Ranchi-हेमंत की विदाई के बाद जैसे ही चंपाई सोरेन के नेतृत्व में नयी सरकार की ताजपोशी की शुरुआत हुई, झारखंड के सियासी गलियारों में बगावत के बुलबुले फुटने की शुरुआत हो गयी. झामुमो हो या फिर कांग्रेस विधायकों के बीच असंतोष की ज्वालामुखी धधकने लगी. हर विधायक की नजर मंत्री की कुर्सी पर थी. राजधानी रांची से दिल्ली तक कांग्रेसी विधायक अपने-अपने दुखों की पोटली लेकर घुमते नजर आने लगें. बजट सत्र के पहले विधायकों के इस तेवर को देख कर कांग्रेस आलाकमान की नींद उड़ गयी. आनन फानन में रणनीतिकारों को इन असंतुष्ट विधायकों का मान मनौबल में लगाया गया और आखिरकर किसी तरह अंसतोष की इस आग को मुट्ठी पर सांत्वाना के बालू तले दबाने में कामयाबी हासिल करने के दावे किये गयें. और इस कथित कामयाबी पर झारखंड से लेकर दिल्ली तक एक राहत की सांस ली गयी. लेकिन अभी कांग्रेस आलाकमान और उनके रणनीतिकार इस कामयाबी का ब्योरा ही पेश कर रहे थें कि अपने लम्बे सियासी वनवास के बाद भाजपा का दामन थाम चुके बाबूलाल झामुमो के अभेद किले से कांग्रेस के इकलौते सांसद गीता कोड़ा को ले उड़ें. और इस ऑपरेशन को इतनी चतुराई के साथ अंजाम दिया गया कि जब तक गीता कोड़ा भाजपा कार्यालय में कमल का पट्टा नहीं बांधी, मीडिया के मार्फत से इसकी तस्वीर बाहर नहीं आयी, कांग्रेस के रणनीतिकारों को 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले का बाबूलाल के इस मास्टर स्ट्रोक की भनक तक नहीं लगी.
मीर अहमद मीर और राजेश ठाकुर के सियासी कौशल पर उठने लगे सवाल
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर से लेकर प्रदेश प्रभारी गुलाम अहमद मीर सियासी सन्निपात की स्थिति में थें. इन दोनों की मौजदूगी में झारखंड कांग्रेस की मुट्ठी से एक के बाद एक रत्न बाहर खिसकते जा रहे हैं, एक तरफ विधायकों की नाराजगी और दूसरी तरफ काल्होन के उस किले में भाजपा की इंट्री जहां आज के दिन उसका एक भी विधायक नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस के लिए कमर तोड़ने की स्थिति थी, लेकिन सवाल यहां यह खड़ा होता है कि आखिर झारखंड कांग्रेस की यह दिशा और दशा क्यों बन गयी, राजेश ठाकुर ना तो अपने विधायकों के अंदर की नाराजगी पर लगाम लगाने में कामयाब रहें और ना ही प्रदेश प्रभारी के रुप में तैनात किये गये गुलाम अहमद मीर झारखंड की सियासी जमीन पर उनके सामने खड़ी चुनौतियों को समझ पायें. यहां सवाल सिर्फ कांग्रेसी विधायकों की नाराजगी और गीता कोड़ा का नहीं है, सवाल तो यह है कि मार्च में लोकसभा की डुगडुगी बजने के पहले पहले कहीं भाजपा किसी और ऑपेरशन को कामयाब नहीं बना दें. जिस तरफ कोल्हान में गीता को तोड़ कर लोकसभा चुनाव के पहले ही कांग्रेस को बचाव की मुद्रा में खड़ा कर दिया गया है, कहीं वही स्थिति राज्य के दूसरे कोने से भी सामने नहीं आयें, बड़ा सवाल तो उसी कोल्हान के जगनाथपुर से कांग्रेसी विधायक सोना राम सिंकू का भी है.
पश्चिमी सिंहभूम से इकलौते कांग्रेसी विधायक सोनाराम सिंकु भी थाम सकते हैं भाजपा का दामन
ध्यान रहे कि पश्चिमी सिंहभूम में एक मात्र कांग्रेसी विधायक सोनाराम सिंकु है, इनको सियासत में लाने का पूरा श्रेय मधु कोड़ा को जाता है. गीता कोड़ा को कांग्रेस के टिकट पर संसद भेजने के बाद जब जगन्नाथपुर की सीट खाली हुई तो मधु कोड़ा ने अपने ही एक करीबी सोनाराम को जगन्नाथपुर के सियासी अखाड़े में उतारने का मन बनाया, जिस पर कांग्रेस ने अपनी मुहर लगा दी, लेकिन तब किसने सोचा था कि यह आने वाले दिनों में यह मधु कोड़ा ही कांग्रेस को गच्चा देकर भाजपा के साथ चले जायेंगे, और आज कोड़ा दंपत्ति पंजे को बॉय बॉय कर चुकी है, क्या सोना राम सिंकु के सामने अपने सियासी भविष्य का सवाल उमड़ नहीं रहा होगा, और यदि सोना राम सिंकु कांग्रेस के साथ बने भी रहते हैं तो क्या कांग्रेस मधु कोड़ा की विदाई के बाद अपने दम पर सोना राम सिंकू को विधान सभा तक पहुंचाने का दम खम रखती है.
अब मधु कोड़ा से लोकतंत्र में लोकलाज की परिभाषा पढ़ेंगे सरयू राय
लेकिन इसके साथ ही एक बड़ा सवाल ‘मधु कोड़ा लूट कांड’ नामक पुस्तक की रचना करने वाले पूर्व भाजपा नेता सरयू राय का भी है. मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार को सुर्खियां में लाने का श्रेय सरयू राय को ही जाता है. पूर्व सीएम रघुवर दास से इनकी सियासी अदावत भी जग जाहिर है. इसी सियासी अदावत में सरयू ने ना सिर्फ पार्टी छोड़ी, बल्कि रघुवर दास को उन्ही के विधान सभा में पराजित कर एक इतिहास भी गढ़ दिया. दावा किया जाता है कि सरयू राय की वापसी को लेकर संवाद की प्रक्रिया भी जारी है. लेकिन अब जब की मधु कोड़ा दंपत्ति की उनसे पहले ही भाजपा में इंट्री हो चुकी है, क्या सरयू राय अब भी भाजपा के साथ जाना स्वीकार करेंगे? क्योंकि जिस मधु कोड़ा की कहानी को बांच-बांच कर सरयू राय झारखंड में भाजपा की सियासी जमीन को तैयार किया था, बदले सियासी हालात में आज वही मधु कोड़ा पूरे शान शौकत के साथ भाजपा की शोभा बढ़ा रहे हैं, तो क्या लोकतंत्र में लोकलाज की वकालत करने वाले सरयू राय के लिए भाजपा में वापसी उनके सामने कोई नैतिक संकट नहीं खड़ा करेगा. क्या सरयू राय अब बदले सियासी हालात में मधु कोड़ा से लोकतंत्र में लोकलाज की महिमा का पाठ मजूंर होगा. क्या सरयू राय की जमीर इसकी इजाजत देगी? हालांकि सियासत में कुछ भी अजूबा नहीं होता, अजूबा होना की सियासत में सफलता की पहली शर्त है, देखना होगा कि सरयू राय किस रास्ते चलना स्वीकार करते हैं.