Ranchi-झारखंड की सियासत में अपने बागी स्वर और जल जंगल और जमीन के साथ झारखंडी अस्मिता के सवाल पर में अपनी ही पार्टी को कटघरे में खड़े करते रहे लोबिन ने इस बार झामुमो के अधिकृत उम्मीदवार और निवर्तमान सांसद विजय हांसदा के खिलाफ चुनावी अखाड़े में उतरने का एलान कर दिया है. लोबिन का यह अंदाज कोई नया नहीं है. इसके पहले भी वर्ष 1995 में वह झामुमो के अधिकृत उम्मीदवार को सियासी मैदान में धूल चटा चुके हैं. लोबिन की सियासत पर पैनी नजर रखने वालों का दावा है कि लोबिन का सिर्फ स्वर ही बागी नहीं है, चुनावी अखाड़े की रणनीतियां भी जूदा होती है. अखबारों की सुर्खियों के बजाय लोबिन का हथियार पंरपरागत प्रचार-प्रसार का माध्यम होता है. हाट-बाजार में आम लोगों के साथ संवाद का अचूक हथियार होता है. वह किसी भी दरवाजे पर बैठ कर उसकी भाषा-भाखा में राजनीति की तमाम गुत्थियों को एक अलहदा अंदाज में समझा सकते हैं और खास बात यह है कि जमीनी मुद्दों की समक्ष हैं, जो मुद्दे और विमर्श अखबारों में सुर्खियां बटोर रहे होते है, उससे दूर वह अपने मतदाताओं के साथ उनकी जिंदगी से जुड़े मसलों की बात करते हैं. खेत और खलिहान का हाल पूछते हैं, कौन सा बेटा किस शहर में काम कर रहा है और बेटी की शादी में क्या बाधा है. यही जनसम्पर्क का विषय़ होता है और इस सबके बीच वह यह बताना भी भूलते कि दिशोम गुरु का जो सपना था, जिस झारखंड के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी खपायी, आज वह तार-तार होने के कगार है, और इसका कारण पार्टी के अंदर गैर झारखंडी चेहरों की बढ़ती सियासी पकड़ है, वह तो आज भी झामुमो का सबसे सच्चा सिपाही हैं, गुरुजी का वफादार योद्दा है, यह तो पार्टी है, जो गुरुजी के सिंद्धातों से भटकती नजर आ रही है, उनकी लड़ाई तो पार्टी को उसके असली मुद्दे पर लाकर खड़ा करने की है.
अपने प्रसार-प्रचार की शुरुआत कर चुके है लोबिन
राजमहल के सियासी अखाड़े में उतरने के एलान के साथ ही लोबिन राममहल के दौरे पर हैं. वह कभी बोरियो तो कभी लिट्टिपाड़ा तो कभी महेशपुर के हाट बाजारों में छोटे छोटे समूहों के साथ सम्पर्क साधते दिख रहे हैं. इस हालत में यह सवाल खड़ा होता है कि लोबिन की यह चुनौती कितनी गंभीर होने वाली है. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्ष 2019 के मुकाबले में झामुमो ने कुल 49 फीसदी मतों के साथ इस सीट को अपने नाम किया था, जबकि भाजपा के हिस्से महज 39 फीसदी वोट आया था, जबकि 2014 में भाजपा और झामुमो के बीच कुल चार फीसदी मतों का अंतर था. यानि 2014 के बाद 2019 में झामुमो के वोटों में कुल छह फीसदी का इजाफा हुआ है, जो झामुमो की मजबूत पकड़ को प्रदर्शित करता है. लेकिन इससे साथ ही यह सवाल भी खडा होता है कि यदि अपने सीमित संसाधन और देशज प्रचार के साथ लोबिन 10 फीसदी मतों में भी सेंधमारी में भी सफल होते हैं, तो उसके बाद सियासी तस्वीर क्या होगी?.
राजमहल में त्रिकाणीय मुकाबले की भविष्यवाणी में कितना दम!
हालांकि कुछ सियासी जानकारों के द्वारा राजमहल में त्रिकोणीय मुकाबले की भविष्यवाणी की जा रही है. हालांकि यह त्रिकोणीय मुकाबला कितना त्रिकोणीय होगा. इसको लेकर कई संशय हैं. पहला संशय तो लोबिन के चुनाव लड़ने को लेकर ही है. लोबिन को जानने वालों का दावा है कि उनके बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. कल यदि झामुमो की ओर से दवाब बनाया जाता है. खासकर यदि गुरुजी बुलाकर डांट-फटकार लगाते हैं, तो एक ही झटके में लोबिन अपने आप को इस मुकाबले से बाहर करने का एलान भी कर सकते हैं. बावजूद इसके यदि लोबिन मुकाबले में बने रहने का एलान करते हैं तो क्या वह बोरिया विधान सभा से बाहर कोई बड़े उलटफेर करने की स्थिति में होंगे?
क्या बोरियो के बाहर चल पायेगा लोबिन का जादू?
क्या लोबिन राजमहल, बरहेट,लिटिपारा, पाकुड़ और महेशपुर विधान सभा में झामुमो के कोर वोटरों का रुख अपनी ओर मोड़ सकने का मादा रखते हैं. क्योंकि अब तक लोबिन की सियासी गतिविधियां विधान सभा चुनाव तक ही सीमित रही है. बोरियो के बाहर उनका कोई मजबूत सियासी गतिविधि नहीं रही. ना ही झामुमो ने अब तक लोबिन के चेहरे को किसी व्यापक फलक पर विस्तारित करने की कोशिश की, जिसके कारण बोरियो के बाहर उनकी पहचान स्थापित हो सके. साथ ही लोकसभा चुनाव का अपना एक अलग समीकरण और सियासी गुत्थियां होती है, साथ ही संसाधनों का भी एक बड़ा खेल होता है. संसाधनों की यही कमी लोबिन के सियासी हसरतों पर विराम लगा सकता है. यह ठीक है कि लोबिन बोरियो से पांच बार के विधायक रहे हैं, लेकिन बोरियो से बाहर कितने कार्यकर्ता है. जिसके बूते वह चुनावी समर में ताल ठोंकेगे. निश्चित रुप से लोबिन आदिवासी-मूलवासियों के आवाज को प्रखरता के साथ उठाते रहे हैं , उनके पास प्रसार प्रचार का अपना देशज तरीका भी है, लेकिन चुनावी समर में कार्यकर्ताओं की फौज की जरुरत होती है. इस हालत में यह सवाल खड़ा होता है कि लोबिन जिस मुद्दों को उछाल चुनावी संग्राम में कूदने की तैयारी में हैं, क्या वह उन मुद्दों के सहारे जमीन पर कोई बड़ा उलटफेर करने की स्थिति में होंगे?
क्या है राजमहल का सियासी और सामाजिक समीकरण
जहां तक राजमहल लोकसभा की बात है तो इसके अंतर्गत विधान सभा की कुल छह सीटें आती है, इसमें अभी राजमहल पर भाजपा(अनंत ओझा), बोरियो-झामुमो (लोबिन हेम्ब्रम), बरहेट झामुमो (हेमंत सोरेन), लिटिपार-झामुमो (दिनेश विलियम मरांडी), पाकुड़-कांग्रेस(आलमगीर आलम) और महेशपुर- झामुमो (स्टीफन मरांडी) का कब्जा है, यानि कुल छह विधान सभा में से पांच पर कांग्रेस और झामुमो का कब्जा है. क्या लोबिन के बगावत से झामुमो ताकत इस हद तक सिमट जायेगा कि जीत का वरमाला लोबिन के गले आ जाय? फिलहाल इसकी कोई गुंजाईश बनती नहीं दिखती. लेकिन यदि लोबिन 10 फीसदी मतों में सेंधमारी में भी सफल हो जाते हैं तो भाजपा का खेल बन सकता है. यानि विजय हांसदा के विजय रथ पर लोबिन का ताला लग सकता है, अब देखना होगा कि लोबिन किस सीमा तक झामुमो के वोटों में सेंधमारी में सफल होते है.
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