Patna- केन्द्र की राजनीति में पीएम मोदी की धमक के बाद जिस एनडीए को बिते कल की राजनीति बतायी जा रही थी और इस बात का दावा किया जा रहा था कि एनडीए और कुछ नहीं विभिन्न क्षत्रपों के भाई-भतीजावाद और उनके भ्रष्टाचार को संजोनों का एक मंच मात्र है, इनका अस्तित्व अखंड और सशक्त भारत के निर्माण की राह में बाधा है. बड़े शान से महाराष्ट्र से लेकर पंजाब-बिहार में इसके बिखराव को पीएम मोदी की राजनीतिक शक्ति का परिचायक माना गया. इस बात का दावा किया गया कि मोदी की राजनीति भाजपा की उस पुरानी राजनीति से अलग राह चलने वाली है, जहां अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी की जोड़ी अपने राजनीतिक सहयोगियों का सम्मान करती थी, नीतियों के निर्माण से लेकर सत्ता से संचालन में उनका सुझाव मांगती और मानती थी.
मोदी अमित शाह की बदली हुई राजनीति
लेकिन इस बदली हुई राजनीति में यह माना गया कि यहां जो कुछ भी होगा मोदी अमित शाह की सोच से तय होगा, उससे इतर राय रखने वालों का राजनीतिक भविष्य समाप्त होना तय है, लेकिन 2019 से शुरु हुआ यह सोच 2023 आते आते दम तोड़ गया, कभी जिस एनडीए का एक अलग से संयोजक होता था, उसका अपना कॉमन मिनिमम प्रोग्राम हुआ करता था. जिसके बनैर तले भाजपा से विरोधी रुख रखने वाले दल भी इसी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत भाजपा के साथ गलबहियां डाले नजर आते थें, आज हालत यह है कि एनडीए के पास अपना कोई संयोजक नहीं है, उसकी कोई बैठक नहीं है, लेकिन जैसे ही विपक्षी दलों की एकजुटता की कवायद शुरु हुई, भाजपा को इस बात का एहसास हो चला कि मोदी अमित शाह को वह दौर अब समाप्त हो गया, अब यदि उसे आगे की राजनीति तैयार करनी है, तो एक बार फिर से अटल आडवाणी के उस फार्मूले को अपनाना होगा और विभिन्न क्षत्रपों को अपने पाले में लाना होगा.
एनडीए के भूत को जिंदा करने की कवायद
और इसी राजनीतिक मजबूरी के साथ एक बार फिर से एनडीए के उस भूत को जिंदा करने की कोशिश की जा रही है, जो मोदी अमित शाह के राजनीतिक उफान में दफन किया जा चुका था, लेकिन वाजयेपी और आडवाणी का राजनीतिक मिजाज कुछ अलग था, वहां अपने विरोधियों को सुनने की सहनशीलता थी, और मदभेदों को दरकिनार कर आगे बढ़ने का राजनीतिक कौशल था. गठबंधन की राजनीति का यह हुनर पीएम मोदी और अमित शाह के पास दूर दूर तक नजर नहीं आता. भाजपा की इस नई सोच में गठबंधन का मतलब जी हुजूरी और चाटुकारिता है.
गठबंधन की राजनीति का हुनर अभी इस जोड़ी को सिखना है, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी पर भाजपा की राजनीति को इसी चश्में से देखा जा सकता है. भाजपा आज भी अपने वजूद के आगे इनके राजनीतिक कद को उचित सम्मान देने को तैयार नहीं है, जिस प्रकार से उपेन्द्र कुशवाहा ने महागठबंधन के साथ अपने रिस्ते को दांव पर लगा दिया, उसके बाद यदि एनडीए का दरवाजा भी उनके लिए बंद कर दिया जाता है तो उनका राजनीति वनवास तय है.
कभी चिराग और मुकेश सहनी की भी हुई थी फजीहत
ध्यान यह भी रखना होगा कि इसी भाजपा ने मुकेश सहनी की फजीहत की थी, विधायकों को अपने पाले में कर सहनी को राजनीतिक औकात दिखलायी थी, सहनी का कुसूर मात्र इतना था कि यूपी चुनाव में उसने अपने उम्मीदवार उतारे थें, क्या वाजपेयी और आडवाणी की जोड़ी ऐसा करने का सोच भी सकती थी, वहां इसे काफी सहजता के साथ स्वीकार किया जाता, बात यही खत्म नहीं होती, चिराग का बंगला खाली करवाते वक्त क्या-क्या ड्रामे नहीं हुए, क्या उनके समर्थक उस वक्त उनकी आखों के आंसू को भूल बैठे हैं. क्या यह सत्य नहीं है कि भाजपा ने जदयू के विधायकों को कई राज्यों में तोड़ा, अकाली दल से लेकर शिव सेना को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ा और पूरे देश को भाजपामय करने की सोच पाली गयी, लेकिन आज वही भाजपा मात्र 6 राज्यों में सिमट गयी, इसमें भी एमपी और महाराष्ट्र में सरकार कैसे बनी जगजाहीर है. आम बोचचाल की भाषा में इसे उधार का सिन्दुर कहा जाता है, जिसका हश्र वह कर्नाटक में देख चुकी है, वहां भी इसी प्रकार से विधायकों को तोड़ कर सरकार बनायी गयी थी, लेकिन जब फैसला जनता के हाथ आया, तब सारी राजनीतिक चतुराई धवस्त हो गयी.
क्या होगी चिराग की राजनीति
अब सवाल यह है कि चिराग का आगे की राजनीति क्या होगी, आखिर वह क्यों आमंत्रण पत्र हाथ में लेकर भी इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि एनडीए की बैठक में शामिल होने के पहले वह इस पर विचार करेंगे. दरअसल पेंच उनके चाचा पशुपति नाथ पारस फंसा चुके हैं, जैसे ही उन्हे यह खबर मिली कि चिराग हाजीपुर सीट देने की बात की जा रही है, उन्होंने बिना देरी यह घोषणा कर दी कि वह किसी भी कीमत पर हाजीपुर सीट के साथ समझौता करने को तैयार नहीं है, इसके साथ ही वह पांच सीटों से कम पर कोई समझौता नहीं करने वाले हैं, और यहीं से चिराग को खतरे की घंटी का एहसास हो गया, जब तक भाजपा इन दोनों के बीच का विवाद को खत्म नहीं करती, इसका चिराग की इंट्री फंसी नजर आती है.