Ranchi-आज भले ही दिशोम गुरु को संताल की सियासत का बेताज बादशाह माना जाता हो, लेकिन एक दौर वह था, जब टुंडी विधान सभा शिबू सोरेन के सामाजिक-सियासी संघर्षों की प्रयोग स्थली हुआ करती थी, इसी धरती से गुरुजी ने महाजनों और सूदखोरों के विरुद्ध हुंकार लगायी थी, धनकटनी आन्दोलन की शुरुआत कर महाजनों और सूदखोरों का दिन का चैन और रात की नींद उड़ायी थी. यह वह दौर था शिबू सोरेन का नाम ही महजनों और सूदखोरों के बीच आंतक का पर्याय था. और इस खौफ को दूर करने के लिए, ना जाने कितने बार, आदिवासी समाज के इस चेहते को ठिकाना लगाने की साजिश रची गयी. लेकिन शिबू सोरेन भूमिगत संघर्ष एक दिन कामयाब हुआ, और वह झारखंडियों की आवाज बन कर सामने आये, उनकी यात्रा अनवरत चलती रही और जैसे-जैसे यह संघर्ष रफ्तार लेता गया, देश-दुनिया में शिबू सोरेन का नाम सुर्खियों में छाने लगा. पटना से लेकर दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठान में यह सवाल गहराने लगा कि आखिर वह युवा कौन है, कौन है वह नायक, जिसके इशारे पर आदिवासी समाज स्थापित सामाजिक सत्ता के विरुद्ध बगावत का बिगूल फुंक रहा है. कौन है आदिवासी समाज का वह चेहता, जिसकी रक्षा के लिए आदिवासी समाज अपनी जिंदगी को दांव पर लगाने को तैयार है, जिसकी कोई टोह पुलिस तक पहुंच नहीं पाती. जो कहीं दिखलायी नहीं देता, लेकिन जिसकी गूंज हर ओर सुनाई देती है.
टुंडी की इसी धऱती से मिली थी शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि
इस संघर्ष और समर्पण का ही परिणाम था कि इसी टुंडी विधान सभा में आदिवासी समाज ने अपने बेटे को दिशोम गुरु की उपाधि से सम्मानित किया था. लेकिन एक दौर वह भी आया, जब दिशोम गुरु ने भूमिगत आन्दोलन के बजाय सामाजिक बदलाव के लिए सियासत का रास्ता चुना. यह 70 के दशक का दौर था. जब पूरे देश में इंदिरा गांधी के विरुद्ध एक लहर थी. देश आपात्तकाल के बाद चुनाव की तैयारी में था. इसके पहले वर्ष 1973 में वामपंथी नेता एके राय और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर शिबू सोरेन ने झामुमो का गठन भी कर लिया था. लेकिन सियासत की यह राह तो भूमिगत आन्दोलन से भी टेढ़ी और पथरीली थी, घात-प्रतिधात का खेल था. 1977 में जैसे ही शिबू सोरेन ने टुंडी से विधान सभा चुनाव लडऩे की घोषणा की, इस नवोदित पार्टी में टूट हो गयी. एक तरफ शिबू सोरेन विधान चुनाव में किस्मत आजमाने पर अड़े थें, उधर एके राय इसे किसी भी कीमत पर शिबू सोरेन के इस चाहत को स्वीकार करने को तैयार नहीं थें. लेकिन शिबू सोरेन अपनी जिद पर अड़े रहें और आखिरकार एके राय ने किसान संग्राम समिति की ओर से शक्तिनाथ महतो को अखाड़े में उतारने का एलान कर दिया. शक्तिनाथ महतो के उतरने के कारण वोटों का बंटवारा हुआ और दिशोम गुरु को अपने पहले ही सियासी प्रयोग में जनता पार्टी के सत्य नारायण दुदानी के हाथों हार का सामना करना पड़ा, इस हार के पीछे एक और वजह पूरे देश की तरह झारखंड में भी इंदिरा गांधी के खिलाफ लोगों में गुस्सा था. यह चुनाव स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मुद्दे पर लड़ा गया था. लोग किसी भी कीमत पर इंदिरा गांधी को हराना चाहते थें, जबरदस्त गुस्सा था, और इसका लाभ जनता पार्टी के सत्य नारायण दुदानी को मिला.
हार के बाद संताल को बनाया अपना ठिकाना
कहा जाता है कि इसी हार के बाद शिबू सोरेन के दुमका को अपना नया ठिकाना बनाया, और दुमका से आठ बार सांसद रहें. यह वह दौर था जब दुमका को कांग्रेस को गढ़ माना जाता था, लेकिन अपनी पहली ही कोशिश में शिबू सोरेन ने दिग्गज कांग्रेसी नेता पृथ्वीचंद किस्कू को धूल चटाते हुए कांग्रेस के इस किले को ध्वस्त कर दिया, उसके बाद यह कारवां बढ़ता रहा, और आज पूरे संताल की पहचान दिशोम गुरु के नाम से होती है.
टुंडी भी बना झामुमो का मजबूत किला
हालांकि अपने पहले प्रयोग में गुरुजी को टुंडी से हार का सामना करना पड़ा, लेकिन 1977 के बाद जैसे ही 1980 विधान सभा चुनाव हुआ, विनोद बिहारी महतो ने टुंडी में झामुमो का परचम लहरा दिया. 1985 में फिर से सत्यनारायण ददानी को सफलता मिली, लेकिन 1990 में एक बार फिर से विनोद बिहारी महतो ने टुंडी पर झामुमो का झंडा गाड़ दिया. उनकी मौत के बाद 1995 में सबा अहमद ने झामुमो के हिस्से जीत दिलवायी, लेकिन 2000 में सबा अहमद पलटी मारते हुए राजद की सवारी कर बैठें और पहली बार टुंडी में लालटेन जला. लेकिन 2005 के बाद मथुरा प्रसाद महतो की इंट्री हुई, और वह 2005,2009, 2019 में झामुमो का झंडा फहराते रहें. इस प्रकार टुंडी झामुमो का मजबूत किला के रुप में सामने आया है, भले ही इस सीट से गुरुजी को सियासी शिकस्त का सामना करना पड़ा हो, लेकिन इस सीट पर आज जो झामुमो का परचम लहरा रहा है, उसकी नींव दिशोम गुरु ने ही तैयार की थी.
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