Ranchi- बुधनी नहीं रही, 85 वर्ष की उम्र में धनबाद के पंचेत हिल हॉस्पिटल में उसने अपनी जिंदगी की अंतिम सांस ली. इसके साथ ही सात दशकों के उसके सामाजिक निर्वासन का भी अंत हो गया, बुधनी जिसने अनवरत 70 वर्षों तक संताल समाज की नाराजगी झेली, सामाजिक बहिष्कार झेला, अनवरत पीड़ा झेली, वह पंचेत डैम जिस पर आज झारखंड नाज करता है, वह पंचेत डैम जो आज भी लाखों घरों में रोशनी फैलाता है, हजारों हजार एकड़ भूमि को सिंचित करता है, बुधनी की जिंदगी में विरानियां दे गया, 6 दिसंबर 1959 को एक बटन दबा कर पंचेत डैम का उद्घाटन करते ही उसकी जिंदगी में भूचाल आ गया, उसके चेहरे की मुस्कान और आखों से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरु को माला पहनाने की खुमारी गायब हो गयी. वह बुधनी जिसकी तस्वीर तब पूरे भारत में छा गयी थी, और ऐसा लगा था कि वह एकबारगी झारखंड और देश की पहचान बन गयी, लेकिन जब वही बुधनी अपना घर करबोना लौटी तो उसके घर के दरवाजे उसके लिए बंद हो चुके थें, चारों तरफ यह बात आग की तरह फैल गयी थी कि बुधनी मंझियाइन ने पंडित नेहरु को माला पहनायी है, वह माला जो संताल समाज में सिर्फ अपने पति को पहनायी जाती है, बुधनी ने वही माला पंडित नेहरु को पहना कर गांव समाज और संतालों के माथे पर कंलक का टीका लगाया है.
इस एक गलती के लिए संतालों ने बुधनी को कभी माफ नहीं किया
और महज इस एक माला के कारण संताल समाज ने उसे ताउम्र माफ नहीं किया, उसे तो पंडित नेहरु की दूसरी पत्नी मान लिया गया, और पंडित नेहरु तो संताल नहीं थें, भला इस हालत में संताल समाज उसके इस गुनाह को माफ कैसे करता? बताया जाता है कि वह घंटों तक अपने दरवाजे पर खड़ी होकर दरवाजा खोलने की गुहार लगाती रही, उसके चारों तरफ गांव वालों की भीड़ जुट चुकी थी, हर कोने से उसके लिए ताने और व्यंग की बरसात हो रही थी, इस बात की खिल्ली उड़ाई जा रही थी कि जिसको माला पहना कर आयी हो, अब वही तुम्हारा पति है, तेरी दुनिया है. संतालों के दरवाजे तुम्हारे लिए सदा सदा के लिए बंद हो चुके हैं.
अब उसी पंडित नेहरु का घर तुम्हारा घर है, संताल समाज का एक-एक चौखट तुम्हारे लिए प्रतिबंधित है, भला एक संताली बेटी किसी गैर संताल को अपना वरमाला पहना सकती है, यह तो संताल समाज की परंपराओं का खुला अपमान है, हजारों वर्षों की पंरपरा के साथ बगावत है, हमारी सभ्यता, संस्कृति और रुढ़ियों पर प्रहार है.
हजारों की उस भीड़ में मदद के लिए एक भी हाथ नहीं उठा
हजारों की उस भीड़ में कोई एक हाथ ही उसकी मदद को आगे नहीं बढ़ा, चारों तरफ घृणा, नफरत और उन्मादी तूफान था. वह परिवार जिस अपनी बुधनी पर बेहद नाज था, जिसने अरमानों के साथ इस बुधनी को पाला पोसा था, वह परिवार जो कभी बुधनी की चाहत के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहता था, समाज और संस्कार के बंदिशों के कारण आज बुधनी को अपनाने को तैयार नहीं था. उसके सामने विकट चुनौती थी, एक तरफ लाड़ली बेटी और बहन दरवाजे पर दस्तक दे रही थी, गुहार लगा रही थी, मदद की चित्कार लगा रही थी, दूसरी ओर दरवाजे पर उमड़ी भीड़ और उनका गुस्सा सामने खड़ा था, आखिरकार उस परिवार ने अपने समाज का साथ देना बेहतर समझा और महज 15 वर्ष की छोटी सी कमशीन बुधनी संतालों के दरवाजों से निराश लौट गयी. लेकिन जाती कहां, सर छुपाने के लिए एक अदद छत तो चाहिए था, खैपरल और फूस की एक कुटिया तो चाहिए थी, एक मिट्टी का चुल्हा की जरुरत तो थी, एक कुंआ तो हो, जहां से वह अपना रुखे कंठ को तर कर सके.
इसके बाद महीनों भटकती रही बुधनी
वह निरंतर भटकती रही, आखिरकार पंचेत डैम में ही काम करने वाले सुधीर दत्ता से उसकी मुलाकात हुई, और दोनों साथ साथ रहने लगे, दोनों के बीच पत्नी पत्नी का रिश्ता रहा, लेकिन इन दोनों की एक बेटी भी हुई, लेकिन संताल समाज ने उसे भी स्वीकार नहीं किया. यहां ध्यान रहे कि बुधनी उस पंचेत डैम की एक दिहाड़ी मजदूर थी, जिसके निर्माण का सपना पंडित नेहरु ने देखा था, याद रहे कि पंडित नेहरु इन डैमों को आधुनिक भारत का मंदिर मानते थें, उनका मानना था कि यदि भारत को इस गरीबी और भूखमरी से बाहर निकालना है, उसे दुनिया के विकास के दौड़ लगानी है, तो उसे वैज्ञानिक दृष्टि अपनानी होगी, इस आजाद भारत में इन डैमों और बड़े-बड़े कारखानों को ही मंदिर मानना होगा, उनका मानना था कि यदि इस भूख और गरीबी से संत्रस्त भारत में कोई रोशनी आयेगी, तो इन आधुनिक युग के मंदिरों से ही आयेगी, खैर पंडित नेहरु का सपना पूरा हुआ, और पंचेत डैम का उद्घाटन के लिए 6 दिसंबर 1959 का दिन निर्धारित किया गया.
पंडित नेहरु को माला पहनाने के लिए एक युवती की तलाश थी
तब आयोजकों में इस बात की खोज शुरु हुई को पंडित नेहरु को माला पहनाये, उनका टीका लगाये, और यह सभी को पत्ता था कि पंडित नेहरु के दिल में इस आदिवासी समुदाय के लिए कितनी सहानुभुति और समानुभूति है. पंडित नेहरु जिस आधुनिक मंदिर के निर्माण की बात करते थें, और इन मंदिरों से जिनकी जिंदगी में बदलाव की बात करते थें, यह आदिवासी समाज उसके केन्द्र में था, क्योंकि पंडित नेहरु को यह दृढ़ विश्वास था कि बगैर आदिवासी समाज और दलित पिछड़ों की जिंदगी में बदलाव लाये, इस स्वंतत्र भारत में आधुनिकता सोच की नींव नहीं रखी जा सकती है, इसी भावना को आगे रख कर आयोजकों ने पंडित नेहरु को तिलक और माला पहनाने के लिए एक आदिवासी युवक और युवती का चयन किया, यही वही बुधनी थी, जिसके हाथों बटन दबबा कर पंडित नेहरु ने इस डैम का उद्घाटन करवाया था.
आज जब एक शौचालय का भी उद्घाटन सीएम-पीएम के हाथों हो रहा है, तब नेहरु ने लिया था अलग फैसला
जी हां, आप सही समझ और पढ़ रहे हैं, आज भले एक शौचालय का उद्घाटन भी सीएम पीएम कर रहे हैं. और मीडिया में उनकी महानता का व्याखान चलाया जा रहा हो, लेकित वह पंडित नेहरु का दौर था, आजाद भारत का आजाद ख्याल तब तंगदिली का शिकार नहीं हुआ था, तब आम आदमी को भी उद्घाटनों का हकदार माना जाता था, और पंडित नेहरु ने इस डैम का उद्घाटन खुद के करने के बजाय उसका बटन इसी बुधनी से दब बाया था, और इसके साथ ही बुधनी तब सुर्खियां बन गयी थी.
कल ही बुधनी ने तोड़ दिया दम, लेकिन सवाल वहीं कितना बदला भारत
यही बुधनी का गुनाह था, कल ही उस बुधनी का 85 वर्ष की उम्र में पंचेत हिल हॉस्पिटल में देहांत हो गया, लेकिन दुर्भाग्य यह रही कि जिस बुधनी पर पंडित नेहरु की दूसरी पत्नी होने का ठप्पा लग चुका था, जो सात दशकों से निर्वासन की अभिशप्त जिंदगी जी रही थी, लेकिन नेहरु के बाद बदलते कांग्रेस ने इस बुधनी की खोज खबर कभी नहीं ली, हालांकि इस बीच जब डीवीसी ने बुधनी को नौकरी से निकालने का फैसला लिया, तब इसकी जानकारी तात्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मिली तो उन्होंने इसके लिए डीवीसी प्रशासन को काफी डांट लगायी और आखिरकार बुधनी अपनी रिटारमेंट तक डीवीसी में काम करती रही.