Ranchi- काफी लम्बे अर्से और गहन चिंतन-मनन के बाद भाजपा ने 2024 के पहले बाबूलाल मरांडी को अपना चहेरा बनाया था. भाजपा यह मान कर चल रही थी कि वह बाबूलाल के संथाल-आदिवासी चेहरे को सामने रख वह इस आदिवासी बहुल राज्य में 2024 की बैतरणी पार कर जायेगी. कम से कम वर्तमान की 12 लोक सभा की सीटों में से 10 पर तो अपना झंडा फहरा ही लेगी.
गैर आदिवासी चेहरे को सामने लाने का हश्र देख चुकी है भाजपा
इसके पहले वह गैर आदिवासी चेहरे को सामने लाने का हश्र वह देख चुकी थी, तब पीएम मोदी की पसंद माने जाने वाले रघुवर दास ने ना सिर्फ भाजपा की सत्ता को डुबाया था, बल्कि खुद अपनी सीट बचाने में भी नाकामयाब रहे थें. किसी भी सत्ताधारी दल की यह भयानक हार थी. साफ था कि विशाल जनजातीय समाज में रघुवर दास के चेहरे को स्वीकार नहीं किया गया था, उनके लिए यह एक विजातीय चेहरा था, हालांकि शहरी इलाकों में इसका अच्छा संदेश गया था, लेकिन इसके बावजूद रघवुर दास जमशेदुपर जैसी सीट गंवा बैठे थें.
दशमत रावत का अपमान आदिवासी अस्मिता को चुनौती
लेकिन लगता है कि सब कुछ भाजपा की बनी बनाई रणनीति के अनुसार चलता हुआ दिख नहीं रहा है और इसमें गलती कोई बाबूलाल की नहीं है, यह राजनीतिक तूफान तो पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश से आया है. जहां एक भाजपा कार्यकर्ता परवेश शुक्ला मुंह में सिगरेट के गुब्बारे उड़ाता हुआ आदिवासी युवक दशमत रावत के सिर पेशाब कर बैठा.
झामुमो को मिला चुनावी मुद्दा
और इससे साथ ही झारखंड में झामुमो और आदिवासी संगठनों को बैठे बिठाये भाजपा के खिलाफ एक चुनावी मुद्दा मिल गया. यह पेशाब कांड भाजपा की सारी रणनीति का बंटाधार करता दिख रहा है, जिस प्रकार से झारखंड के कोने कोने से आदिवासी संगठनों का हुजूम भाजपा कार्यालय की ओर निकल पड़ा है, उसके संकेत साफ है. भाजपा को इस पेशाब की कीमत चुकानी पड़ सकती है. बालूलाल का सम्मान तो ठीक है, यहां सवाल आदिवासी दलित अस्मिता का खड़ा हो गया है, और इतिहास गवाह है जब जब आदिवासी अस्मिता और पहचान पर सवाल उठाये गयें है, आदिवासियों की सामाजिक चेतना को ललकारा गया है, उनके स्वाभिमान को चुनौती दी गई है, परिणाम अच्छे नहीं निकले हैं.