बड़ा पाला बदल की कोशिश नहीं होगी, लेकिन इतना साफ है कि भाजपा नेताओं के बड़े-बड़े बयान के बावजूद उसके विधायकों को नीतीश कुमार की ताकत का अंदाजा है, उन्हे यह पत्ता है कि भाजपा की जो आज 78 सीटें हैं, उसमें नीतीश कुमार की भूमिका क्या है? भाजपा की चुनौती सत्ता पाने की नहीं, 78 के आंकड़ों को बचाने की है. साफ है कि भाजपा की असली चुनौती बिहार की सता में आने की नहीं है, उनकी वास्तविक चिंता अपने 78 संख्या बल को बचाये रखने की है, जो आज की परिस्थिति में टेढ़ी खीर नजर आता है.