रांची(RANCHI)- आज पूरे देश की निगाह पटना में 23 जून को आयोजित होने वाली विपक्षी दलों की बैठक पर लगी हुई है, माना जा रहा है कि पटना इस बार फिर से एक इतिहास बनायेगा और प्रधानमंत्री मोदी के रथ को अंतिम रुप से रोकने की रणनीति इसी बिहार की सरजमीन पर तैयार की जायेगी. अंतिम बार इसलिए कि इसके पहले भी बिहार सहित विभिन्न राज्यों में प्रधानमंत्री पीएम मोदी के रथ को सफलता पूर्वक रोका गया है, चाहे वह बिहार का पिछला विधान सभा का चुनाव ही क्यों नहीं हो, तब नीतीश कुमार भी उसी एनडीए का हिस्सा थें, और पूरे बिहार में मोदी की गर्जना हो रही थी, और उनके सामने अभिमन्यू की तरह अकेला तेजस्वी खड़े थें, नतीजा क्या आया, प्रधानमंत्री मोदी और नीतीश कुमार की युगलबंदी के बावजूद भी तेजस्वी ने अपना परचम लहराया और सबसे बड़ी पार्टी बन कर सामने आने में सफलता प्राप्त कर ली, बल्कि यह कहा जाय कि सत्ता से महज चंद कदम ही पीछे रुकें. हालांकि कई सीटों पर धांधली के आरोप भी लगें.
बंगाल में ममता बनर्जी यह करिश्मा दिखा ला चुकी
इसके पहले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी यह करिश्मा दिखा ला चुकी हैं. याद कीजिये पश्चिम बंगाल का वह चुनावी दृश्य जब प्रधानमंत्री मोदी दीदी ओ दीदी कह कर ममता को चिढ़ा रहे थें, ममता बनर्जी के सफाये के दावे किये जा रहे थें, लेकिन रिजल्ट क्या आया, ममता बनर्जी की शानदार वापसी हुई, और स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा में पतझड़ का दौर शुरु हो गया, एक एक उसके सभी नेताओं की तृणमूल में वापसी की शुरुआत हो गयी.
कर्नाटक चुनाव का चेहरा भी मोदी ही थें
अभी अभी हाल में ही कर्नाटक विधान सभा चुनाव में भी चेहरा तो मोदी ही थें, सभी को पीछे छोड़कर पीएम मोदी ही फ्रंट फुट पर खेल रहे थें, राहुल तो मुकाबले में भी नहीं थें. लेकिन यहां भी सिद्दारमैया और डीके ने अपना कमाल दिखाया और पीएम मोदी का ढोल नगाड़े के साथ बजाया जाने वाला कथित जादू बेअसर रहा. कई दूसरे राज्यों की भी यही कहानी है, लेकिन पटना की बैठक इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस बैठक में पीएम मोदी को अंतिम रुप से चुनौती देने की रणनीति तैयार की जाने वाली है. या इसके दावे किये जा रहे हैं.
कई दल जो इस बैठक में हिस्सा नहीं लेते दिख रहे हैं, उनकी भी अपनी रणनीति है
यहां यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन आया और कौन नहीं आया, महत्वपूर्ण यह होगा कि अपने अपने राज्य में मोदी रथ को रोकने पर अंतिम सहमति क्या बनती है. कई दल जो इस बैठक में हिस्सा नहीं लेते हुए भी दिख रहे हैं, उनकी भी भूमिका महत्वपूर्ण रहने वाली है. बैठक से दूर रहकर भी उनकी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है.
लेकिन झारखंड में क्या होने वाला है
लेकिन मूल सवाल यह है कि विपक्षी एकता की इस बैठक के बीच झारखंड में कांग्रेस की मंशा क्या है? क्या वह वाकई झारखंड में इस स्थिति में पहुंच गयी है कि बिना झामुमो की वैसाखी के वह चुनावी बैतरणी को पार करने का मादा रखती है? क्या कर्नाटक और हिमाचल की चुनावी जीत में उसके अन्दर इतना उत्साह भर दिया है कि वह झारखंड में अपनी सहयोगी झामुमो को ही आंख दिखाने की स्थिति में आ गई है? नहीं तो क्या कारण है कि पिछले लोकसभा में चुनाव में महज एक सीट पर जीत का पताका फहराने वाली कांग्रेस को आज यह महसूस होने लगा है कि वह नौ सीटों से कम पर समझौता नहीं करने वाली है. क्या झामुमो अपने जनाधार इस्तेमाल कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने के लिए करेगा? और क्यों करेगा?
2024 में कांग्रेस खुद नौ और झामुमो को चार पर सिमटाना चाहती है
यहां बता दें कि खबरें आ रही है कि 2024 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस झारखंड में कम से कम नौ सीटों पर अपना भाग्य आजमाना चाहती है, जबकि झामुमो के हिस्से महज चार सीट और राजद को एक पर सिमटाना चाहती है. दावा किया जा रहा है कि कांग्रेस हजारीबाग, पश्चिम सिंहभूम, चतरा, गोड्डा, धनबाद, रांची, खूंटी, लोहरदगा और कोडरमा अपने हिस्से में चाहती है. हालांकि अभी तक इसकी औपचारिक मांग नहीं की गयी है, लेकिन यदि कांग्रेस यह ख्बाब देख रही तो यह झामुमो के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि यह एक निर्विवाद सत्य है कि झारखंड में कांग्रेस का वजूद ही झामुमो पर टीका है, यदि कांग्रेस इसे कर्नाटक और हिमाचल मानने की भूल करती है, तो उसे इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा.