TNP DESK- कभी पंजाब की गलियों में ‘कुंवारी हूं, चमारी हूं और तुम्हारी हूं’ के नारे साथ हुंकार लगाते एक ग्रामीण परिवेश की युवती में कांशीराम ने भारत के दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का भविष्य देखा था. तब कांशीराम बीएस-फोर और वामसेफ के जरिये बहुजन क्रांति की बुनियाद तैयार कर रहे थें, बाबा साहेब अम्बेडर ने सामाजिक समानता और राजनीतिक सहभागिता की लड़ाई को सिंहनाद किया था, कांशीराम उस सपने को सियासत की जमीन पर उतारने का संघर्ष कर रहे थें. हालांकि कांशीराम से अपनी पहली मुलाकात के पहले तक मायावती का सपना डीएम कर एक आलिशान जिंदगी की शुरुआत करने की थी, लेकिन पहली ही मुलाकात में कांशीराम ने मायावती की अंदर की जिजीविषा को पहचान लिया, और तब कांशीराम ने मायावती को डीएम जैसा छोटा सपना देखना छोड़ कर शासक बनने का संकल्प दिलवाया था.
दलितों को चन्द्रशेखर रावण की तरह की कभी मायावती में दिखता था अपना भविष्य
इस पहली मुलाकात से ही मायावती की जिंदगी बदल गयी, और आईएस की तैयारी छोड़कर मायावती साइकिल पर सवार होकर दलितों की झोपड़ियों की सैर करने लगी, यह कुछ ऐसा ही था, जैसा की आज चन्द्रशेखर रावण कर रहे हैं और कांशीराम की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई, मायावती एक नहीं दो-दो बार उतरप्रदेश जैसे राज्य का ना सिर्फ सीएम बनने में सफल हुई, बल्कि आज भी कानून व्यवस्था के सवाल पर मायावती के स्टैंड को लोग याद करते हैं, जिस गुंडाराज की समाप्ति का दावा आज योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं, मायावती ने अपने शासनकाल में यूपी का गुंडा की उपाधि धारण कर चुके राजा भैया को जेल के सीखचों के पीछे भेजने में संकोच नहीं किया था. हालांकि तब इस गुंडा राज्य पर इस प्रहार को मायावती का उतावला पन माना गया था. लेकिन इस एक फैसले के साथ ही समाज के एक बड़े तबके में मायावती का जलबा कायम हो गया था. मायावती अपने समर्थक समूहों के बीच यह संदेश देने में सफल रही थी कि सत्ता ही आपका सम्मान है, और इस सत्ता को बचा कर ही दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज अपने हिस्से की खुशहाली पर कब्जा कर सकता है.
मायावती की यह खामोशी समर्थकों को भी हैरान कर रही
यह मायावती ही थी जिसमें मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता से टकराने का हौसला था, और जिसके बाद मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गये जयश्रीराम का नारा आया था. हालांकि बाद के दिनों में गेस्ट हाउस कांड भी हुआ, और यह दोस्ती एक दुश्मनी में बदल गयी. लेकिन इतना तय है कि मायावती एक साथ भाजपा और मुलायम सिंह यादव जैसे मजबूत विपक्ष के बीच भी सत्ता की सीढ़ियां चढ़ती चली गयी. लेकिन मोदी अमित शाह के इस नयी भाजपा के उदय के बाद मायावती की खामोशी उनके समर्थकों को भी हैरान कर रही है. हालांकि इस बीच 2019 में मायावती ने जरुर एक बार भतीजे अखिलेश के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा और इसके बाद बसपा के हिस्से 10 सांसद भी आयें, जबकि इसके विपरीत सपा को महज पांच सीटों पर सिमटना पड़ा, बावजूद इसके मायावती ने यह कह कर इस दोस्ती को विराम दे दिया कि इस समझौते से सिर्फ बसपा का वोट सपा में हस्तांतरित हुआ, सपा अपना वोट बसपा उम्मीदवारों को हस्तांतरित करवाने में असफल रही. और उसके बाद विधान सभा चुनाव दोनों पार्टियों की रहा जूदा हो गयी, और नतीजा यह रहा कि बसपा महज एक सीट पर सिमट गयी. जबकि इसके विपरीत सपा की सीटों में जबरदस्त उछाल आया.
इस अकेला चलो राग के पीछे क्या कोई दवाब
मायावती के इस फैसले के साथ ही सियासी गलियारों में यह सवाल उमड़ने लगा कि मायावती के इस अकेला चलो राग के पीछे क्या कोई दवाब है, क्या मायावती पर जानबूझ कर अपने फैसलों से बसपा को मिटाने पर तूली हुई है, और वह ऐसा कर एक विशेष राजनीतिक दल को वाक ओवर देने की रणनीति पर काम कर रही है. अब जब एक बार फिर से मायावती ने दानिश अली को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखलाया तो यह सवाल फिर से घनिभूत होने लगा है.
सवाल यह है कि दानिश अली को किस जुर्म की सजा दी जा रही है. क्या दानिश अली का जुर्म यह है कि भरी संसद में जब उनका और मुस्लिम समाज का अपमान किया गया, तब राहुल गांधी के उनके घर पहुंच गये, या फिर महुआ मोईत्रा के पीछे जिस तरह से दानिश अली खड़े आये, यह गुनाह था, अब जब दानिश अली को पार्टी से निकालने का फरमान जारी हो चुका है, यह ध्वनी प्रतिध्वनित हो रही है कि दानिश अली के खिलाफ संसद में जो जहर बोला गया था, मायावती अब उसी जहर पर अपनी मुहर लगा चुकी है. तब क्या यह माना जाय कि दानिश अली को पार्टी से निकालने का यह फैसला भी मायावती का खुद का फैसला नहीं है, और इस फैसले पर हस्ताक्षर भले ही बहन मायावती की हो, लेकिन इस फैसले को लिखा दिल्ली में गया है.
मायावती के सत्तारोहण के पीछे मुस्लिम समाज की भूमिका
यहां याद रखने की जरुरत है कि मायावती सिर्फ दलितों के वोट से सत्ता की सवारी नहीं करती रही है, उनके पीछे यूपी का मुस्लिम समाज भी चट्टान की तरह ख़ड़ा रहा है. बावजूद इसके आज मायावती को अल्पसंख्यक मतदाताओं की संवेदनाओं से कोई मतलब नहीं दिखता, कायदे से होना तो यह चाहिए था कि बहन मायावती दानिश अली के सवाल को यूपी की सड़कों पर उठाती, तब उनके साथ सिर्फ मुस्लिम ही खड़े नहीं होते, बल्कि देश का हर न्याय पंसद नागरिक साथ खड़ा नजर आता, लेकिन मायवती तो उल्टी गंगा बहाती नजर आ रही है.
इस फैसले से लगता ही नहीं कि वह यूपी की सियासत में अब कोई अपनी भूमिका देख रही है. और इसके साथ ही जिस तरीके से आकाश आनन्द की ताजपोशी की गयी. वह भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है, क्या मान्यवर कांशीराम ने इसी बसपा का सपना देखा था. आकाश आनन्द की ताजापोशी के विचार करने के पहले हमें मायावती के उस एलान पर भी विचार करना चाहिए, जब मायावती ने दावा किया था कि उनकी सियासी बारिश उनके परिवार से नहीं होगा, उनकी जाति से नहीं होगा, आखिर मायावती इतनी बदल क्यों गयी, क्या आज कांशीराम जिंदा होते, तब भी मायावती यही फैसला लेती.
मायावती का सियासी और वैचारिक भटकाव
मायावती के इस सियासी बिखराव और वैचारिक भटकाव के बाद एक नया दलित विमर्श शुरु होता नजर आ रहा है. सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि जिस चन्द्रशेखर रावण को कभी मायावती का सियासी उत्तराधिकारी माना जा रहा था, मायावती को इस रावण में क्या खोट नजर आया, और क्या चन्द्रशेखर रावण के सामने आकाश आनन्द अपना पैर जमा पायेंगे. चन्द्रशेखर रावण का जो स्टाइल ऑफ फंक्शनिंग है, आकाश तो उसमें कहीं टिकते नजर नहीं आते. निश्चित रुप से मायावती का यह राजनीतिक पराभव दलित अस्मिता और पहचान के संघर्ष के लिए एक बड़ा सदमा है. और इसकी वजह क्या है, इसका बेहतर जवाब तो शायद वर्षों बाद मिले. लेकिन इतना साफ है कि बहन मायावती पर किसी ना किसी का कोई दवाब जरुर है. और वह इस दवाब को झेलने की स्थिति में नहीं है.
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