रांची(RANCHI) 2019 विधान सभा चुनाव में पीएम मोदी की आंधी में मिली अप्रत्याशित जीत के बाद भाजपा के अन्दर यह मंथन चलने लगा था कि झारखंड को अब आदिवासी बहुल टैग से बाहर निकालना है, और आगे की राजनीति में गैर आदिवासी समूहों की भागीदारी तेज करनी है. जिसके बाद एक सोची समझी रणनीति के तहत गैर झारखंडी चेहरा रघुवर दास को आगे किया गया, तब कई रणनीतिकारों ने भाजपा के इस दांव को झारखंड की राजनीति का एक युगांतकारी परिघटना करार दिया था.
असफल हुआ भाजपा का मास्टर स्ट्रोक
इसे अमित शाह और पीएम मोदी का मास्ट्रर स्ट्रोक करार दिया गया था, भाजपा ने दावा किया था कि वह कभी भी पॉपुलर पॉलिटिक्स नहीं करती, और यही कारण है कि वह आदिवासी बहुल झारखंड में वैश्य, मराठा बहुल महाराष्ट्र में ब्राह्मण और जाट बहुल हरियाणा में वैश्य पर अपना दांव लगाने का साहस दिखलाती है, हालांकि तब भी भाजपा ने अपने परंपरागत आधार वोट बैंक को सामने रख कर ही चेहरों का चयन किया था, और बेहद राजनीतिक चतुराई के साथ हिन्दुत्व की चासनी में ब्राह्मण-बनिया की अपनी पंरपरागत राजनीति को साधा था, लेकिन प्रचंड जनमत के बावजूद वह ब्राह्मण-बनिया रणनीति से आगे बढ़कर दूसरे वंचित जातियों को सत्ता के शीर्ष शिखर पर पहुंचाने का जोखिम को उठाने को तैयार नहीं हुई.
भाजपा को हुआ अपनी भूल का एहसास
लेकिन मात्र पांच वर्षों के अन्दर अन्दर ही भाजपा को अपनी भूल का एहसास हो गया, रधुवर दास झारखंड की पेचीदा राजनीति को संभालने में पूरी तरह नाकामयाब रहें, खुद अपनी सीट भी नहीं बचा सकें, ठीक यही हाल महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीश के साथ हुआ, हालत यह है कि आज उन्हे एक मराठा सीएम की कैबिनेट में मन मार कर डिप्टी सीएम की हैसियत में काम करना पड़ रहा है. यह कोई त्याग तपस्या का नहीं है, जमीनी राजनीति की सच्चाई है, जिसका एहसास भाजपा को अपने प्रचंड बहुमत के बीच नहीं हो रहा था.
डोमिसाइल मैन की वापसी
भाजपा की राजनीतिक विवशता का आलम यह है कि उसे उस बाबूलाल को पार्टी में पुनर्वापसी करवानी पड़ी है, जिसे डोमिसाइल विस्फोट के बाद हिकारत भरी नजरों से किनारा किया गया था, ध्यान रहे कि यह वही बाबूलाल हैं जिन्होंने पहली बार झारखंड में डोमिसाइल का तीर छोड़ा था, बाबूलाल के इस कदम के साथ ही भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व बाबूलाल से सतर्क हो गया था, और बड़े ही सलीके से बाबूलाल के पर कतरे की कवायद की गयी थी, लेकिन झारखंड की राजनीति में जिस डोमिसाइल की अलख बाबूलाल ने जलाई थी, आज भी उसकी तपीश कम नहीं हुई, बल्कि दिन पर दिन उसकी आंच और भी तेज होती नजर आ रही है, इसके साथ ही भाजपा के उपर डोमिसाइल विरोधी होने का पट्टा स्थाई रुप से चिपक चुका है.
क्या इस छवि से भाजपा को बाहर निकालने में कामयाब होंगे बाबूलाल?
भाजपा के उपर चिपक चुके इस डोमिसाइल और खतियान विरोधी स्थायी पट्टे को उतारने का साहस बाबूलाल से बेहतर आज के दिन भाजपा का और कोई दूसरा नेता नहीं कर सकता. क्योंकि डोमिसाइल हो या 1932 का खतियान, इसके जनक बाबूलाल ही हैं. साफ है कि भाजपा के लिए अब इसकी काट भी उन्ही को खोजनी होगी. इसी डोमिसाइल के तीर के बाद भाजपा से गैर झारखंडी समूहों की दूरी बनी थी. डोमिसाइल मैन को इसका उपचार ढुंढ़ना होगा, लेकिन फिर वही सवाल क्या भाजपा बाबूलाल को झारखंड की राजनीति को उनके अनुसार हांकने की अनुमति देगी? क्या वह ब्राह्मण-बनिया राजनीति से आगे की रणनीति पर चलने को तैयार होगी? क्या वह सरना धर्म कोड, पिछड़ों को आरक्षण विस्तार, जातीय जनगणना और 1932 के खतियान पर अपने नजरिये में किसी बदलाव को तैयार होगी?
डोमिसाइल मैन की वापसी से भाजपा को कितना लाभ?
चाहे जो ही लेकिन इतना तो साफ है कि बाबूलाल की ताजपोशी के साथ ही 2024 का मुकाबला दिलचस्प होने जा रहा है और अब यह लड़ाई दो संतालों के बीच की होगी. बाजी किसके हाथ जायेगा इस पर निर्भर करेगा कि सरना धर्म कोड, पिछड़ों को आरक्षण विस्तार, जातीय जनगणना और 1932 के खतियान के मुद्दे पर किसका नजरिया क्या होता है? यानी झारखंड में चुनाव तो इन्ही मुद्दों पर लड़ा जाना है. इसके बाहर के जो भी मुद्दे होंगे, वह महज एक प्रयोग होगा.
बाबूलाल की रणनीति में देखने को मिल रहा है बदलाव
हालांकि इस बार डोमिसाइल मैन की रणनीति में बदलाव दिखने को मिल रहा है, उनके द्वारा संताल में मिनी एनआरसी का मुद्दा को गरम करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन यह मुद्दा डोमिसाइल मैन के गले की हड्डी भी बन सकता है, संताल और कोल्हान की राजनीति में सरना धर्म कोड, खतियान आधारित नियोजन नीति से दूर हट किसी दूसरे मुद्दे पर ध्यान भटकाने का राजनीतिक प्रयोग बैक फायर भी कर सकता है.
संताल और कोल्हान से तय झारखंड की भावी राजनीति
यहां बता दें कि पिछले बार पिछले विधान सभा चुनाव में झामुमो-कांग्रेस ने संताल परगना की 18 में से 14 सीटों पर विजय पताका फहरायी थी, जबकि कोल्हान प्रमंडल में तो भाजपा का खाता तक नहीं खुला था. एनआरसी जैसे मुद्दे तब भी भाजपा की ओर से उछाले गये थें, तब भी बांग्लादेशी घुसपैठ को लेकर हवा बनाने की कोशिश की गयी थी, लेकिन परिणाम क्या निकला था, साफ है कि बाबूलाल को बदली जमीनी हकीकत में उन मुद्दों पर बात करनी होगी, जिसकी आज आग कोल्हान और संताल में लगी हुई है, उन्हे सरना धर्म कोड, खतियान आधारित नियोजन नीति, पिछड़ों का आरक्षण विस्तार पर सकारात्मक रुख अपनाना ही होगा. सिर्फ और सिर्फ एनआरसी पर सवार हो कर मैदान-ए-जंग में उतरना भारी पड़ सकता है.