Ranchi-विश्व प्रसिद्ध नाइजेरियन लेखक चिनुआ अचैबी ने कभी लिखा था कि “जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्यगाथाएँ गाई जाती रहेंगी” हालांकि चिनुआ ने अपना यह दर्द समकालीन चुनौतियों और सवालों से जुझने के दरम्यान लिपिबद्ध किया होगा. लेकिन आज जब हम इन शब्दों के पीछे छुपी पीड़ा का पड़ताल करने की कोशिश करते हैं तो अचानक हमारे जेहन में झारखंडी मिट्टी का एक 34 वर्षीय युवा को चेहरा सामने आ खड़ा होता है, जिसका नाम ही अंग्रेजों और दिकुओं में आंतक का पर्याय बन चुका था.
दोहरी लड़ाई लड़ रहा था यह आदि विद्रोही
दरअसल जबरा पहाड़िया जितनी बड़ी चुनौती अंग्रेजी सत्ता के लिए था, उसके बड़ी चुनौती जनजातीय समाज में लूट के पर्याय बन चुके दिकुओं की सत्ता के खिलाफ भी था. संथाल समाज में आदि विद्रोही के रुप में पहचान बना चुके इस युवा की लड़ाई दोहरी थी, एक तरफ वह अंग्रेज सत्ता का जुल्म और बर्बरता के खिलाफ आदिवासी समाज को एकजूट करने का प्रयत्न कर रहा था तो दूसरी ओर वह जनजातीय समाज में घूसपैठ कर चुके दिकुओं के खिलाफ भी समानान्तर लड़ाई लड़ रहा था, और इस दोहरी लड़ाई की कीमत उसे महज 34 वर्ष की बेहद छोटी सी उम्र में अपनी जिंदगी की कुर्बानी देकर चुकानी पड़ी.
भारतीय इतिहास के पन्ने से गायब रहा यह झारखंड का सितारा
यहां याद रहे कि भले ही भारतीय इतिहास में इस जनजातीय समाज को वह सम्मान नहीं दिया गया, जिसका की वह हकदार था, लेकिन जनजातीय समाज में उसके शौर्य की कथा गुंजती रही, लोक गीतों से लेकर लोककथाओं में वह अमर होता रहा, मादर-ए-वतन के लिए अपनी पहली कुर्बानी देने वाले तिलका मांझी को भले ही देश के इतिहासकारों ने हाशिये पर भी स्थान नहीं दिया, लेकिन साहित्य के एक कोने उसकी आग सुलगती रही. महान उपन्यासकार और लेखिका महाश्वेता देवी अपनी रचना ‘शालगिरर डाके’ में जबरा पहाड़िया की अनछुए पहलुओं को लिपिबद्ध करती है, तो राकेश कुमार सिंह अपनी पुस्तक "हुल पहाड़िया" में तिलका के संघर्ष और शहादत का एक-एक पन्ना खोलते हैं.
अंग्रेजी सत्ता और दिकुओं के जुल्म के खिलाफ बगावत का पहला स्वर
यहां याद रहे कि आम रुप से मादर-ए-वतन का पहला शहीद 1857 की क्रांति के महानायक मंगल पांडे को माना जाता है, और 1857 को ही भारतीय स्वंतत्रता का पहला विद्रोह के रुप में प्रस्तूत किया जाता है, लेकिन एक सच यह भी है कि 1857 से करीबन 80 वर्ष पहले संथाल की जमीन से एक तूफान खड़ा हुआ था, अंग्रेजी सत्ता और दिकूओं के जुल्म के खिलाफ बगावत का पहला स्वर फूटा था, और उस स्वर का नाम था जबरा पहाड़िया. 11जनवरी 1750 को बिहार के सुल्तानगंज स्थित तिलकपुर में पैदा हुए जबरा पहाड़िया को तिलका नाम अंग्रेजों ने दिया था. तिलका यानी गुस्सैल, या दिकुओं की भाषा में कहें तो खूंखार डाकू, इस छोटी से उम्र में ही जबरा ने आदिवासी समाज का जल जंगल और जमीन की लूट देखी, उसे यह समझते देर नहीं लगी कि यदि इस लूट पर विराम नहीं लगाया गया तो आदिवासी समाज के पास कुछ भी नहीं बचेगा, उसकी जल जंगल और जमीन सब कुछ अंग्रेज और दिकुओं के हाथ में होगा. दिकुओं और अंग्रेजी सत्ता का यह संयुक्त लूट आदिवासी समाज से सब कुछ छीन लेगा. और यहीं से शुरु होता है उसके संघर्ष की गाथा. उसे यह भी समझते भी देर नहीं लगी कि अंग्रजी सत्ता का इन दिकुओं के साथ एक समझौता हो चुका है, और यदि आदिवासी समाज को अपनी स्वतंत्रता बचाये रखनी है, तो उसे दोहरी लड़ाई लड़नी होगी, ना सिर्फ अंग्रेजों को भगाना होगा, बल्कि दिकुओं की लूट से भी आदिवासी समाज बचाने की चुनौती स्वीकार करनी होगी. लेकिन इसके साथ ही जबरा ने सभी जाति धर्म के लोगों को एक साथ खड़ा होने का आह्वान भी किया, कुल मिलाकर उसने अपनी ओर से संघर्ष का चरित्र राष्ट्रीय भावना के अनुरुप बनाये रखने की कोशिश की. एक सीमित क्षेत्र में ही सही भारत की मुक्ति का सपना देखा.
अंग्रेजों का खजाना लूट गरीबों में बांट कर बनायी रॉबिनहुड की छवि
बताया जाता है कि जब 1770 में इस इलाके में भीषण अकाल पड़ा, चारों तरफ हाहाकार की स्थिति मच गयी तो उसने अंग्रेजी खजाना को लूटकर गरीबों के बीच बांट दिया, और यही उसके संताल हुल की शुरुआत होती है. उसकी छवि एक रॉबिनहुड की बन गयी जो अमीरों को लूट कर गरीबों में बांटता था. सन 1784 आते आते जबरिया इतना आक्रमक हो चुका था कि उसने 13 जनवरी को तात्कालीन अंग्रेज कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ अपने जहरीले तीर से मार गिराया, दावा किया जाता है कि जब अगस्टस क्लीवलैंड’ का काफिला गुजर रहा था, उस वक्त वह एक तार के पेड़ पर बैठा था, और उसने अपना तीर उसी तार के पेड़ से चलाया था, तीर सीधा अगस्टस क्लीवलैंड’ के सीने में लगा और वह ढेर हो गया. तब किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि एक आदिवासी नौजवान सबसे जिले के कलक्टर को अपने तीर से मार गिरायेगा. और उसके बाद शुरु हुआ अंग्रेजी सत्ता का दमन का दौर. अंग्रेज अधिकारियों को सपने में भी सिर्फ तिलका का चेहरा दिखता था, और जिस बात की आशंका थी, वही हुआ, कहा जाता है कि तब कुछ गद्दारों की वजह से अंग्रेज तिलका मांझी का ठिकाना पाने में सफल रहें और 13 जनवरी 1785 का वह मनहूसदिन भी आया जब तिलका को चार चार घोड़ों में बांध कर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया और एक बरगद के पेड़ पर लटका कर उसे फांसी दे दी गयी. याद रहे कि उस पर कोई मुकदमा नहीं चला, कोई दलील नहीं सुनी गयी, सीधा और सीधा फांसी की सजा दी गयी.
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