रांची(RANCHI)-संथाल परगना और उसके आस-पास के जिलों में संथाल आदिवासियों की बड़ी आबादी है. वे जंगल में शिकार करके और झूम खेती करके अपना जीवन बसर करते थे. उनकी मान्यता थी कि जंगल और ज़मीन भगवान की देन है. इसे कोई छीन नहीं सकता है. वे कभी किसी शासक को लगान नहीं दिए और किसी ने उनके सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप भी नहीं किया.
ज़मीन्दारो और महाजनों के खिलाफ मुक्ति संघर्ष
अंग्रेजीराज कायम होते ही बाहरी ज़मीन्दारो और महाजनों ने उनके सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप किया. ज़मीन्दारों ने उन्हें लगान देने के लिए बाध्य किया. महाजनों ने उन्हें लगान चुकाने के लिए सूद पर कर्ज़ दिया. सूद का दर 50 से 500 ℅ था. कर्ज़ से उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिली. महाजन उनकी ज़मीन छीन लिया और वे उसी ज़मीन पर अल्प मज़दूरी पर खटने के लिए विवश हो गये. उनकी बकरियाँ और मुर्गे भी छीन लिए जाते. उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार होते और विरोध करने पर उनकी हत्या कर दी जाती थी.
देश से गद्दारी में मिली थी जमीन्दारी
इस देश में ज़मीन्दारों और राजाओं ने अंग्रेज़ों से लड़ कर नहीं, बल्कि देश के साथ गद्दारी के एवज़ में ज़मीन्दारी और रियासत पाया है. उनके वंशज गद्दारों के वंशज हैं. अंग्रेज़ों, ज़मीन्दारों और महाजनों के बर्बर ज़ुल्म और शोषण के ख़िलाफ़ झारखंड के आदिवासियों ने बार-बार विद्रोह किया है. तथाकथित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व उनके प्रमुख विद्रोह थे- पहाड़िया विद्रोह (1766), चुआड़ विद्रोह (1769), ढाल विद्रोह (1773), तिलकामांझी का विद्रोह (1784), तमाड़ विद्रोह (1819-20), लरका विद्रोह (1821), कोल विद्रोह (1831-32), भूमिज विद्रोह (1832-33) और संथाल विद्रोह (1855-56).
भोगनाडीह की वह विशान जन सभा
30 जून 1855 ई० की चांदनी रात में सिदो के गाँव भोगना डीह में विशाल जन-सभा का आयोजन किया गया. इसी सभा में संथाल विद्रोह, जिसे संथाल हूल भी कहा जाता है, की घोषणा की गयी. सभा को संबोधित करते हुए सिदो ने कहा- अब नील की खेती नहीं की जाएगी और सरकार को लगान नहीं दिया जाएगा. गैर-संथाल जातियों के लोगों (लुहार, चमार, तेली, ग्वाला, जुलाहा, डोम व अन्य) हमारे साथ हैं, उनके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी.
अबुआ दिसोम, अबुआ राज!
सभा में संकल्प लिया गया कि वे ज़मीन्दारों, महाजनों, अंग्रेजी शासन, पुलिस और न्यायाधीशों के हाथों अब और अत्याचार नहीं सहेंगे. अब वे किसी की गुलामी नहीं करेंगे. संथाल परगना से शोषकों-उत्पीड़कों को खदेड़ कर सारी ज़मीन पर कब्जा करेंगे और अबुआ दिसोम, अबुआ राज! (अपना देश, अपना राज!) कायम करेंगे. अबुआ राज की स्थापना के लिए एक बड़ी सेना गठित करने का आह्वान किया गया.
पूरे सौ किलोमीटर के दायरे में फैला यह विद्रोह
7 जुलाई 1855 को संथाल विद्रोह (संथाल हूल) आरम्भ हुआ. विद्रोही संथाल अंग्रेज़ों, निलहों, पुलिस थानों, ज़मीन्दारों और महाजनों पर हमला करते थें. उनकी हत्या करते, उनकी सम्पत्ति लूटते और कोठियों में आग लगा देते थें, सौ वर्ग मील के आंचलिक दायरे में विद्रोही कई टुकड़ियों में बंट कर अपने दुश्मनों पर हमला करते थें.
शहादत में दर्ज होते ग्रामीण वीरांगनाओं के नाम
विद्रोहियों को कुचलने के लिए अंग्रेजी सेना ने संथालों पर हमला किया. कई युद्धों में संथाल विजयी रहे. लेकिन अंततः अंग्रेजी सेना की बन्दूकों और तोपों का मुकाबला वह तीर-धनुष से नहीं कर पाये. उनके गाँव के गाँव जला दिए गए. फसलों में आग लगा दी गई. विद्रोहियों के नेता सिदो गिरफ्तार कर लिये गये. उन्हें बर्बर यातना दी गयी और फांसी पर लटका दिया गया. एक-एक कर सारे विद्रोही युद्ध में मार दिये गयें. सिदो के अन्य भाई कानु, चांद और भैरो भी युद्ध में शहीद हो गये. उनकी बहन फूलो और झानो भी अंग्रेजी सेना का मुक़ाबला करती हुई शहीद हो गयीं. इसी विद्रोह में गैर-आदिवासी वीरांगना राधा और हीरा भी शहीद हुई. लेकिन इतिहास के पन्नों में इन अनपढ़ ग्रामीण वीरांगनाओं के नाम दर्ज नहीं होते हैं, दर्ज होते हैं रानियों के नाम!
25 हजार आदिवासी-मूलवासियों ने किया अपना उत्सर्ग
इस विद्रोह में 25 हजार विद्रोही मारे गये. लेकिन कहीं भी एक भी विद्रोही आत्मसमर्पण नहीं किया. आत्मसमर्पण उनकी संस्कृति में नहीं था. यह देशी-विदेशी उत्पीड़कों- अंग्रेजी राज, ज़मीन्दारों और महाजनों- के ख़िलाफ़ "अपना देश, अपना राज" कायम करने के लिए एक जन-विद्रोह था. इसमें हजारों आदिवासियों, गैर-आदिवासियों, हिन्दुओं और मुसलमानों ने भाग लिया था. इस विद्रोह में हजारों आदिवासी और गैर-आदिवासी महिलाओं ने भी भाग लिया था. यह औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ भारतीय जनता का मुक्ति संग्राम था. इस मुक्ति संग्राम को कुचलने में यहाँ के ज़मीन्दार, महाजन और बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेज़ों का साथ दे रहा था. "अबुआ दिसोम, अबुआ राज!" का सपना आज भी अधूरा है! समर अभी शेष है! युद्ध अभी जारी है!
एन के नन्दा के सौजन्य से