रांची(RANCHI): जैसे-जैसे 2024 लोकसभा का महासमर नजदीक आता दिख रहा है, राजधानी रांची के गली-नुक्कड़ से लेकर चाय की दुकानों तक में इस बात की चर्चा तेज होने लगी है कि इस बार रांची लोकसभा क्षेत्र में इंडिया गठबंधन और भाजपा चेहरा कौन होगा? इस मुकाबला के महारथी कौन होंगे? क्या पुराने चेहरों के सहारे ही यह लड़ाई लड़ी जायेगी या अंतिम समय में दोनों ही खेमों की ओर से नये पहलवानों को उतार कर मुकाबला को दिलचस्प बनाया जायेगा?
संजय सेठ की वापसी मुश्किल
नये पहलवार की चर्चा इसलिए भी हो रही है, क्योंकि भाजपा के अन्दर से छन-छन कर जो खबरें बाहर आ रही है, उसके अनुसार इस बार संजय सेठ की वापसी मुश्किल है. कई दावेदारों के नाम उछल रहे हैं, जहां एक ओर नगर विधायक सीपी सिंह अपनी लम्बी राजनीतिक पारी की सम्मानपूर्ण विदाई की चाहत पाले हैं, तो वहीं अब संगठन की कमान संभाल रहे प्रदीप वर्मा भी अखाड़े में उतरने को बेचैन हैं.
प्रदीप वर्मा की दावेदारी मजबूत
हालांकि अब तक की जानकारी के अनुसार प्रदीप वर्मा की दावेदारी कुछ ज्यादा ही मजबूत मानी जा रही है, वह दिल्ली के साथ ही संघ की पसंद भी बताये जा रहे हैं. लेकिन संशय की यह स्थिति इंडिया गठबंधन को लेकर कुछ ज्यादा ही है. रांची लोकसभा में कांग्रेस का सबसे मजबूत चेहरा माने जाने वाले और रांची लोकसभा से तीन-तीन बार के सांसद रहे सुबोधकांत सहाय की राजनीतिक सक्रियता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं, और यह सवाल कांग्रेस संगठन के बजाय राजधानी के गली-नुक्कड़ और चाय दुकानों से कुछ ज्यादा ही उठ रही है.
सुबोध कांत की राजनीतिक सक्रियता पर सवाल
दावा किया जा रहा है कि सुबोधकांत सहाय सिर्फ चुनाव के समय सक्रिय होते हैं, दिल्ली से टिकट लेते हैं और सीधे रांची लैंड कर जाते हैं, और एक और हार के साथ ही एक बार फिर से दिल्ली का फ्लाईट पकड़ वापस हो जाते हैं, उनका अधिकांश समय दिल्ली में गुजरता है, जमीन से कभी जुड़ाव नहीं रहता. सड़कों पर वह दिखलाई नहीं पड़तें, सत्ता विरोधी संघर्ष में उनकी हिस्सेदारी नहीं होती. कभी किसी ने उन्हें जमीन पर उतर कर केन्द्र सरकार की नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोलते नहीं देखा, सुख दुख की घड़ी में अपने मतदाताओं के साथ खड़े नजर नहीं आतें. हालांकि हाल के दिनों में उनकी सक्रियता एक बार फिर से तेज होती नजर आने लगी है, लेकिन कुल मिलाकर उनकी उपस्थिति नगण्य ही रहती है.
सुबोधकांत नहीं तो कौन?
लेकिन मूल सवाल है कि कांग्रेस के पास सुबोधकांत के सिवा और दूसरा चेहरा कौन है. हालांकि कभी रांची लोकसभा से तृणमूल के टिकट पर चुनाव लड़ चुके और एक प्रमुख आदिवासी चेहरा बंधु तिर्की आज के दिन कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, लेकिन उनके चुनाव लड़ने पर रोक लग चुकी है. इस हालत में कांग्रेस के पास कोई दूसरा चेहरा नजर नहीं आता.
सुबोधकांत ने अंतिम बार 2009 में फहराया था जीत का परचम
तब क्या माना जाय कि अन्दर खाने इंडिया गठबंधन किसी दूसरे चेहरे की तलाश में हैं, और सूत्र बताते हैं कि जरुरी नहीं है कि रांची की लोकसभा की सीट कांग्रेस के खाते में ही जाय, कांग्रेस इस सीट से लगातार सुबोधकांत सहाय तो उम्मीदवार बनाती रही है, अंतिम बार उन्होंने वर्ष 2009 में इस सीट को फतह हासिल किया था, उसके बाद 14 वर्षों को लम्बा समय गुजर गया, और इसके साथ ही वह राजधानी रांची के मतदाताओं की स्मृति से बाहर भी हो गयें.
कांग्रेस के बजाय झामुमो उतार सकता है अपना उम्मीदवार
इस बीच खबर यह भी आ रही है कि रांची लोकसभा में कांग्रेस की इस खस्ता हालत को देखते हुए झामुमो अपना प्रत्याशी उतार सकती है. तब सवाल खड़ा होता है कि झामुमो के पास वह चेहरा कौन होगा?
महुआ माजी हो सकती हैं झामुमो का ट्रप कार्ड
दावा किया जाता है कि वह चेहरा और कोई दूसरा नहीं बल्कि रांची नगर विधान सभा सीट से वर्ष 2014 और 2019 में सीपी सिंह के मुकाबले खड़ा होने वाली वर्तमान की राज्य सभा सांसद महुआ माजी होगी. ध्यान रहे कि महुआ माजी मूल रुप से साहित्यकार रही है, और झारखंडी की भाषा, संस्कृति और परंपरा पर उनकी गहरी पकड़ हैं. लेकिन राजनीति में पदार्पण के बावजूद वह चुनावी राजनीति में अब तक कोई बड़ा करिश्मा दिखलाने में कामयाब नहीं रही है. जबकि अपनी हार दर हार के बावजूद सुबोधकांत सहाय के पास राजनीति का लम्बा अनुभव है. वह शायद चुनावी राजनीति की बारीक पेचदीगियों को बेहतर तरीके से समझते हैं. और इसके साथ ही रांची लोकसभा कांग्रेस का मजबूत गढ़ भी माना जाता है, और अब तक वह इस संसदीय सीट से सात बार जीत का परचम फहरा चुकी है, जबकि उसके मुकाबले में झामुमो का यहां कभी खाता भी नहीं खुला है.
आदिवासी, पिछड़ा और कांग्रेस के परंपरागत मतदाताओं पर झामुमो की नजर
लेकिन बदलती राजनीति और कांग्रेस के पस्त पड़ते हौसले के बीच झामुमो यहां प्रयोग करने का इरादा रखती है, उसकी बड़ी वजह रांची लोकसभा सीट में अनुसूचित जन जाति की करीबन 15 फीसदी की आबादी भी है, इसके साथ ही हेमंत सरकार लगातार पिछड़ों का आरक्षण में विस्तार का दावा भी कर रही है, जिसका सीधा लाभ महतो आबादी को मिलना है, जिसकी आबादी भी करीबन 15 फीसदी की है. इस प्रकार एक मजबूत सामाजिक समीकरण उसके पक्ष में खड़ा हो सकता है, और बची खुची कसर कांग्रेस पूरा कर सकती है, जिसका यह अब तक का मजबूत गढ़ रहा है.
लेकिन सुबोधकांत सहाय का क्या होगा? बगावत या सरेंडर
लेकिन सवाल यह है कि तब सुबोध कांत सहाय का क्या होगा, दबी जुबान चर्चा यह है कि कांग्रेस उन्हें हजारीबाग लोकसभा क्षेत्र से उतार जयंत सिन्हा के साथ भी भाजपा के सामने चुनौती पेश कर सकती है. लेकिन इसमें खतरा यह है कि रांची लोकसभा में कायस्थों की आबादी करीबन 45 हजार के पास मानी जाती है, हालांकि यह आबादी मुख्य रुप से रांची शहर में ही है, लेकिन सुबोध कांत की अनुपस्थिति में यह वोट भाजपा की ओर शिफ्ट हो सकता है, वैसे भी कायस्थों को भाजपा का आधार वोट बैंक माना जाता है, लेकिन यदि भाजपा हजारीबाग से जयंत सिन्हा को पैदल करती है, तो इस हालत में रांची में कायस्थों का झुकाव इंडिया गठबंधन की ओर भी हो सकता है.
झारखंड में कांग्रेस की हालत पस्त, हेमंत का सियासी चाल के साथ चलना ही बेहतर
अब देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस झामुमो के इस फैसले को स्वीकार करती है, और यदि करती भी है तो इसके बदले में उसकी डिमांड क्या होती है. वैसे झारखंड की राजनीति में कांग्रेस की जो हालत है, वह कुछ ज्यादा दबाव बनाने की हैसियत में नजर नहीं आती. कुल मिलाकर उसे हेमंत सोरेन के सियासी चाल के साथ चलना ही फायदेमंद साबित हो सकता है.