रांची(RANCHI): राजनीति में वक्त कब किस करवट बैठ जाये, यह बड़े-बड़े सियासी सुरमाओं के लिए भी आकलन करना मुश्किल हो जाता है. सियासत के असली जादूगर इन प्यादों को ताश के पत्तों के समान फेंटते रहते हैं, कब और कहां किस प्यादे को आगे करना है और कब किसे शहादत के लिए छोड़ देना है, सब कुछ बदलते हालात और सामाजिक समीकरण पर निर्भर करता है.
हालांकि इसी कसरत में कई बार प्यादों को भी यह भ्रम हो जाता है कि वह तो इस सियासत के मास्टर कार्ड है और उनके बगैर राजनीति के इस खेल में एक खालीपन पैदा हो जायेगा. लेकिन हवा का एक तेज झोंका उनकी सारी हसरतों पर पानी फेर जाता है. अचानक से उन्हे यह भान होता है कि उनके पैर के नीचे तो जमीन ही नहीं है. वह तो नाहक ही अपने आप को सर्वे सर्वा मानने का भ्रम पाल बैठे थें.
नहीं तो क्या कारण है कि जिस रघुवर दास को आदिवासी बहुल झारखंड राज्य की कमान सौंपते समय भाजपा प्रवक्ताओं और मीडिया के एक हिस्से के द्वारा पीएम मोदी का मास्टर स्ट्रोक के रुप में प्रचारित किया गया था, यह दावा किया गया था कि तमाम सामाजिक समीकरणों को उलट पुलट कर राजनीतिक नेतृत्व सामने लाने का मादा सिर्फ और सिर्फ मोदी रखते हैं. यह मोदी ही हैं, जो आदिवासी बहुल झारखंड में गैर आदिवासी, जाट बहुल हरियाणा में गैर जाट और मराठा-पिछड़ा बहुल महाराष्ट्र में ब्राह्मण चेहरा सामने लाने का मादा रखते हैं. उनके करिश्माई व्यक्तित्व के आगे जाति की दीवार कोई मायने नहीं रखती. झारखंड हो या महाराष्ट्र या फिर हरियाणा चेहरा तो सिर्फ और सिर्फ मोदी है, और जो सीएम चेहरे हैं, उनकी भूमिका एक प्यादे से ज्यादा नहीं है. जब तक पीएम मोदी का जलबा कायम है, तब तक इन प्यादों का सियासी करिश्मा भी अपना जलबा विखेरता रहेगा.
मराठा बहुल महाराष्ट्र में ब्राह्मण चेहरा
दावा किया गया था कि पीएम मोदी का यह मास्ट्रर स्ट्रोक उन कथित सामाजिक न्याय का राग अलापने वाली जातिवादी और क्षेत्रीय पार्टियों के लिए एक नजीर है, जो सिर्फ जाति का विद्वेष फैला कर समाज में नफरत की आग लगाते रहते हैं, लेकिन इस सोच को पहला धक्का तब लगा जब महाराष्ट्र में पीएम मोदी का मास्टर स्ट्रोक माना जाना वाला देवेन्द्र फडणवीस को एकनाथ शिंदे जैसे मराठा के नेतृत्व में उपमुख्यमंत्री की कुर्सी संभालनी पड़ी. और दूसरा मास्टर स्ट्रोक रघुवर दास सीएम रहते हुए भी अपनी सीट नहीं बचा सकें. ले देकर मनोहर लाल खट्टर आज भी जाट बहुल हरियाणा में अपनी कुर्सी को थामे हुए हैं, हालांकि अब जो वहां के सियासी समीकरण बन रहे हैं, उस हालत में उनकी कुर्सी के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता.
यूपी की राजनीति में योगी आदित्यनाथ का उदय भी कम दिलचस्प नहीं
हम यूपी के बारे में भी विचार कर सकते हैं, क्योंकि यूपी जैसे राज्य में किसी ठाकुर का सीएम की कुर्सी पर विराजमान होना भी कम आश्चर्जनक नहीं है, लेकिन हमें यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 2017 के विधान सभा चुनाव के पहले तक योगी आदित्यनाथ यूपी की सियासत में सीएम फेस की रेस में दूर दूर तक शामिल नहीं थें, पूरा का पूरा चुनाव पिछड़ी जाति से आने वाले केशव प्रसाद मोर्या को आगे कर लड़ा गया था. दावा तो यह भी किया जाता है कि खुद योगी खुद पीएम मोदी की पहली दूसरी और तीसरी पसंद में नहीं थे, लेकिन ऐन वक्त पर योगी आदित्यनाथ के लिए संघ की बैटिंग शुरु हो गयी और थक हार कर पीएम मोदी और केशव प्रसाद मौर्या को अपना पैर पीछे खिंचना पड़ा. लेकिन उसके बाद भी योगी और केशव प्रसाद मौर्या के बीच सियासी जंग जारी रहा. और इसकी परिणति विधान सभा चुनाव में उनकी हार के रुप में हुई. केशव प्रसाद जैसे पिछड़ा नेता अपनी ही सीट को बचाने में कामयाब नहीं रखा, दावा किया गया था कि केशव प्रसाद मौर्या की हार योगी की सियासत का एक नमुना था.
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योगी आदित्यनाथ के सामने आते ही गिरा भाजपा का ग्राफ
लेकिन यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस केशव प्रसाद मोर्या के चहरे पर वर्ष 2017 में भाजपा को 403 सदस्यों वाले सदन में 312 सीटें आई थी, सपा 47 सीट और बसपा महज 19 पर सिमट गयी थी, जैसे ही वर्ष 2022 में योगी के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ा गया, भाजपा के सीटों में अभूतपूर्व गिरावट आयी. और वह 255 पर सिमट गयी. जबकि सपा एक लम्बी छलांग लगाते हुए 111 का आंकड़ा पार कर गया, यदि इसमें उसके सहयोगियों को भी जोड़ दें तो, उसके हिस्से कुल 125 सीट आई. यह हालत तब रही जब खु पीएम मोदी ने मोर्चा संभाल रखा था और बार बार अपने को अति पिछड़ा का बेटा बता कर भाजपा के पक्ष में पिछड़ों की गोलबंदी करते नजर आ रहे थें. लेकिन जब पीएम मोदी का पिछड़ा चेहरा नहीं होगा या फिर वह अपने उतार पर होगा, तब योगी की कल्पना की जा सकती है. इसमें कोई संशय नहीं है कि पिछले दिनों में सपा लगातार अपनी जमीन को वापस लेता हुआ दिख रहा है.
रघुवर की विदाई के साथ ही फुस्स साबित हुआ मास्ट्रर स्ट्रोक का दावा
लेकिन हम यहां बात करे थें पूर्व सीएम रघुवर दास की, जिन्हे बहुत कायदे से झारखंड की राजनीति से दूर कर बाबूलाल के हाथों में पूरी भाजपा की कमान सौंप दी गयी है. यानी भाजपा ने यह स्वीकार कर लिया है कि जिस रघुवर दास और दूसरे चेहरों को मोदी का मास्टर स्ट्रोक बताया गया था, वह एक बेहद कमजोर सियासी चाल था. और उस भूल की भरपाई बाबूलाल को वापस ला कर करने की कोशिश की जा रही है.
लेकिन क्या यह प्रयोग भी इतना आसान है, क्या रघुवर दास इतनी सहजता से झारखंड की सियासत से दूर होने जा रहे हैं. क्या वह वाकई झारखंड में जारी उठा पटक से अपने आप को दूर रखेंगे, या उनकी एक नजर भुनेश्वर में बैठ कर भी राजधानी रांची पर बनी रहेगी. जानकारों का दावा है कि जितना यह आसान दिख रहा है, उतना सरल यह है नहीं, निश्चित रुप से अपनी पहुंच और पकड़ के भरोसे रघुवर झारखंड की सियासत में दूर रहकर भी अपनी उपस्थिति को दर्ज करवाते रहेंगे. हालांकि यह कितना प्रभावी और किस सीमा तक होगा, उसका आकलन फिलहाल संभव नहीं है, लेकिन इतना निश्चित है कि खुद रघुवर भी सियासत में उठ रहे तूफान और उसकी हलचलों पर नजर बनाये हुए हैं.