TNP DESK- आरएसएस चीफ मोहन भागवत कई बार अपने बयानों से भाजपा को असहज स्थिति में डालते रहे हैं, इसकी एक बानगी तब भी मिली थी, जब बिहार सरकार के द्वारा जातीय जनगणना के आंकड़ों का सार्वजनिक किये जाने के बाद भाजपा के द्वारा हर दिन एक नया बयान सामने आ रहा था, उसी दौर में मोहन भागवत ने यह बयान देकर सनसनी फैला दी थी, कि जिन लोगों पर पिछले पांच सौ बरसों में जुल्म और कहर ढाया गया है, यदि वह आज सामने आकर अपना प्रतिकार दर्ज करवा रहे हैं तो इसमें परेशानी क्या है? उन पर जुल्म करने वाले कौन है? हमें यह सवाल अपने आप से पूछना चाहिए. इसके पहले भी वह हिन्दु समाज में उंच-नीच की सामाजिक खाई के लिए ब्राह्मणों को जिम्मेवार बता चुके हैं, हालांकि बाद में उन्होने सफाई देते हुए कहा था कि ब्राह्मण का मतलब किसी जाति से नहीं होता, लेकिन जानकारों ने मोहन भागवत के इस बयान को जलते जख्म पर महज एक मरहम माना.
पहले भी भाजपा को सीख देते रहे हैं मोहन भागवत
मोहन भावगत तब भी सुर्खियों में आये, जब आरएसएस की पत्रिका आर्गनाईजर में इस बात का दावा किया गया था कि अब भाजपा सिर्फ राममंदिर और पीएम मोदी के चेहरे पर चुनाव नहीं जीत सकती, उसे अपने क्षत्रपों पर भरोसा करना होगा, उनके चेहरों और स्थानीय मुद्दों को तरजीह देना होगा. हालांकि उनकी यह राजनीतिक सीख भाजपा आलकमान को हजम नहीं हुई. और इस सीख से ठीक विपरीत भाजपा आलाकमान के द्वारा मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनावों में स्थापित क्षत्रपों को किनारे कर सिर्फ मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने का फैसला किया गया. बात यहां तक हो गयी कि स्थानीय क्षत्रपों को पीएम मोदी की मौजूदगी में सार्वजनिक मंचों से भाषण देने का अवसर भी नहीं दिया जाने लगा. हालांकि बाद में जब अन्दर खाने विरोध के स्वर तेज होते नजर आयें, तो आलाकमान को यह डर सताने लगा कि कहीं यह दांव उलटा नहीं पड़ जाय और फिर आनन फानन में इन क्षत्रपों को मंच पर बुलाया जाने लगा, लेकिन बावजूद इसके चेहरा खुद मोदी बने हुए है. हालांकि कई सर्वेक्षणों से यह भी साफ हो चुका है कि जिस एंटी-इनकंबेंसी का हवाला देते हुए इन क्षत्रपों को किनारा लगाने की कोशिश की जा रही है, उससे ज्यादा एंटी-इनकंबेंसी खुद पीएम मोदी के प्रति है, हालिया सर्वेक्षणों में आज भी शिवराज सिंह चौहान बड़ी बढ़त के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी की पहली पसंद बताये जा रहे हैं. कुछ यही हालत वसुंधरा राजे सिंधिया की भी है. खुद रमण सिंह के खिलाफ भी कोई बड़ी एंटी-इनकंबेंसी नहीं है, हर जगह नाराजगी पीएम मोदी की नीतियों को लेकर दिखलाई पड़ रही है.
धार्मिक कट्टरता से किसी समाज का भला नहीं
अब इस बीच मोहन भावगत ने एक और सीख प्रदान किया है, विजयादशमी पर अपने संबोधन के दौरान उन्होंने बेहद साफ अल्फाज में कहा है कि धार्मिक कट्टरता से किसी भी समाज का कोई भला नहीं होने वाला, दुनिया में बढ़ती नफरत की मुख्य वजह यही धार्मिक उन्माद है, हमें किसी भी हालत में इस पर रोक लगाना होगा, उन्होंने यहां तक कहा कि सिर्फ चुनाव दर चुनाव को जीतने के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना खतरनाक रास्ता है. लेकिन सवाल यहां यह है कि इस रास्ते पर चल कौन रहा है. आज देश में हिन्दु मुसलमान का खेल कौन सी राजनीतिक पार्टी कर रही है.
मोहन भावगत के निशाने पर कौन?
हालांकि उनकी यह सीख किसके लिए था, यह एक अलग सवाल है. लेकिन मौजूदा सियासी हालात में राजनीतिक प्रयोजनों के लिए धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने का आरोप तो भाजपा पर ही लगता रहा है, तब क्या यह माना जाय कि मोहन भावगत एक बार फिर से पीएम मोदी और अमित शाह को नसीहत देने की कोशिश कर रहे हैं? और यदि यह नसीहत पीएम मोदी और अमित शाह के लिए ही है तो क्या भाजपा आलाकमान उस पर अमल करने का जहमत उठाने को तैयार है. क्योंकि यदि मोहन भागवत की सीख को भाजपा में इतनी ही तवज्जो दी जाती तो आज भाजपा के अन्दर स्थापित क्षत्रपों की हालत यह नहीं होती, वसुंधरा कोप भवन में नहीं जाती, शिवराज सिंह चौहान को तंज के अंदाज में अपनी रैलियों में यह नहीं कहना पड़ता कि भाईयों और बहनों आप एक बार फिर से नरेन्द्र भाई मोदी को पीएम के रुप में देखना चाहते हैं या नहीं.
यह सीख जिसके लिए भी हो, और सियासी दल इस पर विचार करें या नहीं, यह उनकी मर्जी, लेकिन इस सीख से कोई भी असहमत नहीं हो सकता कि धार्मिक उन्माद की राजनीति देश को गर्त की ओर ढकेल रहा है, और इसका परिणाम किसी भी हालत में शुभ नहीं होना है. शायद देश के एक बड़े बुजुर्ग के रुप में मोहन भागवत यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं.