Ranchi-जिस इंडिया गठबंधन को शक्ल लेता देख कर भाजपा के अन्दरखाने बेचैनी बढ़ती दिखलायी दे रही थी, हालत यहां तक हो गयी थी कि भाजपा प्रवक्ताओं के द्वारा इंडिया शब्द से तौबा करने की स्थिति कायम हो गयी थी, खुद पीएम मोदी अपने सियासी हड़बड़ाहट में कभी घमंडिया गठबंधन तो कभी इंडी गठबंधन बताकर मजाक उड़ाने की कोशिश करते नजर आ रहे थें, इस गठबंधन को सामने आने के बाद यह माना जा रहा था कि इस बार 2024 का जंग भाजपा के लिए आसान नहीं रहने वाला है. जब वन टू वन का मुकाबले की स्थिति आयेगी तो भाजपा को 200 का आंकड़ा पार करने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.
पांच राज्यों के सेमीफाइनल में दम तोड़ता नजर आया इंडिया गठबंधन
वही इंडिया गठबंधन अपने मुख्य मुकाबले के पहले के पांच राज्यों के सेमीफाइनल फाइनल में ही दम तोड़ता नजर आने लगा है. और इसकी वजह कुछ और नहीं वही कांग्रेसी सियासत की पुरानी अदा और सामंती सोच है. जो अपने सहयोगियों से कुर्बानी की आशा करती है, लेकिन जब बात उसकी खुद की कुर्बानी की आती है, तो वह तमाम क्षेत्रीय दलों को उनकी औकात बताने की कोशिश करने लगता है.
दरअसल इंडिया गठबंधन में फूट की पहली वजह सपा प्रमुख अखिलेश यादव के द्वारा मध्यप्रदेश के दंगल में अपने लिए हिस्सेदारी की मांग करना है. अखिलेश यादव की नजर मध्यप्रदेश की करीबन एक दर्जन सीटों पर लगी हुई थी, जहां पिछली बार सपा का परफॉर्मेंस काफी अच्छा रहा था, हालत यह थी कि सपा कांग्रेस को पछाड़ते हुए इन विधान सभा की सीटों में दूसरे नम्बर की पार्टी बन गयी थी, अखिलेश यादव अपने उसी परफॉर्मेंस के आधार पर इन सीटों पर अपनी दावेदारी ठोक रहे थें, लेकिन कमनलाथ ने सपा प्रमुख की मांगों को कोई भाव नहीं दिया और खुद अपने बल पर भाजपा को परास्त करने का दांवा ठोक दिया, बात यहीं खत्म नहीं हुई, कमलनाथ और कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने सपा प्रमुख के लिए कई अभद्र शब्दों का भी प्रयोग किया. जिसके बाद अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश में अधिक से अधिक उम्मीवारों उतारने का एलान कर दिया, माना जा रहा है कि सपा वहां कमसे कम 100 सीटों पर अपना उम्मीवार उतारने जा रही है. साफ है कि यदि मध्य प्रदेश का मुकाबला कांटे का होता है, तो इसका सीधा नुकसान कांग्रेस को होगा, और उसका यह अति आत्मविश्वास लुटिया डूबो सकता है.
हालांकि वहां की जमीनी हालात क्या है, और सपा वहां कितनी प्रभावकारी होगी, यह एक अलग सवाल है, लेकिन इतना तो साफ है कि इंडिया गठबंधन के अन्दर अभी से ही अविश्वास की खायी चौड़ी होती नजर आने लगी है.
झारखंड में फंस सकता है कांटा
लेकिन यदि बात हम झारखंड की करें तो भी इंडिया गठबंधन की राह यहां भी इतनी आसान नहीं रहने वाली है. क्योंकि जिस तेवर के साथ कांग्रेस झारखंड में आदिवासी-मूलवासी मुद्दों को उठाकर अपने जनाधार को विस्तार करने की कवायद में है. और उसकी नजर लोकसभा की कम से कम 8 सीटों पर लगी हुई है. वह मुराद पूरा होता नजर नहीं आ रहा. और जमीनी सच्चाई भी इसी ओर इशारा कर रही है, आज जिस पश्चिमी सिंहभूम की एक मात्र सीट पर उसका झंडा फहर रहा है, उसकी सभी विधान सभाओं में झामुमो के विधायक हैं, कुल मिलाकर कर उसकी यह सीट झामुमो के जमीन से निकली हुई है, लेकिन दिक्कत यह है कि कांग्रेस उसे अपना जनाधार मानने की भूल कर रही है. ठीक यही हाल दूसरे लोकसभा क्षेत्रों को लेकर भी है. पलामू, चतरा, हजारीबाग, रांची, जमशेदपुर की जिन सीटों पर कांग्रेस की नजर हुई है, कहीं भी वह स्वतंत्र तौर पर जीतने की स्थिति में नहीं है, हर लोकसभा सीट पर उसे अपने सहयोगियों की वैशाखी की जरुरत है, और खास कर झामुमो की.
क्या अपनी सियासी जमीन को कांग्रेस के पास गिरवी रखने की भूल करेगा झामुमो
लेकिन क्या कांग्रेस आलाकमान इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार है, और यदि कांग्रेस आलाकमान इस जमीनी सच्चाई को स्वीकार नहीं करता है, तो क्या वह इस बात की आशा करता है कि झामुमो अपनी सियासी जमीन को कांग्रेस के पास गिरवी रखने की भूल करेगा. दूसरी बात जिस प्रकार बिहार की जातीय जनगणना के बाद राहुल गांधी जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी का राग अलापते नजर आ रहे हैं, उसकी विश्वसनीयता कितनी है. जिस प्रकार राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में टिकट बंटवारें में पिछड़ों की अनदेखी की गयी, समुचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया, वह सवाल आज झारखंड की पिछड़ी जातियों के बीच भी खड़ा होने लगा है. और इस बात पर बहस तेज हो चुकी है कि कांग्रेस सिर्फ पिछड़ों की हकमारी की बात कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकना चाहता है, लेकिन बात जब हिस्सेदारी की आती है तो वह अपने वादे से मुकर जाता है. और आज भी उसका भरोसा सवर्ण मतदाताओं पर है, और यही कारण है कि उत्तर प्रदेश से लेकर झारखंड बिहार में पार्टी की कमान से पिछड़ों दलितों को दूर रखा गया है. इस हालत में पिछड़े कांग्रेस पर क्यों और कब तक भरोसा करेंगे यह एक गंभीर सवाल है.