Ranchi-देवर हेमंत के जेल जाते ही भाभी सीता सोरेन की पलटी के बाद चाचा राजाराम सोरेन के श्राद्धकर्म जिन दूरियों और कड़वाहट की आशंका प्रकट की जा रही थी, वह सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुई. पूरे श्राद्ध कर्म के दौरान सीता सोरेन बड़ी बहू की भूमिका में कल्पना सोरेन का मार्गदर्शन करती नजर आयी, वहीं कल्पना सोरेन भी अपने बदले अंदाज में सीता सोरेन के नेतृत्व में रश्मों को पूरा करती नजर आयी. इस बीच देवर भाभी मुलाकात भी हुई. सीता सोरेन की आंखें एकटक देवर हेमंत के बदले लूक पर टिकी नजर आयी, देवर की बढ़ी-बेतरतीब दाढ़ी और उस दाढ़ी में गुरुजी की उभरती अश्क में भाभी सीता सोरेन एकबारगी खोती नजर आयी.
भर आयी मां रुपी सोरेन की आंखें
लेकिन सबसे रोचक क्षण तब आया जब हेमंत का सामना अपनी मां रुपी सोरेन से हुआ. बेटे के इस बदले लूक को देखकर मां की आँखें भर आयी, आंखें तो भाभी सीता सोरेन की भी भरी नजर आयी. पीड़ा और अवसाद की रेखाएं वहां भी उभरती नजर आयी. लेकिन सबसे अधिक संत्रास और संताप कल्पना सोरेन की आंखों में उमड़ता दिखा. मानो अपने गुम आंखों से वह सवाल दाग रही हो कि इन रश्मों का निर्वाह तो ठीक है, पंरपराओं का सम्मान भी ठीक है. लेकिन क्या उस टीस का कोई उपचार भी इन परंपराओं में हैं. जब परिवार अपने सबसे बड़ा संकट के दो-चार था. जब परिवार को सबसे अधिक एकजुटता की जरुरत थी, एक दूसरे को सांत्वना प्रदान करने और भावनाओं पर मरहम लगाने की जरुरत थी. जिस फूट को अंजाम दिया गया. सियासी चाहत में दगावाजी की जो पटकथा लिखी गयी, क्या उस दगाबाजी पर, पंरपराओं के इस सम्मान से मरहम लगने वाला है?
आज बेटे अपने पिता की छत्रछाया से दूर हैं, उसके पिता को लेकर उसके साथियों का सवाल है. वृद्ध मां की आंखों में सवालों का समंदर है. दिशोम गुरु की आंखें विरान है, और खुद मैं जिस टूटन के दौर से गुजर रही हूं, क्या इस टूटन के दौर में परिवार की बड़ी बहू की कोई भूमिका नहीं थी? यह ठीक है कि आज पूरा परिवार एक है, यह भी ठीक है कि हम अपने अपने दर्द को समटे अपने दायित्वों का निर्हवन कर रहे हैं. लेकिन क्या सब कुछ इतना सामान्य है? क्या आज के बाद हम फिर से एकदूसरे के सामने ताल ठोंकते नजर नहीं आयेंगे. क्या उस सियासी प्रतिद्वंदिता में हम एक दूसरे को जख्म देते नजर नहीं आयेंगे, और यदि यही सब होता है, तो फिर क्या यह हमारे सीने में दफन दर्द को और भी गहरा नहीं करेगा?
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