Ranchi- चतरा संसदीय सीट पर पूर्व सीएम रघुवर दास के अखाड़े में उतरने की चर्चा पर तब विराम लग गया, जब लोकसभा चुनाव से पहले का सेमीफाइनल माने जा रहे पांच राज्यों की विधान सभा चुनाव से ठीक पहले रघुवर दास को ओड़िसा का गर्वनर बना कर, उनके एक्टिव पॉलिटिकल कैरियर पर तात्कालिक रुप से विराम लगा दिया गया.
उसके पहले कई मीडिया घरानों के द्वारा आंतरिक सूत्रों के हवाले से इस खबर को खूब प्रचारित किया गया कि भाजपा इस बार चतरा सांसद सुनील कुमार सिंह को आराम देकर रघुवर दास को अखाड़े में उतारने की तैयारी कर रही है. उनका दावा था कि सुनील कुमार सिंह को लेकर पार्टी को अच्छा फीडबैक नहीं मिल रहा है, लोगों में नाराजगी की खबर मिल रही है और वैसी हालत में जब देश में इंडिया गठबंधन की ताकत मजबूत होती नजर आ रही है, भाजपा का केन्द्रीय आलाकमान एक-एक सीट को अपने पाले में लाना चाहता है, वह किसी भी सीट पर जोखिम लेने को तैयार नहीं है.
तीसरी बार मोर्चा संभालेंगे सुनील या किसी दूसरे पहलवान पर भी आलाकमान की नजर
लेकिन अब जब केन्द्रीय आलाकमान ने अप्रत्याशित तरीके से रघुवर दास को झारखंड की सियासत से दूर करने का फैसला कर लिया, तब यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि अब भाजपा की आगे की रणनीति क्या होगी? क्या वह सुनील कुमार सिंह को तीसरी बार मैदान में उतारेगी या उसकी नजर अभी भी दूसरे पहलवानों पर लगी हुई है?
यहां हम बता दें कि चर्चा सिर्फ रघुवर दास के बारे में ही नहीं चल रही थी, खुद बाबूलाल के बारे में भी यही दावा किया जा रहा था, बताया जा रहा था कि पार्टी कोडरमा के वर्तमान सांसद अन्नपूर्णा देवी को चतरा के मैदान में उतार कर कोडरमा संसदीय सीट से बाबूलाल को प्रत्याशी बनाने पर विचार कर रही है. तब क्या माना जाय कि पार्टी के पास अभी विकल्प नहीं खत्म नहीं हुआ है. और बाबूलाल के रुप में अभी भी उसके पास तुरुप का पत्ता बचा हुआ है. जिसे वह कोडरमा संसदीय सीट पर उतार कर अन्नपूर्णा देवी को चतरा के मैदान पर तैनात कर सकती है.
कोडरमा में तीन तीन बार अपना जलबा दिखा चुके हैं बाबूलाल
ध्यान रहे कि कोडरमा संसदीय सीट बाबूलाल के कोई नयी सीट नहीं हैं. वह इस अखाड़े के पुराने खिलाड़ी रहे हैं. वर्ष 2004,2006 और 2009 में लगातार विजय पताका फहरा कर बाबूलाल इस सीट पर अपनी जमीनी पकड़ को साबित कर चुके हैं. 2006 और 2009 में तो भाजपा से बाहर होकर भी बाबूलाल ने इस सीट पर कामयाबी का झंडा बुलंद किया था. जबकि अन्नपूर्णा देवी को इस सीट पर फतह हासिल करने के लिए भाजपा के सहारे की जरुरत है. और खास कर तब उनके खिलाप क्षेत्र में एंटी इनकम्बेंसी देखने को मिल रही है.
चतरा में अन्नपूर्णा की इंट्री से भाजपा को मिल जायेगा एक मजबूत पिछड़ा चेहरा
दावा किया जाता है कि अन्नपूर्णा को चतरा से उतारने से भाजपा को एक मजबूत पिछड़ा चेहरा भी मिल जायेगा और उनके खिलाफ हवाओं में तैरती एंटी इनकम्बेंसी का समाधान भी हो जायेगा. लेकिन दूसरी ओर खबर यह भी है कि चतरा संसदीय सीट पर भाजपा खेमें से कई दूसरे पहलवानों की नजर लगी हुई है. इसमें एक नाम पांकी विधान सभा से भाजपा विधायक शशिभूषण मेहता का भी है. दावा किया जाता है कि हालिया दिनों में शशिभूषण मेहता की रुचि चतरा संसदीय क्षेत्र में तेज हुई है.
अब देखना होगा कि भाजपा आलाकमान इन्हीं चेहरों में अपना पहलवान खोजती है, या एन वक्त पर किसी दूसरे प्रत्याशी का एलान कर सबों को चौंकाती है, क्योंकि भाजपा के बारे में आम धारणा यह है कि वह अंतिम समय तक अपने पत्ते को नहीं खोलती, और हर बार अपने फैसले से अपने विरोधियों को बचाव की मुद्रा में ला खड़ा करती है.
चतरा लोकसभा में कितनी मजबूत है भाजपा
यहां यह भी बता दें कि सिमरिया, चतरा (चतरा जिला), मनीका, लातेहार (लातेहार) और पांकी (पलामू जिला) की पांच विधान सभाओं को अपने आप में समेटे चतरा लोकसभा का एक मात्र अनारक्षित विधान सभा पलामू जिले का पांकी विधान सभा है. इन पांच विधान सभाओं पर आज के दिन सिमरिया विधान सभा में भाजपा के किशुन कुमार दास, चतरा विधान सभा से राजद कोटे से मंत्री सत्यानंद भोक्ता, मनीका विधान सभा सीट से कांग्रेस के रामचन्द्र सिंह, लातेहार विधान सभा से झामुमो के वैधनाथ राम, जबकि पांकी विधान सभा से भाजपा के शशिभूषण कुशवाहा विधायक हैं.
धीरज कुमार साहू के मैदान में उतरते ही सिमट गया था जीत का फासला
यदि विधान सभा की मौजूदा ताकत के हिसाब से देखें तो पांच में से दो विधान सभाओं पर भाजपा, एक-एक पर राजद, झाममो और कांग्रेस का कब्जा है. लेकिन चतरा लोकसभा सीट पर वर्ष 2014 से भाजपा का कब्जा है. वर्ष 2014 में सुनील कुमार सिंह ने झारखंड विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष इंदरसिंह नामधारी से इस लोकसभा की जो कमान संभाली है, आज तक वह उसे बरकरार रखे हुए हैं. इस बीच उनके खिलाफ वर्ष 2009 में कांग्रेस के मनोज कुमार यादव तो वर्ष 2014 में कांग्रेस के ही धीरज कुमार साहू ने मोर्चा संभाला, लेकिन दोनों ही बार जीत का सेहरा सुनील कुमार सिंह के माथे बंधी. हालांकि जहां 2019 में जीत की मार्जिन करीबन चार लाख की थी, धीरज साहू के सामने आते ही वह फासला सिमट कर करीबन डेढ़ लाख रह गया.
बदली बदली नजर आ रही है चतरा की फिजा
ध्यान रहे कि इस बार चतरा की फिजा कुछ बदली बदली सी नजर आने लगी है. हवा का रुख विपरीत दिशा में जाता दिख रहा है. यदि मुखर नहीं भी कहें तो भी, दबी जुबान से विरोध के स्वर तेज होते नजर आ रहे हैं. हर किसी की अपनी शिकायत है, कुछ शिकायतों का संबंध सियासत से है तो कुछ का सीधा संबंध चतरा लोकसभा की पुरातन और अनन्त समस्याओं को लेकर है. किसी का दावा है कि सारे वादे हवा हवाई साबित हुए, तो कुछ लोग इस बात की शिकायत करते नजर आ रहे हैं कि साहेब तो कभी दर्शन ही नहीं देते, जीतने के बाद उनका दर्शन भी दुर्लभ हो चुका है. वादों और उन वादों का जमीनी शक्ल लेना तो दूर की बात है. हालांकि अभी से यह कहना मुश्किल है कि यह नाराजगी आगे जाकर और भी घनिभूत होती है या अंतिम समय में मान-मनौव्वल के बाद इसकी भरपाई कर ली जायेगी, भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने ही कार्यकर्ताओं को साथ लाने की होगी.